मोदी के बर्दाश्त की लक्ष्मण रेखा कब पार होगी

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मोदी के बर्दाश्त की लक्ष्मण रेखा कब पार होगीgaonconnection

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार में और अपने घोषणा पत्र में भी बहुत बातें कही थीं। मनमोहन सिंह की निष्क्रियता पर कटाक्ष किए थे। सरकार बनने के बाद पाकिस्तान घुड़की दिखा रहा है, अलगाववादी ताकतें भारत के टुकड़े-टुकड़े करने की बात कर रही हैं। घुसपैठ यथावत है, आतंकवाद बेखौफ है, महंगाई अनियंत्रित है, विदेशी धन स्वाती नक्षत्र की बूंद हो गया है और हम सब अच्छे दिनों का इन्तजार कर रहे हैं। क्या राज्यसभा में बहुमत की कमी इसके लिए जिम्मेदार है। उसका भी इन्तजार करेंगे।

सड़कों पर आन्दोलन कर रहे हैं सरकारी कर्मचारी, आरक्षण मांगने वाले, सोना बेचने वाले और पढ़ाई करने वाले और इन्हीं के बीच में भूखे किसान भी हैं। हैदराबाद, जेएनयू , जादवपुर, अलीगढ़ और अब एनआईटी श्रीनगर में छात्रों का असन्तोष देखने को मिल रहा है। असन्तोष पुस्तकों और पुस्तकालयों के लिए नहीं बल्कि भारत माता की जय का विरोध या समर्थन करने के लिए। अटल जी के जमाने में सुनते थे बर्दाश्त की लक्ष्मण रेखा पार हो चुकी है। देखना है मोदी के बर्दाश्त की लक्ष्मण रेखा कब पार होगी।

नरेन्द्र मोदी हम सब से अधिक जानते हैं कि दुनियाभर में दुंदुभी बजने से देश में आन्तरिक शक्ति और शान्ति नहीं आ जाएगी। जवाहर लाल नेहरू के समय में भी उनकी खूब दुन्दुभी बजती थी लेकिन देश खोखला ही रह गया था। कहीं इतिहास न दोहराए अपने को। मोदी के दल के अन्दर कोई विरोधी आवाज नहीं है परन्तु विपक्ष तो विरोध करेगा, कभी विरोध के लिए भी विरोध होगा। प्रचंड बहुमत की हनक कब तक रहेगी।

सत्तर के दशक में इन्दिरा गांधी इसी तरह के प्रचंड बहुमत से जीती थीं और गरीबी हटाओ का नारा दिया था। हम आज तक गरीबी हटने का इन्तजार कर रहे हैं। हालात बिगड़ते गए और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनैतिक दलों का एक साथ आना और आपातकाल का विरोध तो सकारात्मक कह सकते हैं लेकिन जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति का इन्तजार तो आज भी है। अस्सी के दशक में वीपी सिंह के नेतृत्व में विदेशी धन वापस लाने का नारा लगा था लेकिन वह धन आया नहीं। 

कथनी और करनी में भेद ही राजनेताओं के पतन का कारण बना। यह पतन तब अधिक हुआ जब उन्होंने डाकुओं, बदमाशों और बाहुबलियों की मदद से सत्ता हासिल करना आरम्भ कर दिया और असामाजिक तत्वों को संरक्षण देना शुरू किया। कालान्तर में असामाजिक तत्वों ने स्वयं सत्ता पर काबिज होना आरम्भ कर दिया। अच्छे दलों में जाकर वे शुद्ध नहीं हुए बल्कि दलों को ही गन्दा कर दिया।

राजनेताओं की स्वार्थ सिद्धि के लिए आज सैकड़ों पार्टियां कुकुरमुत्ते की तरह उग रही हैं। इनमें से कई तो अल्पमत सरकारें बनवाने के लिए अपनी पार्टी और अपने को भी बेच देते हैं। अधिकांश दल व्यक्तियों के इर्द गिर्द बने हैं और उनके परिवारों की ही स्वार्थ सिद्धि करते हैं। यदि हमें स्वस्थ प्रजातंत्र के रूप में रहना है तो राष्ट्र निर्माताओं के आदर्श अपनाने होंगे और वल्लभ भाई पटेल और पुरुषोत्तम दास टंडन की तरह पदलोलुपता से हटकर त्यागभाव से काम करना होगा। वैसे किसी आम देशवासी को मोदी की ईमानदारी, क्षमता और निष्ठा पर सन्देह नहीं है। सन्देह है उनके वादे पूरे होने का। शायद उनके सहयोगियों को लगता हो पांच साल का समय बहुत लम्बा होता है। शायद यह भी लगता हो जनता की याददाश्त बहुत कम और सहनशीलता असीमित है। ऐसा कुछ नहीं है। धीरज का बांध टूटना आरम्भ हो गया है। पता नहीं मोदी को इसकी आवाज़ सुनाई पड़ी है या नहीं।     

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