रामलीलाः ‘अरे क्या बक-बक करता है बकरी की तरह, चीर कर रख दूंगा, लकड़ी की तरह’

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रामलीलाः ‘अरे क्या बक-बक करता है बकरी की तरह, चीर कर रख दूंगा, लकड़ी की तरह’रावण।

दृश्य एक -

मंच सजा था, बिजली की लड़ियों ने चकाचौंध मचा रखी थी। महागुन मेट्रो मॉल की विशाल इमारत की छत पर मैकडॉनल्ड का लाल रंग का निशान चमक रहा था। इस मॉल की आधुनिकता की चमक के ऐन पीछे मैदान में था मंच। बल्बों की नीली-पीली रौशनी के बीच भगवा रंग के कपड़ो में एक किशोर-सा अभिनेता लक्ष्मण बना हुआ था।

मंच पर मौजूद सारे अभिनेता, जिनमें एक विदूषक, कई वानर लड़ाके और कई राक्षस थे। हनुमान भी। सारे अभिनेता मंच पर हमेशा चलते रहते, तीन कदम दाहिनी तरफ, फिर वापस मुड़कर, तीन कदम बाईं तरफ। बीच-बीच में कोई पंडितजीनुमा आदमी कोई निर्देश दे आता मंच पर जाकर। फिर मंच पर आवाज आती, उद्घोषक की, जिसे अपनी आवाज़ सुनाने में ज्यादा दिलचस्पी थी। काले कपड़ो में सजे मेघनाद की आवाज़ में ज़ोर था, भगवा कपड़े में सजे लखन लाल की आवाज़ नरम थी। लेकिन तेवर वही...दोनों के बीच संवाद में शेरो-शायरी थी। एक ललकारता...दूसरा उसका जवाब देता।

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लखन लाल चीखे, 'अरे क्या बक-बक करता है बकरी की तरह, चीर कर रख दूंगा, लकड़ी की तरह।' भीड़ ने जोरदार ताली बजाई। मैदान में धूल-धक्कड़ है। प्रीतम की धुन बजाता पॉपकॉर्न बेचने वाला है। लकड़ी की तलवारें, गदाएं, तीर-धनुष हैं।

सोच रहा था कि क्या दिल्ली में भी लोग इतने खाली हैं, या फिर कुछ तो ऐसा है इन आधुनिक शहरियों को अपनी ओर खींच रहा है। रामलीला के बगल में, एक जगह ऑरकेस्ट्रा का आय़ोजन है। लड़की बांगला गाने गा रही है, और लगभर सुर के बाहर गा रही है।

रामलीला में दृश्य बदलता है, रावण का दरबार सजा है और दो लड़कियां (समझिए अप्सराएं) नाच रही हैं। उनका कमर और कूल्हे मटकाना कुछ भड़कीला ही है। अप्सराएं रावण से कह रही हैं- अमियां से आम हुई डार्लिंग तेरे लिए...

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वह भीड़ से पूछती है, केनो, हिंदी ना बांगला...भीड़ के अनुरोध पर वह हिंदी में गाती है। लौंडिया पटाएंगे, फेविकोल से... मेरे मित्र सुशांत को पूजा के पवित्र पंडाल में यह शायद अच्छा नहीं लगा होगा। मैं तर्क देता हूं कि यह मास कल्चर है। मास को पसंद कीजिए, हर जगह तहज़ीब की पैकेजिंग नहीं चलेगी। पिछले साल इसी जगह रामलीला में अप्सराएं फेविकोल वाला गाना गा रही थीं। यह सही है। यही सही है। आम आदमी, जिसके लिए राम लीला के पात्रों ने हिंदुस्तानी बोलना शुरू कर दिया। संवादों के बीच में ही, मानस की चौपाईयां आती हैं, जो माहौल में भक्ति का रंग भरने के सिवा कुछ और नहीं करतीं। अगल बगल गुब्बारे, हवा मिठाई, गोलगप्पे...प्लास्टिक के खिलौने...चाट, भेलपूरी। मुझे मधुपुर की याद आई।

दृश्य दो -

हमारे घर के पास ही एक दुर्गतिनाशिनी पूजा समिति है। दुर्गा की मूर्त्ति के सामने बच्चों के नाच का एक कार्यक्रम है। यह समिति पहले उड़िया समुदाय के लोगों के हाथ में थी, अब उस समिति में बिहारी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, यूपी के सभी समुदायों के लोग है।

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सभी घरों के बच्चे नाच रहे हैं, महिलाएं हैं... मेयर साहब आते हैं..। जय गणेशा गाने पर नाचने वाला लड़का बहुत अच्छा नाच रहा है। मैं पहचानता हूं उसे, वह बिजली मिस्त्री है। रोज पेचकस कमर में खोंसे शिवशक्ति इलेक्ट्रिकल्स पर बैठा रहता है। मुसलमान है। अब किसी को फर्क नहीं पड़ा कि नाचने वाला लड़का किस धर्म का है। किसी को फर्क नहीं पड़ा कि दुर्गा जी ने जिस महिषासुर को मारा है मूर्ति में... उसकी जाति और उसके समुदाय को लेकर बौद्धिक तबका बहस में उलझा है। जनता को फर्क नही पड़ता कि दुर्गा ने किसको मारा है। देश उत्सवधर्मियों का है, उत्सव मनाते हैं हम।

इसमें विचारधारा को मत घुसेडिए। दुर्गा पूजा को एक प्रतीक भर रहने दीजिए। इसके सामाजिक संदर्भों को देखिए, इसमें और समुदायों को मिलाइए... और सांप्रदायिकता, राम को सांप्रदायिक बना दिया है आपने, अब दुर्गा को भी मत बनाइए। यह आम लोगों को उत्सव है... उत्सव ही रहे। ऑरकेस्ट्रा बजता रहे, सुर बाहर लगे, कोई दिक्कत नहीं, जय गणेसा पर नाचते रहें लोग...बस।

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