महिला सशक्तीकरण: पहले अंगूठा लगाती थीं अब हस्ताक्षर करती हैं, व्हाट्सऐप चलाती हैं...
Meenal Tingal 1 Feb 2017 9:32 PM GMT
लखनऊ। पैंसठ साल की गंगादई ने जब इस उम्र में घर की चाहरदीवारी से बाहर पढ़ने के लिए कदम रखा तो उन्होंने किताब को कांख में दबाकर साड़ी के नीचे छुपाया हुआ था। गंगादई की लड़ाई सिर्फ मज़ाक उड़ाने वाले समाज से नहीं बल्कि अपने खुद के दो बेटों-बहुओं के तानों से भी थी।
गंगादई पीछे नहीं हटीं और आज वो बैंक में अंगूठा लगाने के बजाय हस्ताक्षर करती हैं। अधिकारियों और प्रधानों से अपने हक की बात रखने में नहीं दबतीं। “हमने कभी स्कूल नहीं देखा। जब पढ़ने का सोचा तो मोहल्ले वालों और बेटों ने मज़ाक बनाया पर हम रोज़ पढ़ने गए। अब हम प्रधान और अधिकारियों से अपने हक की बात कर लेते हैं और हमको छह तक पहाड़े भी आते हैं,” गंगादई मंद स्वाभिमानी मुस्कान के साथ कहती हैं।
जब हमने घर पर अपने पति से पढ़ाई के लिए सेंटर तक आने की बात कही तो वह बहुत गुस्सा हुए। कहने लगे पढ़ाई के नाम पर वहां पंचायत करोगी, कहीं नहीं जाना है। मेरे कहने पर मीरा ने मेरे पति और बच्चों को समझाया तो मैं सेंटर आने लगी। मेरे घर वाले अकसर सेंटर पर देखने आते थे कि मैं पढ़ाई कर भी रही हूं या नहीं। जब घर जाती तो पढ़वा कर देखते थे।अतरकली यादव (52 वर्ष), प्रहलादपुर, ब्लॉक- भोजीपुरा, बरेली
ये आत्मविश्वास गंगादई में साक्षरता से आया है, जिसकी ग्रामीण भारत की महिलाओं में शहरी महिलाओं की अपेक्षा कमी है। जनगणना 2011 के अनुसार ग्रामीण भारत की महिलाओं की साक्षरता दर लगभग 58 प्रतिशत थी, जबकि शहरी महिलाओं में यही दर 80 फीसदी से ज्यादा थी।
बरेली के ज़िला मुख्यालय के उत्तर-पूर्व में 12 किमी दूर मुख्यधारा से कटे आसपुर पीतमराय गाँव में पढ़ाई से वंचित रही गई हर उम्र-वर्ग की महिलाओं-बच्चियों को पढ़ाने के लिए एक छोटा सा केंद्र संचालित हो रहा है। युवा सामाजिक कार्यकर्ता मीरा देवी (22 वर्ष) की अगुवाई में तीन दर्जन से ज्यादा महिलाएं 'ज्योति साक्षरता केंद्र' में एक खामोश क्रांति को जन्म दे रही हैं।
जब हम पढ़-लिख नहीं पाते थे तो लोगों से बात करने में घबराते थे, पर अब नहीं। मेरे पति की किसी से लड़ाई हो गई तो थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई थी, दरोगा जी बोले अंगूठा लगाओ तो हमने साइन किए। दरोगा जी को बहुत आश्चर्य हुआ था। अब खुद पढ़कर अपने बच्चों को भी पढ़ाते हैं तो घर में सब खुश हैं। मीरा के कारण ही हम पढ़ सके हैं।रामश्री (42 वर्ष), भोजीपुरा, आसपुर पीतमराय, बरेली
इन क्रांतिकारी महिलाओं का हथियार नारे और बंदूकें नहीं बल्कि साक्षरता और आत्मविश्वास जैसी अदृश्य ताकतें हैं। आज ककहरा और एबीसीडी सीख ये महिलाएं समाज की पुरुषवादी सोच से लोहा ले रही हैं।
ये सफर इतना असाना नहीं था। एमए की पढ़ाई कर रही केंद्र की संचालनकर्ता मीरा देवी आसपुर पीतमराय गाँव की सबसे पढ़ी-लिखी लड़की है। मध्यवर्गीय ग्रामीण परिवार से आने वाली मीरा को इस बात का एहसास हुआ कि अगर वो अपनी तरह ही गाँव की बाकी महिलाओं को भी साक्षर बना दे तो उन्हें समाज में दबना नहीं पड़ेगा।
मीरा ने केंद्र खोलने के बारे में तो सोच लिया था लेकिन अब उसकी असली लड़ाई शुरू होनी थी, “गाँव की महिलाओं को पहले तो केंद्र तक लाने के लिए कई तरह के ताने सुनने पड़े। महिलाओं को भी गाँव वालों के साथ उनके परिवारों का विरोध सहना पड़ा लेकिन धीरे-धीरे मेहनत रंग ले आई और महिलाएं पढ़ने के लिए केंद्र में आने लगीं”। पिछले तीन वर्षों से अब हर दोपहर 12 से तीन आसपुर पीतमराय गाँव के एक छोटे से कमरे से पहाड़ा और अंग्रेजी पढ़ने की आवाज़ें गूंजती हैं।
“पहले मुझे मोबाइल चलाना नहीं आता था लेकिन अब स्मार्टफोन चलाते हैं, व्हाट्सऐप चलाते हैं,” मीरा के केंद्र में पढ़ने वाली इन्दरवती (50 वर्ष) बताती हैं। इन्दरवती और गंगादई जैसी बुज़र्ग महिलाओं को साक्षर बनाकर मीरा ने वो कर दिखाया है जो 1988 में शुरू हुई भारत सरकार की प्रौढ़ शिक्षा की योजना भी नहीं कर पाई।
सिर्फ गाँव की महिलाएं ही नहीं, उन्हें पढ़ाने का नेक ख़्याल लेकर चलने वाली मीरा और उसका परिवार भी गाँव वालों के तानों से नहीं बचा। मीरा के किसान पिता महेन्द्र पाल सिंह बताते हैं, “जब मीरा ने सेंटर खोला तो मुझे गाँव वालों ने कहा कि बहुत छूट दे रखी है। पता नहीं कहां जाती है, किससे मिलती है। पहले मैंने मीरा को बहुत रोका लेकिन उसने जिद ठान ली थी। आज लोग उसकी तारीफ करते हैं तो अच्छा लगता है”।
पति गार्ड हैं, रात में नौकरी करते हैं तब हम अपने घर पर बक्से पर लिख-लिख कर वह पढ़ते हैं जो मीरा सुबह पढ़ाती है। दोपहर में जब पति सुबह सोते हैं तो हम सेंटर पर पढ़ाई करने आ जाते हैं।रामबेटी (40 वर्ष), भोजीपुरा, आसपुर पीतमराय, बरेली
मीरा को अपने इस संघर्ष में 'साकार' नाम की गैर सरकारी संस्था का भी साथ मिला। साकार की संस्थापक नितिका बताती हैं, “मीरा की मुलाकात संस्था के एक कार्यक्रम में मुझसे हुई थी। वह अपने गाँव में महिलाओं के प्रति पढ़ाई की अलख जलाना चाहती है। संस्था ने उसको ट्रेनिंग दी जिसके बाद उसने अपने गाँव में महिलाओं की पढ़ाई के लिए सेंटर खोला”।
मीरा और गाँव की महिलाओं ने समाज से अपने-अपने हिस्से की लड़ाई लड़ी और उन्हें हराया भी। यही वजह है कि आज जब गंगादई अपने घर से पढ़ने के लिए केंद्र तक आती हैं तो वो अपनी किताबें साड़ी में नहीं छुपातीं। “अब हम किताब साड़ी में नहीं दबाते सामने करके चलते हैं, जिसको देखना हो देखे,” गंगादई ने कहा।
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