ज़िन्दा रहने की लड़ाई के आगे तमाम सपने बहुत छोटे हैं
ज़िन्दा रहने की लड़ाई किसी भी सपने, उम्मीद और इरादों से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। रोज़ दो वक्त का खाना जुटाने की लड़ाई के आगे तमाम सपने छोटे हैं। शहरों और गाँवो की भौतिक दूरी भले ही कुछ किलोमीटर की हो लेकिन सोच और जीवन में अभी भी एक खाई है, जिसे पाटने में ना जाने और कितना समय बीत जाएगा!
Pragya Bharti 18 April 2019 12:50 PM GMT
पन्ना, मध्यप्रदेश।
"मौका मिलेगा तो हम पेंटर ही बनेंगे," पन्ना शहर (मध्यप्रदेश) में रहने वाली शिक्षा गुप्ता कहती हैं। उनका सपना है कि वो पेंटिंग सीखें लेकिन कभी सीख नहीं पाईं।
हम सबके जीवन में एक इरादों की पोटली (Bucket List) होती है। वो सारे सपने जो हमें पूरे करने हैं। वो कुछ काम जिन्हें किए बिना मर गए तो मलाल रह जाएगा लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें सपने देखने की फुर्सत ही नहीं। जिनका जीवन हर रोज़ ज़िन्दा रहने की लड़ाई लड़ते हुए बीत रहा है।
'दो दीवाने' प्रोजेक्ट के तहत बुंदेलखण्ड क्षेत्र के चित्रकूट, बांदा (उत्तर प्रदेश), सतना और पन्ना जिलों (मध्यप्रदेश) के गाँवों में गाँव कनेक्शन की दो महिला रिपोर्टर्स की टीम ने 500 किमी की यात्रा तय की। यात्रा के पांचवें दिन हम पन्ना जिले के मझगवाँ गाँव में थे। इस गाँव में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी) की एक ब्रांच है। एनएमडीसी एकमात्र संगठन है जो संगठित तौर पर हीरा खनन करता है।
जब हम एनएमडीसी के दफ्तर पहुंचे तो देखा कि बाहर एक दुकान पर सात-आठ लड़कियां बैठ कर चाय पी रही थीं। उनसे बात करने पर पता चला कि वो सभी पन्ना शहर में रहती हैं और वहां अप्रेंटिस (प्रशिक्षु) की परीक्षा देने आई थीं और रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रही थीं। उस ही दिन उनका साक्षात्कार भी होना था। हमने उन लड़कियों के सपनों की पोटली को खंगालना चाहा।
वहां बैठीं सभी लड़कियों ने बारहवीं के बाद मॉडर्न ऑफिस मैनेजमेंट में डिप्लोमा किया था। कुछ लड़कियां अभी ग्रेजुएशन कर रही थीं और कुछ पूरा कर चुकी थीं।
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दुनिया देखने की ख्वाहिश रखने वाली और रीवा जिले से ताल्लुक रखने वाली प्राची वर्मा ने कहा, "अभी तक हमारे परिवार में केवल हम ही हैं जो पन्ना से बाहर नहीं गए हैं, तो हम चाहते हैं कि एक बार पन्ना से बाहर निकलें और देखें। पहले तो पास-पास की जगहें देखना चाहते हैं फिर भोपाल और इंदौर जैसे शहर देखना चाहते हैं। इसके बाद अगर मौका मिले तो और भी दूर जाना चाहते हैं।"
"हम चाहते हैं कि सबको बाहर घूमने का मौका मिलना चाहिए। हम सबसे पहले तो पचमढ़ी जाना चाहते हैं। ये भी चाहते हैं कि ज़िन्दगी में जो दोस्त हैं वो हमेशा साथ रहें," प्राची वर्मा ने आगे कहा।
प्राची का सपना है कि जब वो नौकरी करें तो अपनी पहली सैलरी से परिवारवालों और दोस्तों को पार्टी दें। पहली सैलरी से जुड़ी मेरी यादें बहुत खूबसूरत हैं। मेरी पहली सैलरी मेरे 21वें जन्मदिन पर आई थी और वो मैंने पूरी की पूरी अपनी मां को दी थी।
बीकॉम प्रथम वर्ष की छात्रा शिवानी कुशवाहा भी अपनी पहली सैलरी अपने माता-पिता पर खर्च करना चाहती हैं। वो कहती हैं, "मुझे अपनी पहली सैलरी से मां-पापा के लिए ढेर सारे तोहफे लेने हैं।" आगे कहा-
"मेरा सपना है कि मैं अपनी मां को दुनिया घूमा सकूं। मेरी मां को पूजा-पाठ का बहुत शौक है तो हम चाहते हैं कि उन्हें दूर-दूर के मन्दिर घुमाएं। वो जहां भी जाना चाहती हैं, जो भी जगहें पसन्द हैं, मैं वो सारी जगह उनके साथ घूमना चाहती हूं। अगर मौका मिले तो पूरे परिवार के साथ वर्ल्ड टूर पर जाना चाहूंगी।"
शिवानी को डांस करने का बहुत शौक है। वो कहती हैं, "मुझे डांसिंग सीखने का कभी मौका नहीं मिला लेकिन आगे चल कर डांसिंग ज़रूर सीखना चाहती हूं। मैं चाहती थी कि डांस को ही करियर बनाऊं लेकिन कभी सीख ही नहीं पाई।"
शिवानी बॉलीवुड फिल्मों की जबर फैन हैं और एक समय पर एक्टर बनना चाहती थीं, लेकिन कहती हैं, "जहां से मैं हूं, वहां कोई इजाज़त ही नहीं देगा कि आप एक्टर बन सको।"
शिवानी असल ज़िंदगी में भले ही एक्टिंग नहीं कर पाईं लेकिन बालीवुड अभिनेता वरूण धवन और हॉलीवुड अभिनेता जस्टिन बीबर से मिलने का ख्वाब बुनती हैं।
मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के फतेहपुर की निवासी सोनल श्रीवास्तव भी प्राची वर्मा की तरह दुनिया घूमने का सपना देखती हैं। वो कहती हैं, "हम बाहर घूमना चाहते हैं। चाहते हैं कि जम्मू और कश्मीर देखें।" वो अपने जीवन और करियर को मजबूत बनाने के लिए स्टेनॉग्राफर बनना चाहती हैं।
सोनल की ही तरह शिक्षा गुप्ता का सपना भी टाइपिस्ट और स्टेनॉग्राफर बनने की है। शिक्षा कोर्ट में नौकरी करना चाहती हैं और बताती हैं कि, "मुझे पेंटिंग, डांसिंग और कुकिंग का बहुत शौक है। अगर मौका मिला कभी तो पेंटर ही बनना चाहूंगी।"
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बी. कॉम. द्वितीय वर्ष की छात्रा शिक्षा सोशल वर्क करने का सपना भी देखती हैं। कहती हैं-
"मुझे चैरिटी करना है। चाहती हूं कि सोशल वर्कर बन कर गरीब और विकलांग लोगों की मदद कर सकूं।"
ग्रेजुएशन पूरा कर चुकीं और फिलहाल पॉलिटेक्निक कर रहीं सुरभि खरिया का सपना सरकारी नौकरी करना है। सुरभि कहती हैं, "मुझे गाने सुनने और बाइक चलाने का बहुत शौक है। भाई ने गाड़ी चलाना सिखाया भी है। मैं चाहती हूं कि किसी दिन पचमढ़ी और गोवा घूमने जाऊं।"
इन लड़कियों से बात करने से पहले हम पन्ना जिले के कैमासन गाँव में थे। यहां मिली रूपी बाई से जब हमने जानना चाहा कि उनकी उम्मीदें क्या हैं तो उनका जवाब हैरान करने वाला था। वो अपनी ज़िन्दगी से कुछ नहीं चाहतीं, कहती हैं-
ज़िन्दा रहने की लड़ाई किसी भी सपने, उम्मीद और इरादों से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। रोज़ दो वक्त का खाना जुगाड़ने की लड़ाई के आगे तमाम सपने छोटे हैं। शहरों और गाँवो की भौतिक दूरी भले ही कुछ किलोमीटर की हो लेकिन सोच और जीवन में अभी भी एक खाई है, जिसे पाटने में ना जाने और कितना समय बीत जाएगा!
(अब क्या करना चाहेंगे! मजदूरी करके अपना और अपने बच्चों को पेट पालते हैं। माता-पिता बूढ़े हो गए तो उन्हें भी कमा के खिलाया। हम कहीं नहीं गए। दो-तीन बकरियां हैं उनकी देखभाल और उन्हें चरा कर अपनी गुजर-बसर कर रहे हैं। क्या करें? अपने बच्चों को छोड़ कर कहां जाएं, तुम्हीं बताओ?)
रूपी बाई अपनी उम्र 30-35 साल बताती हैं। उनके 5 बच्चे हैं, एक लड़का और चार लड़कियां। लड़का सबसे बड़ा है, वो मां के साथ मजदूरी करता है। बड़ी बेटी कौसाबाई भाई और मां की मदद करती है। तीन छोटी लड़कियां पढ़ती हैं। रूपी बाई के पति का देहांत हो चुका है और वो अपने माता-पिता के घर में रहती हैं। अकेले ही अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रही हैं।
कोई दुनिया घूमना चाहता है तो कोई माता-पिता को पूरी दुनिया दिखाना चाहता है और एक महिला ऐसी भी मिलीं जो कुछ नहीं करना चाहतीं। किसी को बाइक चलाना पसन्द है तो किसी का दिल डांसिंग में रमता है। इन लड़कियों की बातों ने एहसास कराया कि ज़िन्दगी की जद्दोज़हद के बीच जो खुशियां हैं वो इन्हीं छोटी-छोटी चीज़ों में हैं।
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साथ ही ये बात भी समझ आई कि गाँवों और छोटे शहरों में आज भी अपने सपनों को पूरा करना लड़कियों के लिए मात्र सपना ही है। वो करना तो बहुत कुछ चाहती हैं लेकिन बोल ही नहीं पातीं। उन्हें पता है कि घर और समाज किन बातों को मानेगा और किन बातों को नहीं। उनको बचपन से सिखाया ही इस तरह जाता है कि कुछ अलग करने के बारे में वो सोच भी लें तो कर नहीं पातीं। उनकी इरादों की पोटली में वो सपने हैं जो हमारे लिए सामान्य हैं, जैसे कि नौकरी करना या अपने पैशन में करियर बनाना।
वहीं रूपी बाई से बात कर एहसास हुआ कि ज़िन्दा रहने की लड़ाई किसी भी सपने, उम्मीद और इरादों से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। रोज़ दो वक्त का खाना जुगाड़ने की लड़ाई के आगे तमाम सपने छोटे हैं। शहरों और गाँवो की भौतिक दूरी भले ही कुछ किलोमीटर की हो लेकिन सोच और जीवन में अभी भी एक खाई है, जिसे पाटने में ना जाने और कितना समय बीत जाएगा!
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