मी टू: फ़ोन और कंप्यूटर के पीछे

"एक महिला छह-सात वर्षों से लखनऊ के ही किसी घर में काम कर रही थी। घर के मालिक ने एक दिन अकेले होने पर कामवाली से कहा कि वो डायबेटिक है और ऐसे में डॉक्टर ने उसे अपने गुप्तांगों पर मालिश करने को कहा"

Jigyasa MishraJigyasa Mishra   26 Oct 2018 8:18 AM GMT

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मी टू: फ़ोन और कंप्यूटर के पीछे

लखनऊ: ममता करीब दस वर्षों से घरों में जाकर खाना बनाने और सफाई का काम करती आ रहीं हैं। लखनऊ के आलमबाग की रहने वाली ममता के लिए पांच में से एक भी घर में काम छोड़ना आसान नहीं था, लेकिन एक घर के मालिक ने जब दोबारा उसके साथ यौन शोषण करने की कोशिश की तब ममता ने मजबूरन वहां काम करना छोड़ दिया।


हाल ही में केंद्रीय मंत्री के इस्तीफे और मीडिया व फ़िल्मी जगत के कई पुरुषों के विरोध में उठी आवाज़ों की वजह से 'मी टू-अभियान' ने काफी ज़ोर पकड़ा है। कई नामी हस्तियों पर कार्यस्थल पर महिला सहकर्मी के साथ यौन उत्पीड़न के आरोप लगे हैं, जबकि कुछ ने सोशल मीडिया पर माफी भी मांगी है। लेकिन देश भर की 81.29% कामकाजी ग्रामीण महिलाओं के साथ हुए शोषण के बारे में कौन और कैसे जान पायेगा? (2011 जनगणना के अनुसार)

"पहली बार जब भाभी और बच्चे बाहर गए थे और हम रात का खाना बनाने आये थे तब जो है... भैया ने हमको पीछे से पकड़ लिया और गलत जगह छूने लगे। एक मिनट के लिए हमें कुछ समझ ही नहीं आया फिर हमने उन्हें ज़ोर से पीछे ढकेला और चीखा 'भैया ये आप क्या कर रहे हो!' वो ऐसे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। अगले दिन जब भाभी आ गयीं तो हम उन्हें बताना चाहते थे लेकिन, हमें लगा वो मानेंगी नहीं और काम से निकाल देंगी तो हम चुप रहे, "ममता (38 वर्ष) बताती हैं।

"तीन-चार महीने बाद होली वाले वक़्त दीदी और बच्चे बाजार गए थे जब हम काम करने गये, तब भैया ने हमारा काम ख़त्म होते ही बोला था 'काम कर के थक गयी हो, चलो नहा लो। त्यौहार का समय है डबल पैसे लेती जाओ आज' इस के बाद हम इतना डर गए थे कि दोबारा उस घर में नहीं गए। उस महीने के पैसे भी नहीं लिए, "ममता ने आगे बताया।

भारत में 29% महिला मजदूर और 23% घरेलू काम करने वाली महिलाएं सबसे ज़्यादा कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं, जो बदनामी और नौकरी छूटने के डर से कभी आवाज़ नहीं उठातीं (ऑक्सफेम इंडिया एंड सोशल एंड रूरल रिसर्च 2012 के अनुसार)।


शहरों तक सिमटा 'मी टू'

हाल ही में 'मी टू-कैम्पेन' के तहत सोशल मीडिया पर महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन शोषण की घटनाओं का बेधड़क होकर जिक्र करना शुरू किया है। फेसबुक, ट्वीटर और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आरोपियों के खिलाफ आवाज़ उठायी गयी जिसमें ज़्यादातर मामले फिल्म, मनोरंजन, मीडिया और राजनीति में सक्रिय पुरुषों के रहे। ये साहसी कदम लेने वाली महिलायें या तो शहरों में रहने वाली हैं, या कम से कम उनके पास कंप्यूटर या स्मार्टफ़ोन की सुविधा उपलब्ध हैं, जिसके ज़रिये वो अपनी आपबीती करोड़ों लोगों तक रख पायीं। लेकिन उन ग्रामीण महिलाओं का क्या जिन्हें रोज़मर्रा के कामों में यौन शोषण का सामना करना पड़ता है पर उनके पास ऐसे संसाधान नहीं जहां वो 'मी टू' लिख सकें?

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20 वर्षों से महिलाओं के लिए काम कर रहीं, महिला सेवा संघ ट्रस्ट की फरीदा बताती हैं, "10-11 साल की बच्चियों को फ़ोन जैसे चीज़ों का लालच देकर उनसे गलत काम कराया जाता है। एक महिला छह-सात वर्षों से लखनऊ के ही किसी घर में काम कर रही थी। घर के मालिक ने एक दिन अकेले होने पर कामवाली से कहा कि वो डायबेटिक है और ऐसे में डॉक्टर ने उसे अपने गुप्तांगों पर मालिश करने को कहा, जिसे सुनकर कामवाली ने वहां काम करना छोड़ दिया।"

"झारखंड की राजधानी रांची के पास कुछ ऐसे गाँव हैं जहां महिला व पुरुष काम के तलाश में आते हैं और कुछ घंटों तक खड़े रहते हैं। कई बार बड़ी गाड़ियों में इकट्ठे इन्हें काम पर ले जाया जाता है और महिलाओं को गलत तरह से छूआ भी जाता है, जिसके ख़िलाफ़ वह कुछ बोल भी नहीं पाती क्योंकि उन्हें काम चाहिए, "गैर सरकारी संस्थान, आली में काम करने वाली रेशमा, झारखंड से फ़ोन पर बताती हैं।


भाषा रूपी बाधा

नवजात बच्चियां हों या 100-वर्षीय महिलाएं, यौन उत्पीड़न के मामले देश भर के अलग-अलग प्रांतों से आये दिन सामने आते हैं। ऐसे में अभियान (मी टू) के शुरू होने से लेकर उसमें सम्मिलित होकर आगे बढ़ाने वाली महिलाएं रहीं हो या पाठक, लगभग सभी प्रतिक्रियाएं भी अंग्रेजी प्रधान रहीं। हिंदी मीडिया ने बेशक अभियान से जुडी खबरों को उजागर किया लेकिन क्या यह अभियान उन ग्रामीण महिलाओं तक पहुंच पाया जिन्हें हिंदी या अंग्रेज़ी की समझ नहीं?

राजस्थान के रत्नागढ़ की रहने वाली इचरज कँवर गाँव के ही कुछ घरों में घी और दूध बेचने का काम करती हैं। इचरज सिर्फ मारवाड़ी बोल सकती हैं और अपने पति और तीन बच्चों के साथ रहती हैं। "आठ इंच के घूंघट के बाद भी जब लोग घूरते हैं तो हम क्या करें? काम तो करना ही है, इसलिए हम अपने छोटे बेटे को साथ ही लेकर जाते हैं सौदा करने, "इचरज ने पूछे जाने पर बताया की काम करने में कोई परेशानी तो नहीं आती।

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झारखण्ड के चतरा की रहने वाली अंकिता (बदला हुआ नाम) रेशमा के ज़रिये फ़ोन पर बताती हैं कि कैसे उनके लिए काम की खोज में दुर्रव्यवहार और भद्दे व्यंग मानसिक उत्पीड़न देते हैं। "हम जब सुबह काम के लिए जाते हैं तो कई बार काम नहीं मिलता और वहां लड़के अशिष्ट और अभद्र बाते बोलते हैं। कभी कभी तो वो हमें बोलते हैं 'आओ हम काम देते हैं' जबकि वो खुद 20-25 साल के होते हैं।"

            

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