'अगर एक दिन लकड़ी न बिके तो पति और बच्चे भूखे रह जाएंगे' 

Neetu SinghNeetu Singh   21 May 2018 7:13 AM GMT

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अगर एक दिन लकड़ी न बिके तो पति और  बच्चे भूखे रह जाएंगे पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले आसपास के लाखों लोगों की रोजी रोटी इन्हीं जंगलों से चलती है।

बीहड़ और पहाड़ी क्षेत्रों में रोजगार का कोई साधन न होने की वजह से यहां की महिलाएं जंगलों से लकड़ी बीनकर लाती हैं और उन्हें बेचकर अपने बच्चों को दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाती हैं।

चित्रकूट-ललितपुर। देश में ऐसे सैकड़ों परिवार हैं जो रोज रोटी के लिए जुगाड़ करते हैं.. उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के हजारों परिवारों के लिए ऐसी लड़ाई रोज होती है। इन परिवारों की जिंदगी सूखी लकड़ियों पर निर्भर है, लकड़ियां नहीं बिकी तो घर में चूल्हे की आग नहीं धधकती है। ये लोग सुबह होने के कई घंटे पहले जंगल में जाते हैं और दोपहर तक उस दिन की रोटी का इंतजाम कर ग्राहक तलाश करते हैं।

चित्रकूट जिले की रानी देवी रैदास (25 वर्ष) उदास मन से अपनी पीड़ा बताई, "सुबह चार बजे गाँव के पांच छह लोग एक साथ बिना कुछ खाए पिए जंगल से लकड़ी बीनने निकल जाते हैं, लकड़ी बीनकर दोपहर तक आ पाते हैं, इसी लकड़ी को बेचकर घर का चूल्हा जलता है, अगर एक दिन लकड़ी बीनने न जाए तो मनसेरू (पति) और बच्चे भूखें रह जाए।"

रानी देवी बीहड़ क्षेत्र की पहली महिला नहीं हैं, जो अपने बच्चों का पेट भरने के लिए हर सुबह जंगल जाती हों। इनकी तरह करीब 45 लाख से अधिक बुन्देली महिलाएं अपने बच्चों का पेट भरने के लिए हर सुबह चार बजे तड़के जग जातीहैं। उसी समय ये झुण्ड बनाकर जंगल की तरफ लकड़ी बीनने निकल जाती हैं। अगर ये एक दिन लकड़ी बीनने न जाएं तो इनके घर में उस दिन का चूल्हा जलना मुश्किल हो जाता है। आज भी बीहड़ और पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले आसपास के लाखों लोगों की रोजी रोटी इन्हीं जंगलों से चलती है।

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चित्रकूट जिले के रामनगर गाँव की महिलाएं जो हर सुबह चार बजे लकड़ी बीनने निकल जाती हैं।

चित्रकूट जिला मुख्यालय से 55 किलोमीटर दूर हनुमानगंज ब्लॉक के रामनगर गाँव की महिलाओं की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू हो जाती है। इस गाँव में रहने वाली रानी देवी रैदास का कहना है, "मेरी शादी 14 साल में हो गई थी, पति खूब शराब पीते हैं, दो तीन साल से बिस्तर से नहीं उठे हैं, मेरे तीन लड़के और तीन लड़कियां हैं, अगर एक दिन भी लकड़ी बीनने न जाए तो उस दिन हमारे घर का चूल्हा न जले।" वो आगे बतातीहैं, "होटल वाले गाँव में ही लकड़ी खरीदने आते हैं इसलिए ज्यादा भाव नहीं मिल पाता है, 50 से 80 रुपए में एक लकड़ी का गट्ठर खरीदते हैं, इन्ही पैसों से खाना बनाकर बच्चों का पेट भरते हैं, हमारे यहां ज्यादातर मनसेरू (पति) शराब पीते हैं या जुआ खेलते हैं, हम महिलाएं लकड़ी बीनते हैं।"

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उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड के सात जनपद बांदा ,चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी व ललितपुर में 2011 की जनगणना के मुताबिक, कुल जनसंख्या 96,59,718 है। इसमें महिलाओं की संख्या 45,63,831 है। बीहड़ और पहाड़ी क्षेत्रों में रोजगार का कोई साधन न होने की वजह से यहां की महिलाएं जंगलों से लकड़ी बीनकर लाती हैं और उन्हें बेचकर अपने बच्चों को दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाती हैं।

ललितपुर से 50 किलोमीटर दूर दुधई गाँव में 2500 आदिवासी परिवार रहते हैं। इनका जीवनयापन सामान्य से बिलकुल अलग है। इन्हें न तो वक्त से खाना मिलता है और न ही पानी। सोने के लिए रात में चारपाई के नाम पर जमीन की कुछ इंच भूमि मिलती है। ललितपुर जिले में 71,610 शहरिया आदिवासी परिवार रहते हैं, जिनकी सभी की स्थिति लगभग एक जैसी ही है।

इस गाँव की अनीता सहरिया (22 वर्ष) का कहना है, रात में दो रोटी ज्यादा बना लेते हैं, सुबह जब जंगल जाते है तो बासी रोटी में नमक तेल लगाकर जंगल लेकर चले जाते हैं, पूरे दिन लकड़ी बीनने के बाद शाम को घर आते हैं, दोपहर में यही रोटी खाकर पानी पी लेते हैं ।" वो आगे बताती हैं, "अगले दिन इन लकड़ियों को 12 किलोमीटर दूर बेचने जाते हैं, तब कहीं जाकर हमे 50 रुपए मिलते हैं, कुछ पैसे मेहनत मजदूरी करके पति कमा लेते हैं, दोनों की कमाई से बच्चों को रुखा-सूखा खिला पाते हैं। अगर घर में कोई बच्चा बीमार पड़ गया तो बर्तन गिरवी रखने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं है।"

चित्रकूट जिले के रामनगर गाँव की लड़की सड़क पर बर्तन धोते हुए।

चित्रकूट से 75 किमी दूर बांदा के बिसंडा ब्लॉक के बाघा गाँव की कौशल्या (55 वर्ष) आईटीआई में अपनी बेटी के साथ सिलाई-कढ़ाई सीख रही हैं। "हमारे पास दो बीघा खेती थी, पति को टीबी थी, इलाज में खेत और गहने बिक गए। यहां से छूटने के बाद सड़क किनारे मजदूरी के लिए फावड़ा चलाना पड़ता है।"

पल्लू से आंसुओं को पोंछते हुए कहा, "दो बेटियां हैं, उन्हें पूरा पढ़ाना चाहते हैं। यहीं से हमारी एक लड़की पॉर्लर सीख रही है। जब अच्छे से काम सीख जाएंगे तो कुछ अपना काम शुरू करेंगे।"वो आगे कहती हैं, "लकड़ी बीनकर कब तक गुजारा होगा कुछ तो सोचना होगा, अब 15-20 किलोमीटर पैदल नहीं चला जाता है, खाना-पीना समय से नहीं मिलता इसलिए कमजोरी बहुत लगती है, अब पहले जैसा काम किये नहीं होता है।"

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