18 फ़िल्मों में काम किया पर अपनी कहानी कभी नहीं दी

Jamshed SiddiquiJamshed Siddiqui   17 Aug 2017 3:38 AM GMT

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18 फ़िल्मों में काम किया पर अपनी कहानी कभी नहीं दीअमृतलाल नागर

साल 1928 की बात है, हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी हुकुमत के दौरान साइमन कमीशन का ज़बर्दस्त विरोध हो रहा था। ‘साइमन गो बैक’ के नारे लगाए जा रहे थे। लखनऊ में भी ऐसा ही जुलूस निकाला जा रहा था, जिसकी अगुवाई कर रहे थे गोविंद वल्लभ पंत और पंडित जवाहर लाल नेहरु। जुलूस में काफी भीड़ थी, मील-डेढ़ मील तक सिर्फ लोग ही लोग दिखाई दे रहे थे। इसी भीड़ में एक 14 साल का लड़का भी शामिल था, इस लड़के का नाम अमृत था और वो भी साइमन कमीशन गो बैक के नारे लगा रहा था। भीड़ जब आगे बढ़ी तो पुलिस मे लाठी-चार्ज शुरु कर दिया। कई लोग घायल हुए, उसे भी चोट आई, कई गिरफ्तारियां भी हुईं। वो शाम को घर पहुंचा, तो उसकी आंखों में आंसू था, नाइंसाफी का ऐसा मंज़र उसने पहले नहीं देखा था। उसी माहौल से उसके ज़हन में कुछ तुकबंदी उपजी, उसने यूं ही कागज़ पर लिखा, पहली पंक्ति थी -
कब लौं कहो लाठी खाया करें, कब लौं कहौं जेल सहा करिये...
आसपास और जानने वाले लोगों ने वो कविता पढ़ी तो उन्हें इतनी पसंद आई कि किसी ने उसे कुछ संपादकों तक पहुंचा दिया। तीसरे दिन ‘दैनिक आनंद’ नाम के अख़बार में वो कविता छप गई। उस लड़के के लिए अख़बार में अपना नाम देखना बहुत सुखद अहसास था.. उसी दिन उसने तय किया कि वो लेखक बनेगा। आगे चलकर इस लड़के को पूरे साहित्य जगत ने अमृत लाल नागर के नाम से पहचाना।

तस्वीर सौजन्य : नागर परिवार

अमृत लाल नागर का जन्म 17 अगस्त 1916 को आगरा के एक गुजराती परिवार में हुआ था। इनके पिता पंडित राजाराम नागर अपने शुरुआती दिनों में ही लखनऊ में आकर बस गए थे। अमृत लाल नागर के ज़्यादातर कहानियों और उपन्यासों में लखनऊ का ज़िक्र देखा जा सकता है, उन्हें काफी रचनाएं ‘तस्लीम लखनवी’ के नाम से भी की हैं। जब ये 19 साल के हुए तो इनके पिता की मृत्यु हो गई, उस वक्त ये दसवीं में पढ़ते थे। पिता के चले जाने की वजह से इनपर घर की ज़िम्मेदारियां आ गईं और फिर ये आगे पढ़ न सकें। लेकिन हाइस्कूल के बाद इन्होंने घर पर ही तमाम भाषाओं का ज्ञान लिया। हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला वगैरह खूब पढ़ा। भाषाओं के ज्ञान के चलते इन्हें कई जगह छोटे-मोटे काम मिंलते रहे, जिनसे घर चलता रहा। उस दौर में भी अमृत लाल नागर अपनी कविताएं तमाम पत्र-पत्रिकाओं में भेजते थे, लेकिन निराशा हाथ लगती थी। नाउम्मीदी का ये दौर खत्म हुआ साल 1934 में जब ‘माधुरी’ नाम की एक पत्रिका ने इनकी कविताओं को जगह दी और इनकी कलमकारी को खूब पसंद किया जाने लगा।

तस्वीर सौजन्य : नागर परिवार

जलियांवाला बाग़ से ख़ून की सनी मिट्टी लेकर घर आए माधव शुक्ल

उस दौर में हिंदुस्तान के सबसे बड़े राष्ट्रकवि माने जाते थे माधव शुक्ल, उनकी कलमकारी के देश में हज़ारों लोग मुरीद थे और वो खुद अमृतलाल नागर के पिता के दोस्त थे। जब भी लखनऊ आते थे तो उन्हीं के घर पर रुकते थे। साल 1919 में जलियांवाला बाग कांड के बाद जब माधव शुक्ल लखनऊ आए तो उनके पास एक पुड़िया थी, उन्होंने वो पुड़िया अमृतलाल नागर को दिखाई। पुड़िया खुली तो देखा कि उसमें थोड़ी सी मिट्टी थी जो खून में सनी थी, उन्होंने कहा कि ये मिट्टी जलियांवाला बाग़ में अंग्रेज़ी हुकूमत के ज़ुल्म से शहीद हुए लोगों की है। अमृत लाल की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने तय किया कि वो अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ के साथ खड़े होंगे, इसी कड़ी में वो साइमन कमीशन के विरोध के लिए लखनऊ वाले जुलूस में शामिल हुए थे।

तस्वीर सौजन्य : नागर परिवार

रचनाएं

अमृतलाल नागर ने यूं तो अपनी पूरी ज़िंदगी में हिंदी की सभी विधाओं में लिखा लेकिन खास तौर पर कहानी, रेखाचित्र, उपन्यास और बाल साहित्य के लिए उन्हें जाना जाता है। कहानी और रेखाचित्र में वाटिका, अवशेष, नवाबी मसनद, तुलाराम शास्त्री, पांचवा दस्ता, एटम बम और पीपल की परी को याद किया जाता है। इसके अलावा उपन्यास में महाकाल, सेठ बांकेमल, बूंद और समुद्र, शतरंज के मोहरे, सुहाग के नूपुर, सात घूंघटवाला मुखड़ा और मानस का हंस खासतौर पर पसंद की गईं। रेडियोनाटक के अलावा बाल सहित्य में अमृतलाल नागर में नटखट चींटी, निंदिया आजा, बजरंगी नौरंगी, बाल महाभारत, और भारत पुत्र नौरंगी लाल की रचना की। 23 फरवरी 1990, जब अमृतलाल नागर जी का निधन हुआ, वो तीन रंगमंचीय नाटक, 25 से अधिक रेडियो फ़ीचर, कहानी, उपन्यास और बाल साहित्य लिख चुके थे। उनके ऐसे तमाम निबन्ध भी हैं, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं।

जब राष्ट्रपति ने कहा आप कोठेवालियों से मिल आइये...

जब हिंदुस्तान आज़ाद हुआ तो उस वक्त एक नई परेशानी सामने आ गई और वो परेशानी थी कोठेवालियों को, उस दौर में अलग अलग रियासतों में तमाम कोठे होते थे। भारत के पहले राष्ट्रपति बने डॉ राजेंद्र प्रसाद, वो भी कोठेवालियों को लेकर किसी निर्णय तक नहीं पहुंच पाए थे, कि इनका क्या किया जाए। उस वक्त इस तबके को लेकर लोगों की राय बटी हुई थी। कुछ लोगों का मानना था कि कोठेवालियों को लाइसेंस दे दिया जाए लेकिन कुछ का मानना था कि इन्हें शहर से बाहर कर दिया जाए। बाद में इनपर रोक लग गई लेकिन डॉ राजेंद्र प्रसाद चाहते थे कि रोक लगने से पहले हिंदुस्तान के कोठों पर एक डॉक्यूमेंटेशन कर लिया जाए। इसके लिए उन्होंने चुना अमृतलाल नागर को। उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर अमृत जी से मुलाकात की और उन्हें इस पर एक किताब लिखने का आग्रह किया, ऐसी किताब जिसमें उस कल्चर की सभी बारिकियां हों। पहले तो अमृत साहब तैयार न हुए लेकिन जब पत्नी ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया तो वो मान गए और फिर उन्होंने लिखी ‘ये कोठेवालियां’ लिखा, जिसे आज भी ‘कोठे कल्चर’ का सबसे सटीक डॉक्यूमेंटेशन माना जाता है।

कैफी आज़मी के साथ अमृतलाल नागर

फिल्मों में काम किया लेकिन अपनी कहानी कभी नहीं दी

अमृत लाल नागर की कविताएं और लेख अलग-अलग अख़बार-पत्रिकाओं में छपने लगे थे, लोग उन्हें जानने लगे थे लेकिन तब भी घर का गुज़ारा मुश्किल होता था। ऐसे में उन्हें किसी ने बंबई जाने की राय थी और वो उन्हें जच गई। साल 1940 के आसपास वो बंबई चले गए और कवि प्रदीप के घर ठहरे। कवि प्रदीप ने उनकी मुलाकात बंबई के चंद उन लोगों से करवाई जो फ़िल्मों के लिए नए लोगों को ढूंढ रहे थे। ऐसे ही एक लखपति प्रोड्यूसर थे रामनाथ डागा। अमृत लाल से पहली मुलाकात में ही रामनाथ डागा ने उन्हें अपनी कंपनी में दो सौ रुपए महीने पर नौकरी दे दी। इसके बाद अमृत जी ने बंबई में सात साल काम किया। बहूरानी, संगम, कंवारा बाप, किसी से न कहना और पराया धन जैसी कुल अट्ठारह फिल्मों के लिए संवाद लिखे, पटकथा लिखी। उनके समकालीन लेखकों ने जब उनसे ये पूछा कि वो अपनी लिखी किसी कहानी पर फिल्म बनाने के लिए किसी प्रोड्यूसर से बात क्यों नहीं करते तो वो कहते थे “ मैं फिल्म और साहित्य दोनों को अलग रखता हूं, फिल्में दर्शकों के हिसाब से बनाई जाती हैं। मैं पटकथा लिखूंगा, संवाद लिखूंगा लेकिन अपनी कहानी नहीं दूंगा, मैं अपनी कहानी की चटनी बनते नहीं देखना चाहता

तस्वीर सौजन्य - नागर परिवार

बेटी ने लिखी बाग़बान की पटकथा और संवाद

अमृतलाल नागर की बेटी अचला नागर पिता के संस्मरण साझा करते हुए वो कहती हैं कि एक बार जब उनका कॉलेज में दाखिला हो रहा था तो स्कूल के फॉर्म में एक कॉलम था ‘धर्म’, अभिभावकों को उसमें अपना धर्म लिखना था। अचला नागर ने देखा कि उनके पिता स्कूल का फॉर्म भर रहे हैं, जब वो फॉर्म भर चुके तो उन्होंने फॉर्म को अचला की तरफ बढ़ा दिया। अचला ने देखा तो धर्म के सामने ‘मानवता’ लिखा हुआ था। अचला के पूछने पर उन्होंने कहा कि ‘बेटा, यही सबसे बड़ा धर्म है’। अचला खुद भी एक प्रख्यात लेखिका हैं, वो बाग़बान के लिए संवाद और पटकथा लिख चुकी हैं

    

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