मोदी की अगुवाई में प्रवासी भारतीयों के अच्छे दिन आए हैं

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मोदी की अगुवाई में प्रवासी भारतीयों के अच्छे दिन आए हैंgaonconnection

अपने चुनाव प्रचार में मोदी ने कहा था हम न तो नज़र झुका के बात करेंगे न आंखे दिखा के बात करेंगे। हम आंखों में आंखें डाल के बात करेंगे। दुनिया के देश आज जानते हैं कि भारत का प्रधानमंत्री उनसे राशन का गेहूं मांगने नहीं आया है और न सोना गिरवी रखने आया है। वह उनके साथ बराबर की हैसियत से व्यापार करने आया है। चीन के साथ शह और मात का खेल चल रहा है और पाकिस्तान की चतुराई का भंडाफोड़ हो चुका है। उसे अब चीन और अमेरिका में से एक को चुनना ही होगा और दोनों को बहकावे में डालकर भारत को कोने में नहीं ढकेल सकेगा।

अमेरिका पहले भी भारत के साथ दोस्ती चाहता था जब जॉन एफ़ केनेडी वहां के राष्ट्रपति थे और जवाहर लाल नेहरू ने साठ के दशक के आरम्भ में अमेरिका का दौरा किया था। उनके मिलन का कुलदीप नैयर ने अपनी पुस्तक ‘‘बिटविन द लाइन्स” में विस्तार से वर्णन किया है। नेहरू और केनेडी की बातचीत में नेहरू का अहंकार झलक रहा था और केनेडी की आत्मीयता। उस समय दुनिया दो गुटों में बंटी थी एक का नेता था अमेरिका और दूसरे का सोवियत रूस। नेहरू, नक्रूमा, नासिर, मार्शल टीटो ने तीसरा गुट बनाया था जिसे वे गुटनिरपेक्ष देश कहते थे। इनमें से कोई भी स्वावलम्बी नहीं था और वे सब रूस की तरफ उम्मीद की नज़रों से देखते थे। नाम के गुट निरपेक्ष थे। 

नेहरू की विदेश नीति पूरी तरह तब फेल हुई जब चीन ने भारत पर हमला किया और भारत का मददगार कोई नहीं था। मैं साठ के दशक में कनाडा में था और मुझे याद है भारतवासियों का मस्तक कितना नीचा कर दिया था उस समय की सरकार ने। आज दुनिया के किसी कोने में भारत का नागरिक सिर उठा के जी रहा है चाहे वह हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई हो। मैं नहीं कहता कि भारत सोने की चिड़िया बन गया है या जगत गुरु हो गया है लेकिन भारत का नागरिक एक सम्मानित भारतीय बन गया है। यह अन्तर है नेहरू और मोदी की विदेश नीति में। 

मोदी की विदेश नीति की विशेषता है कि उन्होंने जितने मुस्लिम देशों का दौरा किया है और उन्हें समझने का प्रयास किया है, शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने किया हो। पड़ोसी देशों पर ध्यान पहली बार केिन्द्रत हुआ था जब मोरारजी भाई सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे और दोबारा फिर जब वह स्वयं प्रधानमंत्री बने लेकिन मोदी ने नेपाल को छोड़ कर बाकी पड़ोसियों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए हैं। यही कारण है कि मोदी की आर्थिक नीतियों की अपेक्षा उनकी विदेश नीति की अधिक प्रशंसा हो रही है। 

नेहरू की बनाई हुई विदेश नीति की जमीन में मोदी ने कुछ इजाफा ही किया है, खोया कुछ नहीं है। नेहरू ने जापान से सम्बंध नहीं सुधारे थे क्योंकि वह हिटलर के साथ था और इज़राइल को मान्यता नहीं दी क्योंकि अराफ़त से उनकी दोस्ती थी। नेहरू की विदेश नीति के विरोधी उनके सहयोगी भी थे, सदोबा पाटिल, मोरारजी देसाई आदि जो अमेरिका से अच्छे सम्बन्ध चाहते थे। अम्बेडकर भी नेहरू की विदेश नीति के विरोधी थे। यह नेहरू की विदेश नीति की असफलता ही थी कि संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मुद्दे पर कितनी बार मुंह की खानी पड़ी और रूस ने उबारा। कोई सोच नहीं सकता था कि मोदी में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की समझ नेहरू से अधिक है। आज जो भारतीय विदेशों में रह रहे हैं उनकी आमदनी में अन्तर न भी आया हो उन्हें विदेशियों से मिलने वाला स्नेह और सम्मान बढ़ा है, उनके अच्छे दिन तो निश्चित रूप से आ गए हैं।   

 

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