नीति आयोग के गोद लेने के बावजूद बलरामपुर की स्वास्थ्य व्यवस्था में नहीं हुआ कोई सुधार

शीला दूसरे बच्चे के लिए अस्पताल गईं तो नर्सों ने उनसे खराब व्यवहार किया। उन्हें गालियां दी गईं और बुरा-भला कहा। बलरामपुर जिले के सत्तुआ गांव की रहने वालीं शीला की ही तरह हज़ारों महिलाएं स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं।

Pragya BhartiPragya Bharti   16 May 2019 10:46 AM GMT

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नीति आयोग के गोद लेने के बावजूद बलरामपुर की स्वास्थ्य व्यवस्था में नहीं हुआ कोई सुधारप्रेग्नेंसी के दौरान महिला। प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो- Reuters

बलरामपुर, उत्तर प्रदेश।

"जब हम अस्पताल में रहली त कउनो डॉक्टर हमके देखे ना आईल। न कउनो सुई लगल, न कउनो दवा मिलल। एकरे बदले हमके गाली मिलल। जब हम दरद से चिल्लाये लगली त हमके डांटल गइल। एतना डरा दे गईल कि हमके वही हालात में तुरंत घर आए के पड़ल। फिर घर में ही हमार प्रसव भइल। रात भर हम मां-बेटी जमीन पर पड़ल रहलीं। सुबह दाई आइल फिर नाल कटले," - शीला (बदला हुआ नाम) अपनी देशज भाषा में बताती हैं।

शीला उत्तर प्रदेश राज्य के बलरामपुर जिले की रहने वाली हैं। बलरामपुर जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित रेहरा ब्लॉक के सत्तुआ गांव में उनका घर है। इनके घर से सबसे पास का सरकारी अस्पताल अब्दुल गफ्फार हाशमी सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र है जो कि सादुल्लाह नगर में पड़ता है। शीला इस अस्पताल में उनके साथ हुए व्यवहार का ज़िक्र कर रही हैं।

सत्तुआ गांव तक कोई एंबुलेंस नहीं आती। जब भी किसी महिला को अस्पताल ले जाना होता है तो लोग अपने साधनों से या गाड़ी बुक कर के ले जाते हैं। गांव की महिलाएं बताती हैं कि अब सब अस्पताल तो जाती हैं लेकिन सरकारी सुविधाएं अभी भी उन्हें नहीं मिलतीं।

सादुल्लाह नगर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र


राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 (2015-2016) के मुताबिक उत्तर प्रदेश का बलरामपुर जिला संस्थागत प्रसव के मामले में सबसे पिछड़ा जिला है। अप्रैल 2019 में आई इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बलरामपुर में केवल 31 प्रतिशत महिलाएं ही प्रसव के दौरान अस्पताल पहुंच पाती हैं।

वहीं पास ही के जिले गोंडा की स्थिति भी निराशाजनक है। गोंडा में संस्थागत प्रसव का प्रतिशत केवल 56 है। गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल में भी बलरामपुर सबसे पिछड़ा जिला है, केवल 2.7 प्रतिशत लोग ही गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करते हैं।

साल 2018 में नीति आयोग ने बलरामपुर सहित आठ जिलों को आकांक्षात्मक जिला घोषित किया था। जिसके बाद राज्य के मुख्यमंत्री ने इन जिलों में आधारभूत सुविधाएं पहुंचाने के लिए काम करना शुरू किया। नीति आयोग द्वारा गोद लिए जाने के बाद भी जिले की हालत में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है।

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शीला का पहला बच्चा घर पर ही हुआ था। दूसरे बच्चे के लिए अस्पताल गईं तो वहां की नर्सों ने उनसे बहुत खराब व्यवहार किया। दिन भर उन्हें भर्ती रखा लेकिन कोई दवाई नहीं दी गई, न ही उनका ध्यान रखा गया। उल्टे उन्हें गालियां दी गईं और बुरा-भला कहा गया। शीला अस्पताल में अकेले दर्द से तड़पती रहीं लेकिन उनका ध्यान नहीं रखा गया। कोई डॉक्टर उन्हें देखने तक नहीं आया। वो इतना परेशान हो गईं कि रात दस बजे लेबर पेन में होते हुए भी उन्हें घर वापस आना पड़ा। फिर घर में ही उनका प्रसव हुआ।

शीला अपने तीसरे बच्चे के प्रसव के लिए अस्पताल तो गईं लेकिन सरकारी अस्पताल जाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। इस बार वो प्राइवेट अस्पताल गईं।

रेहरा ब्लॉक में आता है सत्तुआ गांव-


उत्तर प्रदेश राज्य में केवल 67.8 प्रतिशत महिलाएं संस्थागत प्रसव करवा पाती हैं। इसमें से केवल 44.5 प्रतिशत ही सरकारी अस्पताल में प्रसव कराती हैं। बाकी महिलाएं प्राइवेट अस्पतालों पर भरोसा करती हैं और 32.2 प्रतिशत महिलाएं आज भी घर में ही प्रसव करने को मजबूर हैं। पिछले स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुकाबले इस प्रतिशत में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2005-06 की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में केवल 20.6 प्रतिशत महिलाएं प्रसव के लिए अस्पताल पहुंच पाती हैं।

भारत के सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में उत्तर प्रदेश संस्थागत प्रसव के मामले में 31वें नंबर पर है। नागालैंड (33 प्रतिशत) सबसे आखिरी तो वहीं पुडुचेरी और केरल (100 प्रतिशत) पहले नंबर पर हैं। भारत में संस्थागत प्रसव केवल 79 प्रतिशत है। बाकी 31 प्रतिशत महिलाएं आज भी घर पर प्रसव करने को मजबूर हैं।

सत्तुआ की ही रहने वालीं जानकी (22) जो कि पहली बार गर्भवती हैं, कहती हैं कि मेरे पैर में सूजन रहती है। एक बार जब डॉक्टर के पास गए थे तो उन्होंने खून की कमी बताई लेकिन आशा ने कोई दवाई नहीं दी। आशा बहन जी ने हमसे सारे कागज़ वगैरह ले लिए लेकिन अभी तक हमें कोई किश्त नहीं मिली। हमारी कोई मदद नहीं की।

जानकी, प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना (पीएमएमवीवाय) के बारे में बात कर रही हैं। इस योजना के तहत भारत सरकार महिलाओं को पहले प्रसव के दौरान छह हज़ार रुपए की आर्थिक सहायता प्रदान करती है।

जानकी 6 महीने प्रेगनेंट हैं।

जब इस बारे में गांव कनेक्शन ने बलरामपुर के सीएमओ डॉ. घनश्याम सिंह से संपर्क किया तो उन्होंने इसके लिए लोगों के पिछड़ेपन और अशिक्षा को दोष दिया। वह कहते हैं, "पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है शिक्षा का न होना। बाहरी दुनिया से जुड़ने के लिए रेडियो के अलावा विकास का कोई साधन यहां नहीं है। टीवी गांव में नहीं पहुंच पा रही क्योंकि बिजली नहीं है। जाहिर है टीवी भी नहीं चलेगी। यहां शिक्षा का स्तर भी केवल 50 प्रतिशत के आस-पास है। हम लोग उसे शिक्षित कहते हैं जिन्हें नाम लिखना आता है, तो असल में 20 प्रतिशत से अधिक शिक्षा यहां नहीं है।"

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"सर्वे में बलरामपुर इसलिए भी पिछड़ गया क्योंकि यहां जागरूकता बहुत कम है। सरकार की नीतियां भी लोगों तक बहुत कम पहुंच पाती हैं। अभी तक वो जागरूकता भी नहीं आई है कि लोगों की रूढ़िवादी सोच बदल पाए। कुछ लोग अभी भी मानते हैं कि घर पर ही प्रसव होना चाहिए, वहीं कुछ लोग अस्पताल तक नहीं पहुंच पाते हैं," - सीएमओ बताते हैं।

सादुल्लाह नगर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र के प्रसव कक्ष में केवल दो बेड हैं। जब गांव कनेक्शन यहां पहुंचा तो देखा कि इस कक्ष के शौलाचय में पानी भरा हुआ था। वो इतना गंदा था कि कोई भी महिला उसे इस्तेमाल नहीं कर सकती थी। यहां तक कि स्टॉफ नर्स और दाई भी उसे इस्तेमाल नहीं करती थीं।

बलरामपुर के सीएमओ डॉ. घनश्याम सिंह।

डॉ. घनश्याम डॉक्टरों की कमी को भी स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं, "बलरामपुर जिला सीमावर्ती जिला है इसलिए यहां डॉक्टर आना नहीं चाहते। जब मैं यहां आया था तो केवल 26 डॉक्टर्स यहां काम कर रहे थे, एएनएम भी आज के मुकाबले आधी ही थीं।"

जब डॉ. घनश्याम से शीला के साथ हुए गलत व्यवहार के बारे में पूछे गया तो उन्होंने इसको संज्ञान में लिया। उन्होंने कहा कि अगर कोई स्टॉफ मरीज़ों से ठीक तरह से पेश नहीं आता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। अगर ऐसी कोई स्थिति थी तो महिला को शिकायत करनी चाहिए थी। यह जागरूकता की ही कमी है कि महिला ने शिकायत नहीं की और वो घर वापस चली आई।

बलरामपुर के पश्चिम में स्थित गोंडा जिले की हालत में कुछ सुधार हुआ है। जिला मुख्यालय से लगभग 15 किमी दूर स्थित चिटनापुर गांव के चमारनपुरवा की आशा दीपमाला कहती हैं,

"हम कोशिश तो करते हैं कि सभी महिलाओं को अस्पताल ले जाएं। यहां गांव में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र खुला है ताकि महिलाओं का प्रसव गांव में ही हो और उन्हें प्रसवपीड़ा के दौरान दूर न जाने पड़े लेकिन केन्द्र में कोई सुविधा ही नहीं है। साल भर से ज़्यादा हो गया हमारे पास न तो कोई दवाइयां आई हैं, न ही कॉन्डम या कोई और गर्भनिरोधक। महिलाओं को देने के लिए पैड तक नहीं आए हैं।"

चिटनापुर गांव-


दीपमाला कहती हैं कि जब हम ऊपर अधिकारियों से पूछते हैं तो हमें कहते हैं कि हम ऑनलाइन मंगाए। अब हम कैसे मंगाएं हम जानते ही नहीं हैं कैसे मैसेज करना है। दीपमाला के पास कीपैड वाला फोन है, उससे मैसेज करने पर स्वास्थ्य विभाग द्वारा दी गई पुस्तिका का नंबर गलत बताया।

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चमारनपुरवा के बगल में एक बस्ती ब्राह्मणों की है। यहां की आशा बहन जी बताती हैं कि हमारे पास कोई स्वास्थ्य सामग्री नहीं आती है। एक्स्पाइरी डेट के कुछ दिन पहले दे देते हैं, तब हम किसी को दवाई कैसे दें?

ब्राह्मण बस्ती में रहने वालीं प्रेमावती पांडे (60) कहती हैं, "अब के ज़माने में सब महिलाएं अस्पताल जाती हैं। पहले के समय में महिलाएं डरती थीं लेकिन अब प्रसव के समय सभी अस्पताल जाती हैं। जो गरीब हैं वो सरकारी अस्पताल जाती हैं, जिनके पास पैसा है तो वो प्राइवेट अस्पताल जाती हैं।"

इन महिलाओं से बात कर लगता तो है कि महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो रही हैं लेकिन पूरी तरह महिलाओं तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने के लिए बहुत लंबी दूरी तय करनी बाकी है।

     

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