‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ अगर चार मर्दों की कहानी होती तो ?

Jamshed QamarJamshed Qamar   28 Feb 2017 2:03 PM GMT

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‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ अगर चार मर्दों की कहानी होती तो ?फिल्म पोस्टर

हम जिस समाज में रहते हैं वहां छवियां बहुत अहमियत रखती हैं, ये छवियां हज़ारों सालों के कुसंस्कारों से गढ़ी और बुनी जाती हैं। कभी ये धार्मिक होती हैं, कभी जातिगत, कभी राजनीतिक और कभी लैंगिक। इन छवियों की बुनियाद पर ही किसी का चाल और चरित्र तय किया जाता है। हम जिस देश में रहते हैं वहां औरत होना सिर्फ ‘औरत’ होना नहीं होता, औरत की गढ़ी हुई छवि की तरह बर्ताव करना भी होता है, लेकिन इन स्टीरियोटाइप्स को तोड़ने की ज़िम्मेदारी कला और साहित्य के कंधों पर होती है, लेकिन तब आप क्या करेंगे जब किसी फिल्म को ये कहकर ‘बैन’ कर दिया जाए कि फिल्म के दृश्य संवेदनशील हैं। तो क्या हम असंवेदनशील मुद्दों पर ही बात करेंगे? सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने अलंकृता श्रीवास्तव के निर्देशन में बनी ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ को सर्टिफिकेट न देने के जो कारण बताएं हैं एक बार उन्हें जान लीजिए

1. कहानी में हकीकत कम और कल्पनाएं ज़्यादा हैं।

2. यौन दृश्य समाज के हिसाब से ठीक नहीं हैं।

3. फ़िल्म ने जिन हिस्सों को छुआ है वो संवेदनशील हैं।

सेंसर बोर्ड के पास भारतीय संस्कृति और परंपरा को संरक्षित रखने की जवाबदेही है
पहलाज निहलानी, अध्यक्ष, सेंसर बोर्ड

पहलाज निहलानी जब से सेंसर बोर्ड के प्रमुख बनाएं गए हैं तबसे सेंसर बोर्ड ‘संस्कारी बोर्ड’ में तब्दील हो गया है, लेकिन फिक्र सिर्फ ये नहीं है। फिक्र ये है कि ये नज़र सिलेक्टिव है। प्रकाश झा निर्मित ‘लिप्स्टिक अंडर माई बुर्का’ को अगर सेंसर बोर्ड पास न करे तो ये सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि ‘ग्रैंड मस्ती’ और ‘क्या कूल हैं हम’ जैसी फूहड़ फिल्में समाज को कौन सी सीख देती हैं और इन फिल्मों के डबल-मीनिंग संवाद में कौन सा नैतिक शास्त्र छुपा होता है?

पहलाज निहलानी की फिल्म का दृश्य

दरअसल ऐसा इसलिए है क्योंकि भारतीय समाज में मर्द जब अपनी सेक्सुएलिटी को लेकर बात करता है तो ज़्यादा से ज़्यादा उसे ‘एडल्ट कॉमेडी’ कहा जाता है, लेकिन जब किसी फिल्म, किताब या असल ज़िंदगी में औरत अपने सेक्सुएलिटी की बात करती है तो समाज की चूलें हिलनी लगती है। हज़ारों सालों के बने हुए स्टीरियोटाइप्स वाले सिंहासन डोलने लगते हैं और इसलिए वो अश्लील करार दे दी जाती है।

‘लिप्सटिक अंडर माई बुर्का’ के साथ भी यही हुआ है। इस फिल्म कहानी चार महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। कोंकणा सेन शर्मा, प्लबिता, अहाना और रत्ना पाठक शाह ने इन चार महिलाओं की भूमिका निभाई है। कोंकणा का किरदार तीन बच्चों की मां का हैं जो अपनी जिंदगी से खुश नहीं हैं। प्लबिता कॉलेज स्टूडेंट की छात्रा हैं, जो जिनकी परवरिश पिछड़े माहौल में हुई है और वो पॉप सिंगर बनना चाहती है, अहाना ब्यूटीशियन का रोल निभा रही हैं जो अपने प्रेमी के साथ शहर से भागने की तैयारी में है और रत्ना पाठक शाह ऐसी विधवा महिला के किरदार में हैं जिसकी उम्र ढल चुकी है लेकिन वो अपनी जिंदगी को अपनी फैंटसीज़ के हिसाब से जीना चाहती है। ज़ाहिर है जब औरत अपने हिसाब से जीने की बात करने लगे तो वो बागी हो जाती है और बगावत हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है।

हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है लेकिन सीबीएफसी के फिल्म को सर्टिफिकेट ना देने की वजह से अरामदायक कहानी ना दिखाने वाले फिल्मकार हतोत्साहित होते हैं.
प्रकाश झा, फिल्म के निर्माता

सेंसर बोर्ड का पत्र

फर्ज़ कीजिए कि ये कहानी चार औरतों की न होकर चार मर्दों की होती, तो इसमें किसी को क्या ऐतराज़ होता? शायद कुछ भी नहीं। ये सिर्फ एक कॉमेडी फिल्म मानी जाती जिसे ज़्यादा से ज़्यादा एडल्ट रेटिंग दे दी जाती, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। लेकिन यहां दिक्कत ये है कि फिल्म में ये बातें महिलाएं कर रही हैं, इससे ज़्यादा ख़तरनाक और क्या हो सकता है? निहलानी साहब ने इसी बारे में कहा भी कि सेंसर बोर्ड का काम देश की संस्कृति को बचाना होता है और वो हम कर रहे हैं। शायद पूरी गलती उनकी है भी नहीं, जिस देश में ‘साली आधी घरवाली’ वाला जुमला मज़ाक और ‘देवर आधा घरवाला’ कहना अश्लीलता हो.. वहां लिप्सटिक अंडर माई बुर्का को सर्टिफिकेट कैसे मिल सकता है। हमारी भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े रक्षक निहलानी साब देश की संस्कृति को बचाते हुए सिर्फ ‘मस्ती’ और ‘क्या कूल हैं हम’ जैसी फिल्मों को दर्शकों के सामने परोस रहे हैं, जहां संवाद बिलो दा बेल्ट हैं, डबल मीनिंग है लेकिन कम से कम उन्हें कोई महिला नहीं कह रही, उन फिल्मों में महिला तो सिर्फ ‘ऑब्जेक्ट’ है और इतना हमारे यहां चलता है।

   

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