ममता बनर्जी का ‘पोरिबोर्तन’

मंजीत ठाकुरमंजीत ठाकुर   2 April 2016 5:30 AM GMT

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ममता बनर्जी का ‘पोरिबोर्तन’gaonconnection

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी एक लहर लेकर आईं। यह लहर 2009 के लोकसभा के वक्त से आनी शुरू हुई थी, और ममता बनर्जी ने इसको पोरिबोर्तन (परिवर्तन) का नाम दिया था। आज से पांच साल पहले ममता बनर्जी ने वाम मोर्चे को सत्ता से बेदखल कर दिया और उनका परिवर्तन चक्र पूरा हुआ लेकिन उनके स्वभाव में एक परिवर्तन आ गया। प्रधानमंत्री ने इस बार खड्गपुर में चुनाव रैली की, तो ममता के स्वभाव में आए इस परिवर्तन को ओर इशारा भी किया और हमला भी। 

आज हम और आप ममता को किस रूप में देखें? जनाधार वाली मजबूत नेता या गरीबों की मसीहा? दयालु और तीखे तेवर वाली नेता या दबंग और तानाशाह? जो खुद तो ईमानदार है लेकिन जिसके पार्टी के नेता शारदा से लेकर नारदा तक भ्रष्टाचार के कीचड़ में लिथड़े हैं? 

लेकिन यह बात माननी होगी कि ममता बनर्जी की कुछ विशेषता भी हैं। ग्रामीण इलाकों में उनकी जबरदस्त पकड़ है। सत्ता में आने से पहले वाम मोर्चे की खिलाफ आंदोलनों की उन्होंने झड़ी लगा दी थी और चाहे नंदी ग्राम हो या सिंगूर, तापसी मलिक हत्याकांड हो या सड़कों पर कैडरों की लड़ाई, ममता ने हर बार आंदोलन की अगुआई की थी और अपने आंदोलन से जुड़े छोटे से छोटे कार्यकर्ता को वह न सिर्फ नाम से जानती थीं, बल्कि उनको निजी तौर पर एसएमएस करके उनका हालचाल भी पूछा करतीं।

ममता ने खुद को आम आदमी की आवाज़ बना कर पेश किया। उनकी यह छवि इसलिए भी बनी क्योंकि पश्चिम बंगाल के वाम नेताओं में 34 साल की सत्ता ने एक खास किस्म की अकड़ ला दी थी और एक एरोगेंस भी।

ऐसे में जंगल महल इलाके में या फिर दार्जीलिंग के पहाड़ों में जब वाम मोर्चे के खिलाफ आंदोलन शुरू हुए तो उनको दीदी ने कभी मौन तो कभी मुखर समर्थन दिया। नतीजाः पहाड़ और जंगल दोनों ही ममता के गढ़ बन गए। 

लेकिन सत्ता में आए परिवर्तन ने ममता के स्वभाव में भी बदलाव कर दिया। बंगाल में जो बुद्धिजीवी ममता के समर्थन में थे, उनमें से ज्यादातर लोग आज उनसे दूर हो चुके हैं। चाहे उनमें कौशिक सेन हो या कबीर सुमन। अरूणाभ घोष जैसे उनके साथी कांग्रेस में चले गए।

इस बार ममता अपने दम पर चुनाव लड़ रह हैं। तृणमूल कांग्रेस में दूसरी कतार का कोई नेता नहीं। इसकी दो वजहे हैं- अव्वल तो यही कि ममता के सामने कोई दूसरा क़द्दावर नेता खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा सकता, दोयम, उनके कैबिनेट के ज्यादातर लोग नारद स्टिंग में कैमरे के सामने नकद लेते पकड़े गए हैं। दागी नेताओ पर जनता कितना भरोसा करोगी, यह कहा नहीं जा सकता। इसलिए ममता बनर्जी हर चुनावी रैली मे यही कह रही हैं कि जनता यही माने कि सूबे के सभी 294 सीटों पर ममता बनर्जी खुद चुनाव लड़ रही हैं।

इधर, अगर तृणमूल कांग्रेस के चरित्र में भी पिछले पांच साल में बदलाव आ गया है। अगर साल 2011 के तृणमूल के घोषणापत्र को देखें तो उसके मुखपृष्ठ पर पार्टी का चुनाव निशान है। इस दफे यह स्थान ममता के मुस्कुराते हुए चेहरे ने ले लिया है। ममता बनर्जी अब लार्जर दैन पार्टी, लार्जर दैन लाइफ हो गई हैं।

भवानीपुर में भले ही ममता बनर्जी से लोहा लेने के लिए नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परपोते चंद्र कुमार बोस और कांग्रेस की तरफ से दीपा दासमुंशी मैदान में हों, लेकिन जिधर देखिए पोस्टरों-बैनरों पर सिर्फ ममता ही ममता हैं। 

नारदा स्टिंग पर ममता कुछ नहीं बोल रहीं। जिस तीखे सुर में ममता बनर्जी एक सांस में विपक्ष को गरियाती रही है, जिस सुर में ममता बनर्जी ने 2005 में लोकसभा में विधेयक फाड़कर स्पीकर की तरफ उछाल दिया था वह बाग़ी तेवर अब आधिनायकत्व की तरफ बढ़ गया है।

मालदा में बच्चों की मौतें हो रही है। नवजात शिशुओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं करा पाईं, सिंगूर ममता के लिए दुखती रग है। जिस सिंगूर के मुद्दे को उछाल कर ममता बनर्जी सत्ता तक पहुंची, उसे वह सुलझा नहीं पाईं। बंगाल में थका-हारा वाम मोर्चा और उससे भी अधिक थका हुआ कांग्रेस प्रतिष्ठा की लड़ाई भले ही लड़ रहा हो, लेकिन ममता अति आत्मविश्वास से भरी है। 

बंगाल के अवाम ने वाम को उसके एरोगेंस की वजह से नकार दिया था। वाम की वापसी की सूरत भी नहीं दिखती। लेकिन हैरत नहीं होगी कि खाली जगह को बीजेपी भरना शुरू कर दे। हेकड़ी का जवाब जनता के पास ही होता है, ममता को याद रखना चाहिए।

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं ग्रामीण विकास व विस्थापन जैसे मुद्दों पर लिखते  हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

 

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