मेलों का खो रहा अस्तित्व

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मेलों का खो रहा अस्तित्वगाँव कनेक्शन

उन्नाव। संचार क्रांति व बाजारों के वैश्वीकरण ने खरीदारी के तौर तरीके ही बदल दिये है। परिवर्तन की इस बयार में प्राचीन बाजारें गुमनामी की ओर जा रही हैं। ऑनलाइन शापिंग के प्रचलन और माल्स की चकाचौंध के आगे हमारे देश की पहचान कहे जाने वाले पारम्परिक मेले भी अब अस्तित्व खोते जा रहे हैं। कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है इस बार गोकुल बाबा के मेले में।

उन्नाव शहर की सीमा पर बसे मगरवारा गाँव का गोकुल बाबा मंदिर लोगों की आस्था की धुरी है। अपनी दिव्यता के चलते गोकुल बाबा के उपासक न सिर्फ जनपद के कोने कोने से बल्कि अन्य जनपदों और प्रान्तों से यहां खिंचे चले आते है। यहां कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी से देवोत्थान एकादशी तक प्रतिवर्ष मेला लगता है। इस प्राचीन मेले में विशेष तौर पर लकड़ी की सामग्री, टीन से बने बक्से इत्यादि व मिटटी के बर्तन आदि की दुकानों की बहुतायत होती थी। तमाम दुकानें तो समय के कुठाराघात ने मेले से गायब ही कर दी है, जिनमें सबसे पहला नम्बर है मवेशियों की साज सज्जा से सम्बन्धित वस्तुओं की दुकानें। हालात यह है कि दुर्गा मंदिर के पास लगने वाली आधा दर्जन से अधिक दुकानों में इस बार एक भी दुकान नहीं दिख रही हैं। मगरवारा निवासी वृद्ध सुबेदार सिंह बताते है, "पहले तमाम दुकानें आया करती थीं जिनमें बैलों और अन्य पालतू पशुओं का साजो सामान हुआ करता था। किसान भाई अपने बैलों के लिए घुंघरू माला आदि खरीद कर ले जाते थे  लेकिन खेती के बदलते तौर तरीके में अब बैलों की जगह ट्रैक्टरों ने ले ली है। लिहाजा अब बछड़ा होते ही उसे आवारा छोड़ दिया जाता है। दूध का व्यवसाय करने वालों ने जरूर मवेशी पाल रखे हैं लेकिन जो काम आमदनी के लिहाज से किया जा रहा है वहां साजसज्जा पर पैसा खर्च करना कौन चाहेगा।"

इसके अलावा गृहउपयोगी वस्तुओं और सौन्दर्य प्रशाधन की दुकानें भी कम नहीं होती। कुछ दुकानों की साल दर साल संख्या कम होती जा रही है। मसवासी निवासी बुजुर्ग गोवर्धन शुक्ला बताते है, "एक समय था कि बच्चों के खिलौने हो या फिर रसोई के लिए चकला बेलन या बेटी की शादी में देने के लिए बक्सा और बखारी इन सभी चीजों की खरीदारी के लिए क्षेत्रीय लोग मेले का साल भर इंतजार करते थे लेकिन अब यातायात साधनों की तरक्की के चलते कोई भी खरीदारी के लिए मेले का इंतजार नहीं करता।"

समय ने भले ही लोगों बदल दिया हो लेकिन गोकुल बाबा के प्रति उनकी आस्था आज भी उन्हें यहां खींच लाती है। भले ही यहां आने के पीछे उनका उद्देश्य खरीदारी न हो लेकिन मेले में आने वाले लोग निशानी के तौर पर कुछ न कुछ खरीदारी अवश्य कर लेते है। माल्स वर्सेज मेला की इस प्रतिद्वंदिता में खरीदारों की संख्या भले ही घटी हो लेकिन समय की धुंध अभी मेले की सतरंगी छटा को पूरी तरह अपने आगोश में नहीं ले पायी है। अकरमपुर निवासी वृद्ध रामनाथ विश्वकर्मा बताते है कि समय के साथ लोगों की सोच व रुचि में भी काफी परिवर्तन आया है। अब मेले में सिर्फ दर्शनार्थियों की ही भीड़ होती है। हर हाथ में बड़े बड़े मोबाइल फोन हैं, उसी में जाने क्या खिचड़ी पकाते हैं और दूसरे दिन बड़ा झोला लिए डिलेवरी मैन सामान पहुंचाने घर आ जाता है तो भला मेले में खरीदारी कौन करने आएगा। 

चाइनीज़ उत्पाद हावी

स्वदेशी अपनाओ, मेक इण्डिया जैसे नारे भले ही दिए जाते हों लेकिन चाइनीज उत्पादों ने मेले भी अपनी खास जगह बना रखी है। बच्चों को चाइनीज खिलौने भाते हैं। इतना ही नहीं सरसों का साग और बथुआ की दाल सरीखे पौष्टिक पकवानों वाले ग्रामीण परिवेश के लोग मेले में लगी चाउमीन की दुकानों में खूब चटखारे लेते नजर आए।

इटावा की जलेबी का जलवा

प्रदेश सरकार की स्नानागार योजना भले ही सत्तारूढ़ दल के मुखिया के गृह क्षेत्र तक ही सीमित हो लेकिन उनके यहां की जलेबी जरूर मेले में लोगों का मुंह मीठा कराती नजर आयी। मेले में जगह-जगह लगी इटावा की मशहूर जलेबियों की दुकानों पर 44 रुपये किलो में जलेबी बिकती नजर आयी। 

नहीं बिक रहीं गुल्लक

जनधन योजना चला कर प्रधानमंत्री देशवासियों में बचत की आदत डालने का प्रयास कर रहे है बचपन से बचत की आदत सिखाने वाली गुल्लकों की दुकान मेले में मायूस नजर आ रहे थी। मिट्टी के बर्तनों की दुकान लगाये बैठे करोवन निवासी महावीर ने बताया कि उनके परबाबा मेले में दुकान लगाते चले आ रहे है। पहले बैलगाडिय़ों में माल लेकर मेले आते थे तो भी कम पड़ जाता था। इस बार साइकिल पर माल लाया था लेकिन ग्राहक ढूंढे नहीं मिल रहे। कुछ ऐसी कहानी गुल्लक की दुकान लगाये बैठी गीता ने बतायी।

जमकर खेला जा रहा छल्ले से निशाना बनाने का खेल

लोगों के लोभ को भुनाने वाली सोच पर शासन प्रशासन तमाम प्रयासों के बाद भी पूरी तरह अंकुश नहीं लगा सका है। यही वजह है कि मेलों की ईनामी योजनाओं जैसी दुकानों और खेलों की संख्या कम भले हो गयी हो लेकिन पूरी तरह बंद नहीं हुई है। गोकुल बाबा मेले में छल्ले से निशाना लगाने वाली तीन चार दुकानें लगी दिखी। गाँव कनेक्शन के छायाकार के कैमरे का फ्लैश जैसे ही चमका तो वहां सुरक्षा में तैनात कुछ पुलिस कर्मियों की तंद्रा भंग हुई। आखिरकार दोपहर बाद छल्ले का खेल बंद हो गया। लेकिन तब तक मेला घूमने आए कई लोग अपनी जेबें खाली होने के चलते मायूस होकर घरों की ओर रवाना हो गये।

रिपोर्टर - दीपकृष्ण शुक्ला

 

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