साहिर - शायर आज जिसकी मज़ार का भी पता नहीं ...

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साहिर -  शायर आज जिसकी मज़ार का भी पता नहीं ...साहिर लुधियानवी

महान गीतकार और शायर साहिर लुधियानवी का इंतकाल साल 1980 को आज ही की तारीख यानि 25 अक्टूबर को हुआ था। उन्हें मुंबई के जूहू कब्रिस्तान में दफ़्न किया गया था। लेकिन साल 2010 में जगह बनाने के लिए उनकी कब्र को मिटा दिया गया था। साहिर की ज़िंदगी कई इश्क़िया दास्तानों से गुलज़ार रही है। गाँव कनेक्शन ‘महफ़िल’के साथी सैय्यद एस तौहीद ने इस मौके पर हमारे पाठकों को उन कहानियों से फिर रूबरू कराने की कोशिश की है।

साहिर के मुहब्बत के कई अफ़साने आप सभी ने सुने होंगे। यह अफसाना जुदा न सही, पर सदाक़त से भरपूर है। अफ़साने की इबारत व सजावट पढ़ने से पहले ये समझ लेना लाज़िम है के साहिर का स्वभाव उनकी हस्ती के हर मोड़ पे किस क़दर रंग बदल रहा था | तल्खी-ए-जिंदगी ने बचपन से जवानी तक साहिर का साथ नहीं छोड़ा। सही मानों में यह रंज-ओ-ग़म ही था जो साहिर का साथ निभाता चला गया और साहिर हर फिक्र को धुएं में उडाते चले गए।

साहिर बुनियादी तौर पे एक रुमानी शायर थे, जिनका इश्क कभी परवान न चढ़ सका | यही वजह थी की उनकी शायरी दर्द-ए-इश्क के अहसास से अछूती नहीं। साहिर की शायरी में इश्क के हर रंग का अहसास शामिल है जो दिल को गहरे तक छु जाता है। शुरूआती मुफलिसी, पिता से कड़वे ताल्लुकात मां-बाप का जुदा होना, इन्तेहाई विरोधाभासी माहौल। सभी का साहिर की शायरी और इश्क़ से ताल्लुक है। साहिर की पहला मुहब्बत, उनके करीबी दोस्त फैज़-उल-हसन के मुताबिक एक लड़की प्रेम चौधरी थी, जिसका इन्तेकाल बेवक्त जवानी में ही हो गया | इस वाक़िये का जिक्र साहिर की एक नज़्म में मिलता है।

यह तकरीबन 1939 का साल था और अभी इस हादसे को हुए ज्यादा वक़्त नहीं गुज़रा था, इसी बीच साहिर एक बार फिर इश्क़ में गिरफ्तार हो गए।| मामला पहले से ज्यादा संगीन था, और लड़की थी ऐशर कौर– एक सिख | साहिर अब तक बतौर शायर अपना सिक्का जमा चुके थे और कालेज के हर समागम में बढ़-चढ़ के हिस्सा ले रहे थे | साहिर का ये इश्क की ओर रुझान परस्तिश में तब्दील होते जा रहा था | गर्मियों की छुट्टियों से पहले, जब ऐशर अपने गांव जाने वाली थी, दोनों ने एक शाम कॉलेज में मिलने का इरादा किया | ये तो जाहिर तौर पे कहना मुश्किल होगा कि उन दोनों के दरमयान क्या गुज़रा | बहरहाल, कालेज के चौकीदार ने दोनों की शिकायत प्रिन्सिपल से कर दी | अंजाम ये हुआ कि दोनों को कालेज ने निकाल दिया गया |

साहिर लुधयानवी

1943 की बात है, साहिर अपनी क़िताब ‘तल्खियां’ प्रकाशित कराने के इरादे से लाहौर आये हुए थे | इधर लुधियाने में ऐशर कौर ने अपने पिता की ख्वाईश के खिलाफ़ बगावत कर दी और साहिर से मिलने लाहौर चली आई | मिलकर पिता के पास वापस न लौट कर बम्बई चली गई | वहां उन्हें कोई पुराना करीबी मिल गया जिससे ऐशर ने निकाह कर लिया | साहिर का दिल फिर जख्मी था

बिछड़ गया हर साथी दे कर, पल दो पल का साथ किसको फुर्सत है जो थामे दीवानों का हाथ हमको अपना साया तक, अक्सर बेजार मिला हमने तो जब कलियाँ मांगीं, कांटों का हार मिला
साहिर

अब तक साहिर बम्बई आकर फिल्मो में गीत लिखना शुरू कर चुके थे और खासा नाम भी कमा चुके थे | इन्ही दिनों की एक और शख्सियत सुधा मल्होत्रा से ताल्लुक रखता फ़साना भी है | साहिर की नाक़ाम इश्किया कोशिशों में से ये भी एक दिलचस्प इत्तेफाक है | दिल्ली से ताल्लुक रखने वाली सुधा जी का बचपन लाहौर, भोपाल और फिरोजपुर में गुज़रा | आगरा से संगीत में डिग्री लेने बाद, उस्ताद अब्दुल रहमान खान और पंडित लक्ष्मण प्रसाद की सरपरस्ती में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली | सुधा के संगीत के हुनर और खूबसूरती को उस ज़माने के फ़िल्मी संगीतकार ग़ुलाम हैदर साहब ने फिरोजपुर के एक जलसे में पहचाना | आकाशवाणी में बतौर आर्टिस्ट काम करने के बाद सुधा जी ने फिल्मो में भी गाना शुरू कर दिया |

साहिर

आपको पहला अवसर बतौर पार्श्व गायक 'आरज़ू' में अनिल बिस्वास ने दिया | बहुत सी फिल्मों में अच्छे गाने के बावजूद सुधा दूसरी मशहूर हस्तियों मसलन लता, आशा वगैरह की फेहरिस्त में शामिल न हो सकी | फिल्मों में काम भी बाकाएदा हासिल नहीं हो रहा था, ऐसे में साहिर फ़रिश्ते की मानिंद सुधा की ज़िन्दगी में आये | साहिर ने नायारण दत्ता से सुधा की सिफारिश की | फिर क्या था सुधा साहिर के एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत गीतों को आवाज़ देती रही | साहिर सुधा में एक महबूब ढूंढते रहे |

तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको

मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है

मेरे दिल की मेरे जज़्बात की कीमत क्या है

उलझे उलझे से खयालात की कीमत क्या है

मैंने क्यों प्यार किया तुमसे, क्यों प्यार किया

इन परेशान सवालात की कीमत क्या है

तुम जो यह भी न बताओ तो ये हक है तुमको

मेरी बात…

इस मशहूर गीत से ताल्लुक एक किस्सा भी है | जिस दिन ये गीत रिकार्ड होने वाला था, अचानक दत्ता साहब बीमार हो गए और गाने का फिल्मांकन टालना मुमकिन नहीं था | इस मौक़े पर सुधा नें नगमे की बंदिश खुद बनाने की पेशकश की, जिससे प्रभावित हुए बिना साहिर भी न रह सके | यह गीत बहुत ही मशहूर हुआ और साहिर के दिल की अनकही रुदाद बन के रह गया | अपनी खोटी किस्मत के तर्ज पर साहिर एक बार फिर इश्क में नाकामयाब रास्ते पर थे | कुछ लोगों का मानना है कि सुधा ने साहिर से नजदीकियां फिल्मों में काम हासिल करने के लिए बढाई और वक्त निकल जाने बाद साहिर की मोहब्बत को रास्ता दिखा दिया | कहा जाता है कि इसी नाकामी के जज्बात में साहिर ने गीत लिखा - चलो एक बार फिर से ....

साहिर का सबसे मशहूर इश्किया फ़साना अमृता प्रीतम से जुड़ा है | अमृता और साहिर की ज़िन्दगी से ताल्लुक सवालों का जवाब उनके इतिहास में ही दफ़्न है |

अमृता एक साफ़, नेक और खुले दिल की शख्सियत थी | बगावत और नज़ाक़त उन्हें विरासत में मिले थे | इन्होने एक सौ से ज्यादा किताबें ज़िन्दगी रहते लिखी, जिनमें असफल विवाह एवं विभाजन का ग़म ज़ाहिर तौर पर देखने को मिलता है | आपका शुमार चुनिंदा तरक्की-पसंद शायरों में है |बचपन के दिनों जब अमृता की मां बहुत बीमार हो गई | अमृता का खुदा पे अटूट यकीन था कि वो जल्द ठीक हो जाएंगी | इसी के चलते अपनी मां की सलामती की दुआ करती रही | खैर,खुदा की मर्ज़ी के आगे अमृता की ज़िद न चली और उसकी मां गुज़र गयी | इस हादसे के बाद, अमृता का खुदा से रिश्ता टूट गया,नास्तिक सी हो गई |

प्रीतम सिंह से ब्याह होने बाद अमृता एक नए माहौल में, एक नयी हस्ती, नए वजूद में बहुत राहत महसूस नहीं कर रही थी | हालांकि उन्हें अपने पति और उसके घर वालों से कोई ख़ास शिकायत नहीं थी | लेकिन किस्मत की बेपरवाह हाथों हुए इस ज़बरन दस्तख़त से अमृता को भीतर तक़लीफ़ पहुंची थी | अमृता की बेबसी आखिर कब तक उनका इम्तेहान लेती | शब्र कब तलक बंधा रहता? फैसला वक़्त को लेना बाक़ी था ।

सााहिर

तलाक़ से पहले अमृता की ज़िन्दगी बहुत उथलपुथल और मानसिक पीड़ा के दरमयान रही | इधर अमृता अपने आप से लडाई लड़ रही थी और उधर लुधियाना में अमृता से बेख़बर साहिर कम्युनिस्ट संगत में रह कर सामाजिक लडाई लड़ रहे थे | साहिर को देश के नाखुशगवार हालात ने इंकेलाबी बना दिया था | साहिर मेरठ से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका के लिए लिख रहे थे | यह तरक्की पसंद शायरों की अंजुमन का आइना थी |कॉलेज मेनेजमेंट ने साहिर को किसानो- मजदूरों को अंग्रेजों -जागीरदारों के खिलाफ भड़काने के जुर्म में कॉलेज से निकाल दिया | साहिर का फोकस पढ़ाई में कम और राजनीतिक व सामाजिक मसलों में ज्यादा हो गया था | इन सरगरमियों की वजह से आपकी पढाई भी प्रभावित हुई | राजनीतिक तौर पर साहिर का लेना देना मजलूमों के हक तक सीमित था | किसे मालूम था साहिर की इन पेश्क़दमियों की वजह से अमृता के करीब लाहौर पहुचने वाले थे | साहिर की शायरी के रंग किसी की ज़िन्दगी के इश्किया मिजाज़ को छेड़ कर उसे मशहूर करने वाले थे।

साहिर

लाहौर उर्दू - पंजाबी अदब का मरकज़ था और अदब से जुडी अनेक शख्सियतें यहीं बस गई थी | अमृता प्रीतम भी इन दिनों अदब के हलकों में खासी मशहूर थी और पंजाबी अदबी सरगर्मियों के दरमियान रहती थी,ख़ासकर गुरबक्श सिंह के रिसाले ‘प्रीत लड़ी’ की जमात में | साहिर चुनिंदा शायरों में गिने जाने लगे थे| इन्ही दिनों अमृता साहिर के कलाम पढने लगी और उन्हें साहिर के इंकेलाबी, इश्किया ख्यालात से जुड़ाव होने लगा | धीरे धीरे वो साहिर से इश्क करने लगी | अमृता- साहिर की पहली मुलाकात प्रीत नगर के एक जलसे में हुईं | दिल ही दिल में वो साहिर को पहले से ही चाहने लगी थी | मुलाकात से चाहत को नए आयाम मिल गए।

लेखक एस. तौहीद फिल्म रिसर्चर हैं और जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए हैं। इनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।

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