क़िस्सा मुख़्तसर : साहिर के दौ सौ रुपए, उनकी मौत के बाद कैसे चुकाए जावेद अख़्तर ने

Jamshed SiddiquiJamshed Siddiqui   17 Jan 2018 11:05 AM GMT

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क़िस्सा मुख़्तसर : साहिर के दौ सौ रुपए, उनकी मौत के बाद कैसे चुकाए जावेद अख़्तर नेक़िस्सा मुख़्तसर

पढ़िए शोले और जंजीर जैसी फिल्मों के लेखक, शायर और गीतकार जावेद अख़्तर के बारे में कुछ खास

उन दिनों, साहिर लुधियानवी का सिक्का पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री में चलता था। बंबई के वर्सोवा इलाके के ‘सात बंग्ला’ वाले उनके घर में फ़िल्म प्रोड्यूसर्स और दूसरी बड़ी-बड़ी हस्तियों का आना-जाना लगा रहता था। मिलने वालों के इस हुजूम के चलते साहिर के पास वक्त की कमी हमेशा रहती थी लेकिन इस कमी के बावजूद वो, एक बीस-इक्कीस साल के बेरोज़गार लड़के से, जो बंबई में राइटर बनने, नया-नया आया था और काम की तलाश में था, से मिलने का वक्त खास तौर पर निकालते थे। वो उस लड़के को उसके नाम से नहीं बल्कि ‘नौजवान’ कहकर बुलाते थे। इस लड़का का असली नाम था जावेद अख़्तर

जावेद, जिन्हें लखनऊ में उनकी अम्मी सफिया अख़्तर प्यार से ‘जादू’ पुकारा करती थीं, बंबई में संघर्ष कर रहे थे। उनके पास रहने को कोई जगह नहीं थी, फिल्मिस्तान स्टूडियो में सोते थे, होटल पर खाते थे और एक लॉड्री तय कर रखी थी जहां से कपड़े धुलवा लेते थे। जावेद अख़्तर बेरोज़गार थे लेकिन फिर भी साहिर उन से मुतास्सिर थे। दुनिया को ये बात देर से पता चली लेकिन साहिर को जावेद की काबिलियत का अंदाज़ा बहुत पहले हो गया था।

साहिर

जावेद, साहिर साहब को फोन करते और साहिर अगर फुर्सत में होते तो उन्हें अपने वर्सोवा वाले घर में मिलने के लिए बुला लेते, जहां वो अपनी दो बहनों के साथ रहते थे। फिर साहिर उन्हें अपनी ग़ज़लें और गीत सुनाते और जावेद अख़्तर पूरी ईमानदारी से जो भी उन्हे लगता कह देते। साहिर के कद के सामने जावेद अख़्तर कुछ भी नहीं थे, लेकिन फिर भी जावेद साहिर के गीतों में कुछ बेहतरी की गुंजाइश ज़ाहिर करते, बदलाव के लिए कहते और साहिर पूरी ख़ाकसारी से उनकी बात को सुनते और अक्सर अमल भी करते।

बहरहाल, एक दौर वो भी आया जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल से गुज़रने लगे। दूर-दूर तक काम नहीं था, आमदनी की कोई आमद नहीं थी, जेब देखी तो महज़ तीस रुपए बाकी थे। उन दिनों तीस रुपये में आठ-दस दिन गुज़ारे जा सकते थे। वो परेशान थे कि आगे दिन कैसे गुज़रेंगे। ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे।

साहिर अपने दोस्तों के साथ

उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल हैं, उदास हो?” जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं.. उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा।

जावेद अख़्तर बताते हैं कि साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे। जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे। उस वक्त भी उन्होंने वही किया। कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में बोले, “ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है” फिर पास रखी मेज़ की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख्तर ने देखा तो मेज़ पर दो सौ रुपए रखे हुए थे।

वो चाहते तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे, लेकिन ये उस आदमी की सेंसिटिविटी थी कि उसे लगा कि कहीं मुझे बुरा न लग जाए। ये उस शख्स का मयार था कि पैसे देते वक्त भी वो मुझसे नज़र नहीं मिला रहा था।
जावेद अख़्तर

बहरहाल, वक्त की परतों में दिन बदलने लगे। जावेद अख़्तर, सलीम जावेद के साथ मिलकर कुछ ही सालों बाद हिंदी फिल्मों के सबसे बेहतरीन स्टोरी और स्क्रीनप्ले राइटर बन गए। साहिर जावेद के फ़न को पहले ही पहचान गए थे, दुनिया को ज़रा देर लगी। सलीम-जावेद की जोड़ी ने त्रिशूल, ज़ंजीर, काला पत्थर, दीवार जैसी हिट फिल्में दीं। अब जावेद अख़्तर ‘जावेद अख़्तर’ हो गए थे।

साहिर के साथ अब उनका उठना बैठना बढ़ गया था क्योंकि त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर जैसी फिल्मों में कहानी सलीम-जावेद की थी तो गाने साहिर साहब के। अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलॉग्स वगैरह पर चर्चा करते। इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, “साहिर साब, आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं” साहिर मुस्कुराते। साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”, ये सिलसिला लंबा चलता रहा। साहिर और जावेद अख़्तर की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक्त गुज़रता रहा।

साहिर मुहम्मद रफी के साथ

और फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख आई 25 अक्टूबर 1980 की। वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ कपूर का कॉल आया। उनकी आवाज़ में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था। उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ था। जावेद अख़्तर के लिए ये सुनना आसान नहीं था। वो जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था। वो बताते हैं कि वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी आ चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे।

मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे।
जावेद अख़्तर

साहिर

जूहू कब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतज़ाम किया गया। वो सुबह-सुबह का वक्त था, रातभर के इंतज़ार के बाद साहिर को सुबह सुपर्दे ख़ाक किया जाना था। ये वही कब्रिस्तान है जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की कब्रें हैं। साहिर को पूरे मुस्लिम रस्मो रवायत के साथ दफ्न किया गया। साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए लेकिन जावेद अख़्तर काफी देर तक कब्र के पास ही बैठे रहे।

काफी देर तक बैठने के बाद जावेद अख़्तर उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे। वो जूहू कब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज़ दी। जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो उनके एक दोस्त अशफाक साहब थे। अशफाक उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था। अशफ़ाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही ख़बर मिला थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे। उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, “आपके पास कुछ पैसे पड़ें हैं क्या? वो कब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाज़ी में ऐसे ही आ गया”, जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा, “हां-हां, कितने रुपए देने हैं’ उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए’

   

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