सामुदायिक सद्भावना की प्रतीक, बुंदेलखंड में सजती लोक कला महबुलिया

यहाँ के दीवारों या भूमि पर जो भी चित्र अंकित किये जाते हैं वे शुभ व मंगलकारी माने जाते हैं तथा इसकी रचना परम्परानुसार होती है। अल्पना, रंगोली के रूप में यहाँ 'कोंडर' प्रचलित है।

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सामुदायिक सद्भावना की प्रतीक, बुंदेलखंड में सजती लोक कला महबुलिया

डॉ. जय शंकर मिश्र

भारतीय मान्यता अनुसार श्रम और उल्लास को एक साथ रखने से मानव जीवन सुखद, सरल और सुन्दर हो जाता है। यही कारण है कि हमारे पौराणिक ग्रंथों में ऋषि-मुनियों ने कृषकों को केन्द्र में रख कर फसलों के प्राप्त होने के साथ ही किसी-न-किसी उत्सव के आयोजन की व्यवस्था दी है, जिसका क्रम वर्ष भर चलता रहता है। अंग्रेजी माह जुलाई, अगस्त एवं सितम्बर मूलतः भारतीय महिने श्रावण, भाद्र व आश्विन (सावन, भादो व कुंवार) का द्योतक है। प्राकृतिक दृष्टि से जुलाई व अगस्त ऋतुओं की रानी वर्षा की कालावधि है, जबकि सितम्बर हेमन्त के आगमन का प्रतीक है।

सामान्यतः बुन्देलखण्ड क्षेत्र में जुलाई, अगस्त एवं सितम्बर के मध्य रथ या़त्रा, गुरु पूर्णिमा, नाग पंचमी, रक्षा बन्धन, कजली, कृष्ण जन्माष्टमी, हरितालिका व्रत, गणेश चौथ, विश्वकर्मा पूजा, अनन्त चौदश, अस्त्यार्घदान, पितृ पक्ष, महबुलिया, दुर्गापूजा आदि पर्व-त्योहार व उत्सवों को हर्षोल्लास से मनाने की परम्परा आज भी विद्यमान है।

Bundelkhand's folk-art, Mahbuliya

अंग्रेजी और भारतीय काल गणना के आधार पर इनके आयोजन अवधि में कुछ भेद हो सकता हैं तथापि इन सभी में भारत के विशाल व अक्षुण्ण परमम्रा का पोषण देखा जा सकता है। ये हमें अपनों से जोडने, पूर्वजों को याद करने, प्रकृति के प्रति प्रेम, प्राणी मात्र के संरक्षण आदि भावों के समेटे उच्च अध्यात्म के साथ परम तत्व की प्राप्ति की ओर ले जाने का सहज माध्यम प्रतीत होते हैं। ऊपर वर्णित पर्वोत्सवों में बुन्देलखण्ड मध्य एक अनोखा तथा अद्वितीय उत्सव का आयोजन होता है, जिसे महबुलिया के नाम से जाना जाता है। मात्र पितृ पक्ष में आयोजित होने वाले यह उत्सव क्रीडा, पूजा-पाठ तथा कलाकृतियों के सृजन का एक समिल्लित रुप है।

लोक कला का मूल स्रोत सहज प्रवृत्ति व धर्म, तन्त्र और मन्त्र पर आधारित होता है। स्मृति चित्र में यहाँ की कला उल्लेखनीय है। जिनमें भय, धर्म व स्मृति का भाव निहित होता है। यहाँ के लोक चित्रों में जीवन के क्रिया कलापों से सम्बन्धित हर्ष, शोक, व्याधि एवं प्राकृतिक विपदा से सुरक्षा के उपाय के रूप में विचित्र व सृजनात्मक आकृतियाँ बनायी जाती हैं।

बुन्देली लोक-कला महबुलिया में यहाँ के लोक मानस की कलात्मक अभिरुचि का दर्शन होता है और इनमें धार्मिक व सांस्कृतिक महत्त्व छिपा हुआ है जो विभिन्न अवसरों पर प्रस्तुत चित्रों में परिलक्षित होता है। भारतीय लोक जीवन व लोक संस्कृति के परिचायक के रूप में क्षेत्रीय कला की अपनी एक अलग व अनूठी पहचान रही है, जो हमारी संस्कृति को समृद्धि व व्यापकता प्रदान करती है और साथ ही इतिहास की जानकारी उपलब्ध कराती है। जो भी हो यह जन मानस के मध्य अलग-अलग मान्यताओं के साथ उपादेयता का समेटे अविरल रुप से प्रवाहमान है। आज आवष्यकता मात्र इस बात की है कि इस प्रकार से फैली तमाम आंचलिक लोेक कलाओं को संरक्षण और प्रोत्साहन मिल सके।

क्या है महबुलिया?

इस क्षेत्र में फैली आंचलिक लोक कला बाहर के लोगों से तो दूर है ही, साथ ही स्थानीय लोग भी इसके प्रति उदासीन है। मृण्मूर्ति, पाषाणीय और काष्ठ कला के साथ यहाँ की चित्रवत् पच्चीकारी कला-''महबुलिया'' प्रसिद्ध है। मात्र एक पखवारे के मध्य बनने वाली महबुलिया बड़े ही आकर्षक और लुभावने होते हैं। यह जन भावना व लोक कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। मामुलिया इस क्षेत्र के कुँवारी कन्याओं का खेल है, जो इस क्षेत्र की संस्कृति का एक प्रतीक है। कष्ट व पीड़ा में रहकर भी प्रसन्नता से जीवन व्यतीत करना ही मामुलियों का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। ''दतिया की 80 वर्षीय श्रीमती गोमती देवी दुबे बताती हैं कि दतिया में राजा गोविन्द सिंह के समय (1907-1945) उनकी बेटी बाई जू राजा किले में बुलौआ करती थीं तथा वे सहेलियों के साथ बग्घी में मामुलिया पीताम्बर पीठ के पास सीता सागर में विसर्जन के लिए ले जाती थीं। आगे बाजे बजते जाते थें। बाई जू राजा की मामुलिया के बाद ही बस्ती की अन्य मामुलिया जाना आरम्भ होती थीं।''4 इससे मामुलिया निर्माण के प्राचीनता व महत्त्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है।

(महबुलिया) कला सृजन

कला का सृजन संभवतः मानव इतिहास के साथ ही दृष्टिगोचर होता है। गुहा चित्रों से लेकर अधुनातन कला ने सर्वदा ही मानव को सहारा दिया है और इसकी अविरल धारा निरन्तर गतिमान है। जहाँ यह मानव के अभिव्यक्ति और संप्रेषण का आरम्भिक साधन बनी वहीं इसने स्वान्तः सुखाय और आत्म संतुष्टि का मार्ग भी प्रशस्त किया। कला के द्वारा मानव के विकास के लिए शाó वर्णित अनिवार्य चारों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) को प्राप्त किया जा सकता है। यह तथ्य चित्रसूत्र के निम्न श्लोक से भी स्पष्ट हो जाता है-

कलानां प्रबरं चित्रं, धर्म कामार्थ मोक्षदम् ।

मांगल्यं प्रथम ह्येतद्, गृहे यत्र प्रतिष्ठितम।।

अर्थात् कला में चित्र रचना श्रेष्ठ है और यह धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदायक है, इसके सृजन का उद्देश्य घर में मंगल भावना का संचार करना है और कला के सौन्दर्य बोध से सब कुछ संभव है। अनुभूति और विचारों को व्यक्त करती चित्रकला में अब सामाजिक उपादेयता और अन्तःसंबंध स्थापित होने लगे हैं। इस हेतु मानव ने सांस्कृतिक उत्सवों को आरंभ किया और शरीर के साथ मानसिक शांति और विकास हेतु संस्कार की अवधारणा का प्रादुर्भाव हुआ। कलाएँ हमारे संस्कारों से जुड़. जीवन को कल्याणकारी और रसमय बनाने के साथ ही समृद्धि व व्यापकता प्रदान करती है।

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बुन्देली लोक कला-महबुलिया में यहाँ के लोक मानस की कलात्मक अभिरुचि का दर्शन होता है और इनमें धार्मिक व सांस्कृतिक महत्त्व छिपा हुआ है जो विभिन्न अवसरों पर प्रस्तुत चित्रों में परिलक्षित होता है। भारतीय लोक जीवन व लोक संस्कृति के परिचायक के रूप में क्षेत्रीय कला की अपनी एक अलग व अनूठी पहचान रही है, जो हमारी संस्कृति को समृद्धि व व्यापकता प्रदान करती है और साथ ही इतिहास की जानकारी उपलब्ध कराती है। जो भी हो यह जन मानस के मध्य अलग-अलग मान्यताओं के साथ उपादेयता का समेटे अविरल रुप से प्रवाहमान है। आज आवष्यकता मात्र इस बात की है कि इस प्रकार से फैली तमाम आंचलिक लोेक कलाओं को संरक्षण और प्रोत्साहन मिल सके।

Mahbuliya

बुन्देली कला के रूप में महबुलिया

कला व संस्कृति किसी क्षेत्र विशेष की पहचान होती है और वह स्थानीय परम्पराओं का संवाहक होती है। बुन्देली संस्कृति परम्पराओं का पोषक रही है। रीति-रिवाज, उत्सव, अनुष्ठान और रुढिवादी आयोजनों की निरन्तरता के कारण यहाँ सर्वदा ही सांस्कृतिक गतिविधियों की प्रस्तुती होती रहती है। इन आयोजनों में यहाँ के आल्हा गायन की विशेष संगीतमयता, दिवाड.ी का उत्साही नृत्य सभी क्षेत्रीय विरासत को समेटे हुए है। स्थानीय मधुर वाणी की भाँति लोक संस्कारोत्सवों में चाक्षुष कला भी देदिप्यमान होती रही है। मूर्तिकला के अद्भूत उदाहरण के रुप में खजुराहो की विश्व प्रसिद्ध कृतियाँ चन्देली शासक और तांत्रिक कला का अद्वितीय पर्याय है। यद्यपि बुन्देली चित्र रचना का इतिहास अधिक समृद्धशाली नहीं है तथापि दतिया और ओरछा की चित्रकारिता के साथ लोककला-महबुलिया स्थानीय लोक सांस्कृतिक परम्पराओं के सुमन सौरभ को बिखेर रही है। बुन्देलखण्ड-झांसी, महोबा, दतिया, ओरछा, ग्वालियर, छतरपुर, पन्ना आदि क्षेत्र आंचलिक लोक कला का अद्भूत उदाहरण प्रस्तुत करता है। भित्ति चित्रण के साथ भूमि चित्र, सांझी, महबुलिया, मामुलिया व काष्ठ आदि लोक कला के विविध आयाम यहाँ की कला को समृद्धिशाली बनाते है।

भूमि चित्रण के रूप में

यूँ तो बुन्देली लोक कला न तो भूमि चित्र और न ही अपनी भित्ति चित्रण में दक्षता रखती है तथापि इनके मामुलिया, साँझी, गोदना आदि स्थानीय महत्त्व के हैं। ''बुन्देली चौक व माँड़णे, ज्यामितीय आकारों में गेहूँ के सूखे आँटे द्वारा (जिसे यहाँ कनक कहते हैं) आँगनों में सृजित किये जाते हैं।'' यहाँ के दीवारों या भूमि पर जो भी चित्र अंकित किये जाते हैं वे शुभ व मंगलकारी माने जाते हैं तथा इसकी रचना परम्परानुसार होती है। अल्पना, रंगोली के रूप में यहाँ 'कोंडर' प्रचलित है। यहाँ दीवालों पर मोर मुरैला का चित्र राष्ट्रीय भावना का प्रतीक है। देव प्रबोधनी एकादशी में कृषक के उपयोगी सामग्रियों का तिलंगा बना पूजा जाता है। इस एकादशी को यहाँ 'डिठवन' के नाम से भी जानते हैं। इसके साथ बढ़नी के पंखे, मोर के सींक, सन् की डोरी, सिकहर आदि में यहाँ की लोक झाँकियाँ दिखती हैं। परम्परागत चित्रों में भूमि चित्र को सांझी के नाम से जाना जाता है।

लोक-आकृति

बुन्देली लोक कला यहाँ के चित्र व मूर्ति (खिलौने) आदि में मिलते हैं। चित्रकला के लिए मुख्यतः गोदना, ग्यारस के लिखना, मृत्तिका पात्रों पर आलेखन, सांझा, चौक और विवाह के अवसर पर बने खम्भों के उल्लेखनीय हैं। चित्रण कार्य यहाँ के घर की दीवारों, दरवाजे के दोनों ओर किया जाता है, जिसमें छुही मिट्टी, गेरू आदि का प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ कोहबर, स्वस्तिक, वेदी, पुरइन, हाथ का छापा, कलश, वारायन, नागों का जोड़ा आदि का चित्रण भी होता है। बुन्देलखण्ड में लोक चित्रकार को चितेरा ग्वालियर में, बिर्तिया दतिया में और कर्मगार छतरपुर में, आदि कहा जाता है।

मूर्ति के लिए काष्ठ, प्रस्तर, मिट्टी, आँटा, धातु, गोबर, शक्कर व वó के माध्यम प्रमुख हैं। मूर्तियों में देवी-देवता, भूत-प्रेत, मृत्तिका पात्र व हाथी-घोड़ा आदि का निर्माण किा जाता है। इस क्षेत्र की लोक कलाओं में सर्वाधिक महत्त्व मामुलिया या महबुलिया का है जो साँझी से मिलती-जुलती है। ''मामुलिया बुन्देलखण्ड के कुँवारी कन्याओं का खेल है जिसे ये क्वार माह के पितृपक्ष में खेलती हैं और यह बुन्देली संस्कृति का एक प्रतीक है।''3 इसमें बेर के झाड़ पर रंगीन फूल के पँखुडि़यों को लगाया जाता है। प्रत्येक दिन एक से एक मामुलिया का निर्माण होता है जिसे अन्तिम दिन गाजे-बाजे के साथ पास के नदी तालाब में विसर्जित भी किया जाता है।


महबुलिया, सृजन व तकनीक-

यह कला ग्रामीण जन-जीवन मध्य उसके आंगन व दिवारों पर बिना किसी आवलम्ब तथा आश्रयदाता के निरन्तर फैलती और आगे बढ़ती चली आ रही है। दशहरा के आगमन का सूचक इस कला का सृजन आश्विन (कुंवार) माह के पितृ पक्ष में सर्वत्र देखा जा सकता है। मूलतः इस कला का सृजन बालिकाओं द्वारा ही किया जाता है। वे समूह में सुबह-सबेरे ही पुष्प संचय करती हैं और सांध्य वेला में इसका निर्माण व सृजन आरंभ होता है। इस कला का सृजन धरातल, फर्श, पत्थर व दिवार आदि पर की जाती है। इसके सृजन से पूर्व निर्माण स्थल को रंग, चूने अथवा गोबर आदि से लीप लिया जाता है। तत्पश्चात् गीले गोबर से ही आकृति को उभार कर उकेरा जाता है। इसके बाद भाँति-भाँति के फूलों के रंग-बिरंगे पंँखुडि़यों को इस पर चिपका कर इसे अन्तिम रुप प्रदान किया जाता है। वाह्य लाल पंँखुडि़यों की श्रृंखला मध्य पीले और उसके बीच भूरे या काले पंँखुडि़याँ बरबस ही नयनों का रोक लेती हैं। कहीं-कहीं पर पंँखुडि़यों की जगह रंगीन पत्थर, पन्नी, सीप व घांेघे भी चिपकाये जाते हैं। आकृति के तैयार हो जाने पर इसकी विधिवत पूजा-अर्चना कर आरती उतारी जाती है तथा भोग-प्रसाद लगाये जाने की परम्परा है। अन्तिम दिन इस कला की प्रस्तुति कटीली झाडि़यों और सूखी टहनियों में फूलों की रंगीन पंँखुडि़यों को पिरो कर भी किया जाता है, जोे दुःख की घड़ी में भी शाँति और प्रसन्नता के भावों को व्यक्त करता है और इसे गाजे-बाजे के साथ पास के नदी अथवा तालाब में विसर्जित भी किया जाता है।

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इन आकृतियों के सृजन में मुख्यतः ज्यामितीय आकार का प्रयोग किया जाता है। कहीं-कहीं पर पशु-पक्षी व पेड़-पौधों की आकृति के साथ मानव चित्रण का प्रयास भी दिखता है। रेखाएँ टेढ़ी-मेढ़ी व अनुपात से परे होते हुए भी सम्पूर्ण दृश्य मन को आकृष्ट कर लेती है। कहीं इसे भाई की लम्बी आयु के लिए बनाया जाता है तो कहीं लड़कियाँ अपने सुयोग्य वर एवं सुखद तथा सम्पन्न ससुराल की अभिलाशा को संजो कर बनाती है। कहीं-कहीं इसे पितृ पक्ष में निर्माण का तात्पर्य पूर्वजों को समर्पित तथा प्रेत आत्मा की शांति से भी लगाया जाता है। इस प्रकार भारतीय लोक जीवन व लोक संस्कृति के परिचायक के रूप में अन्य क्षेत्रीय कला की भाँति यह कला भी अपनी एक अलग व अनूठी पहचान रखती है।

उपादेयता

कला की सम्यक् जानकारी व अध्ययन-विश्लेषण से उसके गहन सामाजिक सम्बन्ध और उपादेयता दृष्टिगोचर होती है। मानव आदि काल से ही विभिन्न रुपों में इसका सहारा लेता रहा है और अपनी अभिलाशाओं को पूर्ण करता रहा है। सदियोें की भाँति आज भी कला की विविध उपयोगिताएँ दृष्टव्य हैं, संक्षेप में इन्हें निम्नवत् प्रस्तुत किए जा सकते हैं-

सामाजिक पहचान: कला क्षेत्र विशेष की पहचान लिए होती है, जिसमें सामाजिक पहचान निहित होती है। समाज के विभिन्न आयामों के साथ इसमें धर्म, जाति व वर्ग की अपनी-अपनी पहचान दृष्टिगोचर होते हैं।

अतीत का संरक्षण: कलाओं के संरक्षण व संवर्द्धन से स्वतः ही अतीत का संरक्षण हो जाता है। पूर्व घटित घटनाओं को कला के माध्यम से सहज ही संरक्षित किया जा सकता है और उसे भविष्य के लिए सहेज कर रखा जा सकता है।


सामुदायिक भावना: कला विशेष कर लोक कला में सामुदायिक भावनाओं की सहज प्रस्तुति देखी जा सकती है। समाज में यह धार्मिक और सांस्कारिक कार्यक्रमों में प्रयुक्त होता है। अर्थात तीज-त्योहार में सृजित कला में जन भागीदारी रहती है, जिस कारण इसमें व्यक्तिगत भावना की जगह सामूहिक भावना सनिद्ध रहता है।

परम्परा का संवाहक: कला हमारी परम्पराओं का पोषक और संवाहक होती है। लोक कला में किसी भी स्थान और क्षेत्र विशेष की परम्पराओं को आसानी से देखा जा सकता है। ग्रामीण जन अपनी परम्पराओं को पीढ़ी-दर-पीढ़ी कला के माध्यम से आगे बढाती है, जिससेे यह निरन्तर प्रवाहमान रहती है।

मांगलिक अभिलाशा: लोक कला मांगलिक उत्सवों का अनिवार्य हिस्सा होती है, जिसके बिना उत्सव अधूरा और निरस सा प्रतीत होता है। ग्रामीण जन अपनी कलात्मक प्रस्तुति से मांगलिक अभिलाशाओं की पूर्ति की कामना करते हैं। उनके द्वारा उकेरे गये प्रत्येक रेखा और सृजित आकृतियाँ उनके मंगल कामना, उच्च अध्यात्म, आदर्श और शांति भावनाओं से परिपूर्ण होती हैं।

सृजनशीलता: मानव जन्म से ही सृजनशील होता है। कला उसकी सृजनात्मक क्षमता को सरस और क्रियाषील बनाता है। मानव की सोच, चिन्तन व कल्पनाा कलात्मक स्वरुपों में प्रस्फुटित होते हैं और उसका जीवन सुखद व आनन्दित हो जाता है।

(डॉक्टर जय शंकर मिश्रा व्यवसायिक कला में प्रोफ़ेसर के साथ स्वतंत्र कलाकार व लेखक भी हैं।)

                 

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