मरे जानवर ना उठाने की दलितों की मांग का समर्थन हो

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मरे जानवर ना उठाने की दलितों की मांग का समर्थन होgaonconnection

महात्मा गांधी की धरती पर अछूतोद्धार और हरिजन कल्याण की बातें होती रहीं और मरे जानवर उठाने की सैकड़ों साल पुरानी परम्परा आज भी जीवित है। समस्या तब उजागर हुई जब तथाकथित गोरक्षकों ने गाय की खाल निकाल रहे दलितों को गोवध का दोषी समझ कर पीट-पीट कर मारा। सच कहूं तो मरे जानवर निकालने की परम्परा उतनी ही निम्नकोटि की है जैसे सिर पर मैला ढोने की। उत्तर प्रदेश में यह दशाब्दियों पहले समाप्त हो चुकी है और मरे जानवर उठाना ठेकेदारों के जिम्मे आ गया है लेकिन अफसोस कि गुजरात में अभी भी बाकी है।

इतना तो है कि यह परम्परा ना तो वैदिक युग की है और ना ही पौराणिक। इसका आरम्भ मध्ययुग में हुआ होगा। जब कभी भी गाँव में किसी का जानवर मर जाता था तो जातिविशेष के लोगों को उठाने के लिए कहा जाता था जो उसकी खाल निकालकर चमड़े का सामान जैसे जूते, चप्पल, चाबुक और विविध सामान बनाते थे और बेचते थे। इन्हें चर्मकार, रविदास अथवा जाटव या अन्य किसी नाम से पुकारें। इनके काम समाज में सेवा के ही होते थे। अब इन कामों के लिए मशीनें हैं और समाज के इस वर्ग में जागरूकता आ गई है तब खाल क्यों निकालें। 

अब गाँवों में मरे हुए जानवरों को उठाने का काम ठेकेदारों को दे तो दिया गया है लेकिन इसकी अन्य कठिनाइयां आ रही हैं। ठेकेदारों को खाल से मतलब है और वे खाल निकालने के बाद मरे जानवर का शरीर खुले में छोड़कर चले जाते हैं जिन्हें पहले गिद्ध खा जाते थे अब गिद्ध भी नहीं बचे हैं। पर्यावरण की समस्या पैदा हो रही है। कुत्ते और कौवे मांस को निपटा नहीं पाते।

किसान ने जानवर से सेवा ली है इसलिए जिम्मेदारी बनती है कि मरने पर उसका सम्मानपूर्वक निस्तारण करें। मरे हुए जानवर का शरीर धरती में दफनाकर किसान अपना नैतिक दायित्व तो पूरा करेगा ही पृथ्वी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ाएगा। ऐसा नहीं कि खाल का व्यवसाय घाटे का सौदा हो गया है। बहुत से चमड़ा व्यापारियों ने यह काम संभाल लिया है और पैसा कमा रहे हैं। वे खुद यह काम न करके मजदूर रखते हैं।  

जो लोग चाहे जिस जात के हों, जानवर पालते हैं उनकी सेवा लेते और कमाई खाते हैं उनकी जिम्मेदारी बनती है कि जानवर के मरने के बाद सम्मानपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार करे यानी कम से कम जमीन में गड्ढा खोदकर दफना दें। गुजरात जैसे धर्म परायण प्रदेश में और जहां मोदी जैसे संघ प्रचारक ने शासन किया हो, वहां जानवरों का अपमानित नहीं होना चाहिए था। गाँवों में घर के बुजुर्ग जब मर जाते हैं तो उन्हें जल में प्रवाहित करने, जलाकर विसर्जित करने अथवा धरती को समर्पित करने की पुरानी परम्परा रही है। यही बात जानवरों के विषय में होनी चाहिए, उनका भी अहसान किसान पर है। जानवर का शरीर सामाजिक संघर्ष और विग्रह का कारण नहीं बनना चाहिए।

 

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