दुष्यंत कुमार : देश के पहले हिंदी ग़ज़ल लेखक की वो 5 कविताएं जो सबको पढ़नी चाहिए
बीसवीं सदी का वो दौर जब गजानन माधव मुक्तिबोध, अज्ञेय, कैफ भोपाली जैसे कवियों की साहित्यिक भाषा लोगों के दिलों पर हावी थी, उस समय दुष्यंत कुमार अपनी सरल हिंदी और आसानी से समझ आने वाली उर्दू में कविताएं लिख लोगों पर छा गए।
गाँव कनेक्शन 14 Sep 2018 6:44 AM GMT

''हर सड़क, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेनी आग जलनी चाहिए।।''
ये पंक्तियां लिखी थीं उस कवि ने जिसकी कविताओं पर आज भी हिंदुस्तान फिदा है, जिनकी कविताओं में अगर देश के लिए प्यार है तो उसे आईना दिखाती तस्वीर भी। इनकी नज़्मों में अगर माशूका के लिए प्यार है तो देश के लिए छुपा दर्द भी। अपनी प्रेमिका के लिए कविता लिखते वक्त ये कभी अपने देश के हालात नहीं भूले और समाज की व्यथा लिखते वक्त कभी अपने अंदर का वो इश्क़ भी नहीं ख़त्म होने दिया।
वो कवि थे दुष्यंत कुमार। वो दुष्यंत कुमार जिनकी कविताएं पढ़कर हम में से न जाने कितने लोग बड़े हुए होंगे। बचपन में जिन कविताओं की लाइनें ज़ुबां पर रटी रहती थीं, उनमें से एक कविता दुष्यंत कुमार की थी -
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से भी कोई गंगा निकलनी चाहिए।
1 सितंबर 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में जन्मे दुष्यंत कुमार की आज पुण्यतिथि है। उनकी मृत्यु 30 दिसंबर 1975 को हुई थी। दुष्यंत कुमार उन महान कवियों में से एक हैं, जिनकी हिंदी पर जितनी अच्छी पकड़ थी, उर्दू की उतनी अच्छी जानकारी भी। शायद यही वजह है कि उन्हें देश का पहला हिंदी ग़ज़ल लेखक कहा जाता है।
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20वीं सदी का वो दौर जब गजानन माधव मुक्तिबोध, अज्ञेय, कैफ भोपाली जैसे कवियों की साहित्यिक भाषा लोगों के दिलों पर हावी थी, उस समय दुष्यंत कुमार अपनी सरल हिंदी और आसानी से समझ आने वाली उर्दू में कविताएं लिख लोगों पर छा गए।
दुष्यंत कुमार को सिर्फ आम जनता और कवियों ने नहीं फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों ने भी हमेशा याद रखा। 2015 में आई फिल्म 'मसान' में उनकी कविता 'तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं' को शामिल किया गया है। आमिर ख़ान ने अपने शो 'सत्यमेव जयते' में दुष्यंत कुमार की लिखी पंक्तियां - 'सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए' इस्तेमाल की थीं। आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए आप भी पढ़िए उनकी लिखी कुछ खूबसूरत कविताएं...
1 .एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है
इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है
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2. वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है
देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं
पैरों तले ज़मीन है या आसमान है
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है
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3 . कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये
जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये
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4. फिर कर लेने दो प्यार प्रिये
अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं
तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..
इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी
खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..
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5. अपनी प्रेमिका से
मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी
जो तुम्हें शीत देतीं
और मुझे जलाती हैं
किन्तु
इन हवाओं को यह पता नहीं है
मुझमें ज्वालामुखी है
तुममें शीत का हिमालय है
फूटा हूँ अनेक बार मैं,
पर तुम कभी नहीं पिघली हो,
अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं
पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं
तनी हुई.
तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की
जो गर्म हो
और मुझे उसकी जो ठण्डी!
फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति
जो दुखाती है
फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का
जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
काश! इन हवाओं को यह सब पता होता।
तुम जो चारों ओर
बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो
(लीन... समाधिस्थ)
भ्रम में हो।
अहम् है मुझमें भी
चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ
लेकिन क्यों?
मुझे मालूम है
दीवारों को
मेरी आँच जा छुएगी कभी
और बर्फ़ पिघलेगी
पिघलेगी!
मैंने देखा है
(तुमने भी अनुभव किया होगा)
मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को
जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे
लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई.
देखो ना!
मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
सूर्योदय मुझमें ही होना है,
मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,
इसी लिए कहता हूँ-
अकुलाती छाती से सट जाओ,
क्योंकि हमें मिलना है।
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