ऐसा न हो इन ज़िलों में एक भी लड़की न बचे!

Neetu SinghNeetu Singh   25 Sep 2016 9:27 PM GMT

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ऐसा न हो इन ज़िलों में एक भी लड़की न बचे!सन 2001-2011 के आंकड़ों में उत्तर-प्रदेश में मां के गर्भ से लगभग 19 लाख बेटियां गुम हो गयी हैं।

कम्युनिटी जनर्लिस्ट- उमा शर्मा

कक्षा-11

उम्र -17 वर्ष

स्कूल-प्रखर प्रतिभा इन्टर कालेज बैरी असई ,मैथा ब्लॉक कानपुर देहात

कानपुर/हरदोई/कन्नौज। पहले सोचा था लड़के की शादी आस-पास ही करेंगे। 25 साल लड़के की उम्र हो गयी पर दरवाजे एक भी शादी का रिश्ता नहीं आया। मेरे लड़के की उम्र बढ़ती जा रही थी मजबूरी में एक दलाल को 15 हजार रुपए देकर बिहार से अपने लड़के की शादी करवाई। ये बताते हुए मूलचंद्र कुशवाहा अपने सिर पर हाथ रख लेते हैं। इनके बेटों की शादी तो हो गयी है पर घर में खुशहाली नहीं है क्योंकि ये लडकियां कम उम्र की हैं और अशिक्षित भी हैं।

हमारा देश आज चाहे जितना आगे बढ़ गया हो पर बेटियों को लेकर सोच वैसी ही है जैसी वर्षों पहले थी। परिवर्तन हुआ है लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। इसलिए ये परिवर्तन इतनी बड़ी आबादी में बहुत कम है। हालात ये है कि उत्तर-प्रदेश में अभी भी 41 प्रतिशत बेटियों की कम उम्र में जल्दी शादी हो जाती है। बेटियों की घटती संख्या और लिंग भेदभाव को रोकने में किसी एक व्यक्ति और एक विभाग की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि इसके लिए सामूहिक रूप से मजबूत प्रयास की आवश्यकता है। समुदाय स्तर से लेकर विभिन्न स्तरों तक व्यक्तिगत, गैर सरकारी संगठन, जनसामान्य, युवाओं सभी को आगे आना होगा। जेंडर आधारित लिंग चयन लड़कियों के खिलाफ भेदभावपूर्ण व्यवहार है। इसका पहला कारण गहरी पितृसत्तात्मक मानसिकता जो परिवारों में बेटियों से ज्यादा बेटों को बढ़ावा दिया जाता है। दूसरा छोटे परिवारों की ओर बढ़ती प्रवृत्ति के कारण बेटे के जन्म को वरीयता। तीसरा चिकत्सीय तकनीक का गलत प्रयोग पर सख्त कार्यवाही नहीं की जायेगी तब तक इस स्तिथि में सुधार नहीं होगा।
डॉ नीलम सिंह, वात्सल्य संस्था, लखनऊ

कानपुर देहात जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में बैरी दरियाव गाँव हैं। इस गाँव में रहने वाले 45 वर्षीय मूलचंद्र के यहां आये दिन लड़ाई-झगड़ा होता रहता है जिसका सबसे बड़ा कारण है कि कुशवाहा परिवार में बिहार से छह लड़कियों को खरीद कर लाया गया है। जिन्हें यहां के रीति-रिवाज और रहन-सहन में परेशानी आती है। इसकी वजह से घर में कलह होती रहती है। अगर ये बहुएं यहां काम नहीं करती हैं तो घरवाले हमेशा ताने देते रहते हैं कि दहेज देकर नहीं आयी हो तुम्हे खरीद कर लाया गया है।

कन्नौज जिले के तिर्वा ब्लॉक से 12 किलोमीटर दूर फिरोजपुर गाँव में रहने वाली रहने वाली 16 वर्षीय कविता यादव बताती हैं, “हमारे गाँव से कॉलेज दूर होने की वजह से लड़कियों की जल्दी शादी कर दी जाती है जबकि लड़कों को आगे पढ़ाया जाता है। इस भेदभाव की वजह से हर मां चाहती है कि उसका बेटा हो क्योंकि बेटा होने पर उस माँ को भी बहुत सम्मान दिया जाता है।”

उत्तर-प्रदेश में पिछले दशक 2001-2011 में शिशु लिंगानुपात में 14 अंकों की गिरावट आयी है। शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में तीन गुना ज्यादा ये गिरावट दर्ज की गयी है। ये एक गंभीर समस्या की ओर संकेत है। सन 2001-2011 के आंकड़ों में उत्तर-प्रदेश में मां के गर्भ से लगभग 19 लाख बेटियां गुम हो गयी हैं। पिछले तीन दशकों से जनगणना के आंकड़े ये गवाही दे रहे हैं कि लगातार लड़कियों की संख्या कम हो रही है। जनसंख्या में यह असंतुलन मात्र आंकड़ों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका सामाजिक असर भी अब देखने को मिल रहा है। बेटों की बढ़ती मांग की वजह से आज ये आंकड़े चिंताजनक हो गये हैं।

घटते लिंगानुपात में सबसे बड़ा कारण दहेज है। दहेज की वजह से कई परिवारों में सिर्फ बेटे के जन्म को ही वरीयता दी जाती है। कम उम्र में शादी और आये दिन हो रही रेप की घटनाएं भी इस घटते लिंगानुपात का बड़ा कारण हैं। सरकारी अस्पताल के बाहर खुले अल्ट्रासाउंड सेंटर भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। अगर इन समस्याओं पर विचार करके हल न निकाला गया तो आने वाले समय में स्थिति और दयनीय हो जाएगी।
राज लक्ष्मी कक्कड़,स्टेट एडवाइजरी कमेटी की मेंबर

हरदोई जिले के शाहाबाद ब्लॉक से चार किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में नरही गाँव है। इस गाँव में रहने वाली शांती देवी (42 वर्ष) का कहना है, “मैं मूलत: पश्चिम बंगाल की रहने वाली हूं। आज से 28 साल पहले 14 साल की उम्र में हमारी चचेरी बहन ने हमें बेच दिया था। तबसे मैं इस गाँव में रह रही हूं।” वो आगे कहती हैं, “अगर ऐसे ही लड़कियों को कोख में मार दिया गया तो वो दिन दूर नहीं जब हमें खरीदने पर भी लड़कियां नहीं मिलेंगी।” बाराबंकी, हरदोई, कानपुर देहात के ऐसे कई गाँव है जहां पर लड़कियां शादी के लिए खरीदी जाती हैं। अगर लड़कियों के जन्म पर उत्साह न मनाया गया तो आने वाले समय ये आंकड़े और ज्यादा चिंताजनक होंगे।

सन 1980 के दशक से शुरू हुई अल्ट्रासाउंड तकनीक का इस्तेमाल शुरुआती दौर में चिकित्सीय उद्देश्यों की पूर्ती के लिए किया गया था। उस समय इस तकनीक की पहुंच शहरी क्षेत्रों में उन लोगों तक थी जो पढ़े-लिखे थे। आज इस तकनीक से मुनाफा कमाने के लिए इसका प्रचार-प्रसार यहां तक फ़ैल गया कि आज ये प्रदेश के हर हिस्से में 10-15 किलोमीटर की दूरी पर कहीं न कहीं आसानी से देखी जा सकती है। इसके परिणामी नतीजे सन 2021 की जनगणना में दिखाई देंगे। आज यह समझना बेहद जरूरी हो गया है कि यह तकनीक कैसे एक बड़ी ग्रामीण जनसँख्या में लगभग 70 प्रतिशत लोगों तक पहुंच गया है।

सेन्सस 2001 और 2011 के आंकड़ों के अंतर की अगर हम बात करें तो बनारस में 34 प्रतिशत इलाहाबाद में, 24 प्रतिशत आजमगढ़ और बहराइच, पीलीभीत में 30 प्रतिशत, गोंडा और मिर्जापुर में 26 प्रतिशत, सिद्धार्थनगर में 29 प्रतिशत और सोनभद्र में 32 प्रतिशत गिरावट आयी है।

   

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