मुग़ले आज़म फिर नहीं बनेगी, मस्तानी अमर रहेगी

रवीश कुमाररवीश कुमार   11 Jan 2016 5:30 AM GMT

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मुग़ले आज़म फिर नहीं बनेगी, मस्तानी अमर रहेगीगाँव कनेक्शन, संवाद, रवीश कुमार

निर्देशक के आसिफ की आत्मा आज भी भटक रही है । मुग़ल-ए-आज़म को फिर से साकार करने के लिए हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों ने न जाने कितने सेट बनाए मगर किसी की फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म का दर्जा नहीं पा सकी। बाज़ीराव मस्तानी में के आसिफ़ की आत्मा भटकती नजऱ आई। निर्देशक संजय लीला भंसाली पर अमर चित्र कथा के स्केच का भी गहरा असर लगता है। कई दृश्य अमर चित्र कथा से प्रेरित लगते हैं अंधेरी रात तूफ़ानी बारिश और नाव से पार जाना। नाना जब बड़ा होकर काशी से मिलने आता है तो प्रियंका का सेट बिल्कुल अमर चित्र कथा से काट कर बनाया लगता है। हम सब के भीतर किसी न किसी का साया हमारा पीछा करता है और हम उस साये का।

बाजीराव मस्तानी दीपिका के सौंदर्य की भव्यता के लिए याद किया जाना चाहिए। इस फ़िल्म में दीपिका की ख़ूबसूरती कलात्मक हो जाती है और उसका अभिनय मस्तानी के किरदार को यादगार बना देता है। निर्देशक ने दीपिका को एक कैनवस की तरह ट्रीट किया है। हर तरह से उस पर कूची चलाई है लेकिन आखिर के सीन में मुग़ल-ए-आज़म की मधुबाला दिख जाती है। मधुबाला की बेखौफ़ निगाहें दीपिका की आंखों से झलक जाती है। किसे पता था जिन बेड़ियों में कभी अनारकली जकड़ी गई थी, उन्हीं बेड़ियों में मस्तानी भी जकड़ी जाएगी। दरअसल साहित्य और फ़िल्म अपने लेखन और दृश्यांकन की परंपरा से कभी आज़ाद नहीं हो सकते। वो कहीं न कहीं से आते हैं। अवतरित नहीं होते।

हमारा समाज और राजतंत्र सब प्रेम विरोधी रहा है। आपको इस समाज में न तो कृष्ण से सहारा मिलता है न राम से। राधा हैं तो मीरा की व्यथा और समर्पण भी है। कभी-कभी सोचता हूं कि मुझे परंपराओं का ज्ञान कम है या किसी पुरुष ने मीरा की तरह प्रेम के विरह को जीया ही नहीं! भारतीय परंपरा में प्रेम करना व्यक्तिगत जोखिम का काम है। आपके हर क्षण में समाज अपनी क्रूरता भर देता है  आप सलीम और अनारकली होकर मुक्ति नहीं पाते और न ही बाजीराव मस्तानी होकर। ख़ुद ही मरना एकमात्र विकल्प रह जाता है। ऐसी गाथाओं को देखते हुए समाज के बंद रास्ते मुझे डरा देते हैं। सलाम उन लोगों को जिन्होंने इस क्रूर समाज में प्रेम किया और बाजीराव मस्तानी की नियति से भी बचे रहे। 

संजय लीला भंसाली ने बड़े आराम से राजपूत और मुग़लों के सामाजिक राजनीतिक संबंधों का जिक्र कर दर्शक जनता को सोचने के लिए एक लाइन छोड़ जाते हैं। राजपूतों और मुग़लों ने अपने वैवाहिक संबंधों को राजसत्ता से मान्यता दी न कि समाज से। शायद बाजीराव मस्तानी की पृष्ठभूमि में समाज ज़्यादा हावी रहता है। फ़िल्म की भव्यता से उस वक्त का आर्थिक संकट तो नहीं दिखता पर युद्ध से लौटकर उस हिसाब में दिख जाता है जब तीन युद्धों के विजय से कुछ हासिल नहीं होता है। बाजीराव का कहना कि हमारा झगड़ा धर्म से नहीं सल्तनत से है। उस समय के लोग देख पा रहे थे। इस समय के लोग नहीं देख पाते। मस्तानी राजपूत राजा वीर छत्रसाल की मुस्लिम पत्नी की बेटी है। वो एक मुस्लिम हमलावर से बुंदेलखंड को बचाने के लिए बाजीराव के पास आती है। उनके साथ युद्ध करती है।

मैं पेशवा बाजीराव के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता हूं पर क्या क्या जानें। वक्त मिला तो जानना चाहूंगा। पर्दे पर दीपिका की ख़ूबसूरती को सराहना चाहते हैं तो ज़रूर देखिए। लेकिन प्रियंका से डांस में वो मात खा जाती हैं। अभिनय में प्रियंका कहीं नहीं ठहरतीं। दीपिका की तरह इंटेंसिव नहीं लगती। हीरो रणबीर लिबास से तो मराठा चरित्र के लगते हैं मगर अभिनय से नहीं। स्वतंत्र रूप से देखिए तो उनका अभिनय शानदार है लेकिन जब आप एक सांस्कृतिक ऐतिहासिक किरदार निभाते हैं तो चरित्र को जीना बड़ी चुनौती हो जाती है।

इस फ़िल्म में घोड़ों को बहुत काम करना पड़ा होगा। संजय जी ने काफ़ी दौड़ाया है। नज़र हटी नहीं कि घोड़े आ जाते थे। संजय ने संवाद का अजीब पैटर्न लिया है। ऐतिहासिक फ़िल्मों में हर बात अंतिम और महान बोलने का दबाव रहता है। 'माँ मेरा दिल हिन्दुस्तान नहीं जिस पर तुम्हारी हुकूमत हो' मुग़ले आज़म का यह संवाद सारे संवादों का बाप है। इस दबाव में संजय ने सारे संवादों को मेरठ मुजफ्फनगर के मुशायरे में बदल दिया है। संजय का दिल दीवानी मस्तानी गाने में दिखता है। ख़ूब कलात्मक तरीके से फ़िल्माया है। इस गाने से मस्तानी अमर हो जाती है फ़िल्म के आख़िर कई सीन शानदार हैं। बाजीराव के पानी में उतरने और दुश्मन घुड़सवारों के चले आने का दृश्य याद रहेगा। फ़िर भी इस फ़िल्म को देखकर क्यों लगा कि देखा क्या। 

(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं, ये उनके निजी विचार हैं)  

 

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