कभी घर से भी निकलना था मुश्किल, आज मधुबनी कला को दिला रहीं राष्ट्रीय पहचान 

कुछ साल पहले तक जिस महिला को घर से बाहर निकलने के लिए भी घर के पुरुषों की इजाजत लेनी पड़ती थी, आज वही महिला अपने हुनर के दम पर देश के कई राज्यों तक अपनी कला को पहुंचा चुकी है।

Divendra SinghDivendra Singh   28 March 2018 12:53 PM GMT

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कुछ साल पहले तक जिस महिला को घर से बाहर निकलने के लिए भी घर के पुरुषों की इजाजत लेनी पड़ती थी, आज वही महिला अपने हुनर के दम पर देश के कई राज्यों तक अपनी कला को पहुंचा चुकी है।

बिहार के मधुबनी ज़िले की इंदिरा देवी (50 वर्ष) दिल्ली जैसे बड़े शहर में लोगों से बात करने में झिझकती नहीं हैं। लेकिन यहां तक पहुंचना इतना आसान नहीं था। इंदिरा देवी बताती हैं, "हमारे गाँव जो औरत बाहर निकलती तो उसे गलत माना जाता है, ऐसे में जब मैंने काम शुरू किया तो लोग कहने लगे कि ये तो गलत औरत है बाहर के लोगों से बात करती है।"

इंदिरा देवी

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इंदिरा देवी पारंपरिक कला को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक खास पहचान दिला रही हैं। इंदिरा देवी आज अपने जैसी दर्जनों महिलाओं को को काम दिला रही हैं।

वो आगे कहती हैं, "लेकिन फिर भी मैंने बिना किसी की बातों की परवाह किए अकेले-अकेले काम करना शुरू किया, जब मुझे दूसरी दीदी लोगों ने देखा तो उन्हें लगा कि ये तो अच्छा काम कर रही है, हमें भी करना चाहिए। बस वहीं से हमारे ग्रुप की शुरूआत हुई, एक-एक करके हमारे ग्रुप में चालीस दीदी शामिल हो गईं हैं।"


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इंदिरा देवी ने साल 2014 में स्वयं सहायता समूह की शुरूआत की, आज देश कई बड़े शहरों में स्टाल लगा चुकी हैं। आज इंदिरा और उनके स्वयं सहायता समूह की दूसरी महिलाएं मधुबनी कला को राष्ट्रीय स्तर तक ले जा रहीं हैं। वो आज साड़ी, सूट, चादर में मधुबनी कलाकृतियां बनाती हैं।

इंदिरा बताती हैं, "हम दीदी लोग मिलजुल कर काम करती हैं, कई दीदी लोगों को जो नहीं समझ में आता है, उन्हें मैं ट्रेनिंग भी देती हूं। अब समय बदल रहा है, लोग सीखना चाहते हैं, अब तक दिल्ली जैसे कई बड़े शहरों में हम स्टाल लगाते हैं।"

राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन से मिली मदद

ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के लिए राष्ट्रीय आजीविका मिशन मददगार साबित हो रही है, इस योजना के माध्यम ये समूह की महिलाओं को ऋण मिलने में परेशानी नहीं होती है। इंदिरा बताती हैं, "आजीविका मिशन से हमें बहुत मदद मिली है, पहले हमें लोन मिलने में परेशानी होती, लेकिन इसकी मदद से आसानी से लोन मिल गया, जिससे हम अपने काम को आगे बढ़ा पाए हैं।"

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समय के साथ बदल रही है कला

पहले जहां मधुबनी कला घर की दीवारों तक ही सीमित थी, अब गाँवों से निकलकर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय फलक तक पहुंच रही है। बड़े शहरों में एक साड़ी सात से आठ हजार में आराम से बिक जाती है। इस अनूठे काम से न केवल इंदिरा की जिंदगी बदली बल्कि उनके जैसी दर्जनों औरतों की जिंदगी बदल रही है।"

क्या है मधुबनी कला

मधुबनी लोक कला बिहार के मधुबनी जिले से संबन्धित है। मधुबन का अर्थ है 'शहद का वन' और यह स्थान राधा कृष्ण की मधुर लीलाओं के लिये प्रसिद्ध है। मधुबनी की लोक कला में भी कृष्ण की लीलाओं को चित्रित किया जाता है। बिहार के मुज़फ्फपुर, मधुबनी, दरभंगा और सहरसा ज़िलों में मधुबनी कला बनायी जाती है।

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मधुबनी की कलाकृतियों तैयार करने के लिये हाथ से बने कागज़ को गोबर से लीप कर उसके ऊपर वनस्पति रंगों से पौराणिक गाथाओं को चित्रों के रूप में उतारा जाता है। कलाकार अपने चित्रों के लिये रंग स्वयं तैयार करते हैं और बाँस की तीलियों में रूई लपेट कर अनेक आकारों की तूलिकाओं को भी स्वयं तैयार करते हैं ।

इन कलाकृतियों में गुलाबी, पीला, नीला, सिंदूरी और हरे रंगों का प्रयोग होता है। काला रंग ज्वार को जला कर प्राप्त किया जाता है या फिर दिये की कालिख को गोबर के साथ मिला कर तैयार किया जाता है, पीला रंग हल्दी और चूने को बरगद की पत्तियों के दूध में मिला कर तैयार किया जाता है पलाश या टेसू के फूल से नारंगी, कुसुंभ के फूलों से लाल और बेल की पत्तियों से हरा रंग बनाया जाता है। रंगों को स्थायी और चमकदार बनाने के लिये उन्हें बकरी के दूध में घोला जाता है।

कागज़ पर बनी कलाकृतियों के पीछे महीन कपड़ा लगा कर इन्हें पारिवारिक धरोहर के रूप में सहेज कर रखा जाता है। पारंपरिक रूप से विशेष अवसरों पर घर में बनाई जाने वाली यह कला आज विश्व के बाज़ारों में लोकप्रिय हो चली है।

      

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