एक शायरा की याद में...
Anusha Mishra 26 Dec 2017 12:54 PM GMT

यूं तो शायरी और कविताएं खूबसूरत ख़्यालों को लफ्ज़ों में पिरोकर ही मुकम्मल होती हैं लेकिन एक ऐसी भी शायरा हुई हैं जिनकी हर शायरी में उनके हुनर की खुशबू आती है। ख़्यालों की खुशबू, ख़्वाबों की खुशबू, रिश्तों की खुशबू, इश्क़ की खुशबू, विचारों की खुशबू। यहां तक कि उनकी गज़लों की पहली किस्त का नाम भी 'खुशबू' ही था। मैं बात कर रही हूं पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर (24 नवंबर 1952 - 26 दिसंबर 1994) की। आज उनकी पुण्यतिथि है।
परवीन गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं की छात्रा थीं इसलिए उनकी शायरी का अपना जुदा अंदाज़ था। करियर के शुरुआती दौर में ही उनकी कुछ गज़लें गायकों ने गाईं। उनकी इस शायरी में पारम्परिक ग़ज़ल और मुक्त छंद दोनों ही शामिल थे। मोहब्बत, स्त्रीवाद और सामाजिक रुढ़ियों पर केंद्रित उनकी ग़ज़लें वाकई कमाल हैं। कहते हैं कि उनकी शायरी में अपनी मोहब्बत का इज़हार करती हुई जो बेझिझक औरत है वो उस दौर के किसी और शायर में नहीं मिलती। हालांकि उन्होंने और विषयों पर भी ग़ज़लें लिखी हैं और वे भी उतनी ही खूबसूरत हैं। ये शेर उनकी गज़लों की खूबसूरती की बानगी भर है -
जुगनू को दिन के वक्त परखने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए
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आज उनकी पुण्यतिथि पर पढ़िए उनकी कुछ यादगार ग़ज़लें...
1. चेहरा मेरा था निगाहें उसकी
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
ख़ामुशी में भी वो बातें उस की
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई साँसें उस की
ऐसे मौसम भी गुज़ारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उस की
ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आँख महताब की यादें उस की
फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आँधियाँ मेरी बहारें उस की
नीन्द इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उस की
दूर रह कर भी सदा रहती है
मुझ को थामे हुए बाहें उस की
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2. चिड़िया
सजे-सजाये घर की तन्हा चिड़िया!
तेरी तारा-सी आँखों की वीरानी में
पच्छुम जा छिपने वाले शहज़ादों की माँ का दुख है
तुझको देख के अपनी माँ को देख रही हूँ
सोच रही हूँ
सारी माँएँ एक मुक़द्दर क्यों लाती हैं?
गोदें फूलों वाली
आँखें फिर भी ख़ाली।
3. उसके मसीहा के लिए
अजनबी!
कभी ज़िन्दगी में अगर तू अकेला हो
और दर्द हद से गुज़र जाए
आँखें तेरी
बात-बेबात रो रो पड़ें
तब कोई अजनबी
तेरी तन्हाई के चाँद का नर्म हाला[1] बने
तेरी क़ामत[2] का साया बने
तेरे ज़ख़्मों पे मरहम रखे
तेरी पलकों से शबनम चुने
तेरे दुख का मसीहा बने
(अर्थ - 1. वृत्त, 2. देह की गठन)
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4.रुकने का समय गुज़र गया है
रुकने का समय गुज़र गया है
जाना तेरा अब ठहर गया है
रुख़्सत की घड़ी खड़ी है सर पर
दिल कोई दो-नीम कर गया है
मातम की फ़ज़ा है शहर-ए-दिल में
मुझ में कोई शख़्स मर गया है
बुझने को है फिर से चश्म-ए-नर्गिस
फिर ख़्वाब-ए-सबा बिखर गया है
बस इक निगाह की थी उस ने
सारा चेहरा निखर गया है
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