महिला सशक्तिकरण चाहते हैं तो करनी होगी पुरुषों की मदद

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महिला सशक्तिकरण चाहते हैं तो करनी होगी पुरुषों की मदद

रोहिणी नीलेकणि।

रोहिणी नीलेकणि

हर रोज हम भारत में लड़कियों और महिलाओं पर होने वाले भयानक अत्याचारों की कहानियां सुनते हैं। ऐसे हालात तब हैं जबकि, हम दावा करते हैं कि हमारे देश में तमाम प्रगतिशील नीतियां और ढेरों नागरिक आंदोलन हैं, जबकि, हमारे यहां दुनिया की सर्वाधिक निर्वाचित महिला प्रतिनिधि हैं इसके अलावा शासन के सभी स्तरों पर 10 लाख से अधिक पदों पर महिलाएं काबिज हैं; जबकि, लाखों महिलाएं स्वयं सहायता समूहों के जरिए सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध हैं; और जब, एक समाज के तौर पर हम अपने बीच लैंगिक भेदभाव और लिंग आधारित समस्याओं के प्रति जागरूक होते जा रहे हैं।

कहां जा रहे हैं हम?

कहीं ऐसा तो नहीं कि बालिकाओं और महिलाओं को समर्थ बनाने के फेर में हम इस समस्या के दूसरे हिस्से को अनदेखाकर रहे हैं, और इस तरह संभावित समाधान के इस आधे हिस्से को कम करके आंक रहे हैं?

अगर हमारा लक्ष्य सर्वे भवंतु सुखिन: है, यानि सभी को सुख पहुंचाना है तो हमें इस देश के 20 करोड़ युवाओं कीपरिस्थितियों पर भी विचार करना होगा। हमें उसी तेजी और एकाग्रता से उनके साथ जुड़ना होगा जैसे हम लाखों लड़कियोंऔर उनकी ढेरों जरूरतों से जुड़ते हैं।

जरा रुक कर विचार करें

दुनिया भर में 13 से 26 साल के युवाओं की सबसे बड़ी तादाद भारत में है। देश में वे किन परिस्थितियों में हैं इस पर ध्यान देना जरूरी है। अभी तक इन युवाओं में से बहुत से लोग अल्पशिक्षित हैं और अल्प रोजगार वाले निम्न हालात में जीरहे हैं। इनमें से शायद ही कुछ लोगों का पारिवारिक जीवन सुखद और सुरक्षित होगा और उनके जीवन में कोई आदर्श छवि होगी।

इनमें से अधिकतर के दिमाग में मर्दानगी की जो छवि है वह हमारे सामंती समाज के पूर्वाग्रहों के अनुसार बनी है। आमतौरपर यह माना जाता है कि अगर आप भावुक, संवेदनशील और दयालु हैं तो आप सही मायनों में मर्द नहीं हैं। अगर आपशारीरिक रूप से मजबूत नहीं हैं, परिवार के लिए रोजी-रोटी नहीं कमाते हैं तो आप कमतर मर्द हैं।

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हालांकि, 21वीं सदी में पुरुष शब्द की परिभाषा फिर से गढ़ी जा रही है, पर इन सामाजिक मान्यताओं से बचना कठिन है क्योंकि इनके खांचे हमारे समुदायों और समाज में बहुत भीतर तक हैं। हमें इन मुद्दों को संवेदनशील नजरिए से देखने की जरूरत है क्योंकि ये हमारे देश के सामने बहुत बड़ी चुनौती हैं।

समस्या को बदले नजरिए से देखने की जरूरत

सशक्त महिलाओं को भी हिंसा का सामना करना पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि महिलाओं का सशक्तिकरण होना ही काफी नहीं है। परिवर्तन लाने के लिए, महिला के इर्द-गिर्द मौजूद सत्ता के ताने-बाने में बदलाव होना भी जरूरी है।

हम अक्सर चर्चा करते हैं कि महिलाओं की बेहतरी के लिए पुरुषों को स्वयं को बदलना होगा। लेकिन शायद ही हमने कभी युवाओं को ऐसी ठोस और मौलिक रणनीति सुझाई होगी जिसकी मदद से वे पितृसत्ता और मर्दानगी की रूढ़िवादी व्याख्याजैसे मुद्दों का सामना करके खुद को और निखार सकें।

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यह मेरी जीत और तेरी हार का सवाल नहीं

पुरुषों के मुद्दों पर काम करते हुए भी हम महिला सशक्तिकरण के प्रयास जारी रख सकते हैं। बल्कि इस तरह हम महिलाओं के लिए अपनी कोशिशों को और ठोस रूप दे पाएंगे।

एक राष्ट्र के रूप में हम अपने किशोरों और युवाओं से जुड़ने के लिए कुछ ऐसे कदम उठा सकते हैं :

1. उपयुक्त मंच उपलब्ध करा कर : जरूरत है युवाओं के लिए ऐसे उपयुक्त मंच या फोरम बनाने की जहां पर वे अपने तमाम डर और दुविधाओं पर चर्चा कर सकें। जहां वे पितृसत्ता, मर्दानगी, लैंगिकता और खुद पर अपेक्षाओं के बोझ जैसे मुद्दों पर खुल कर बात कर सकें।

इसके लिए हमें ऐसी रचनात्मक गतिविधियां आयोजित करने की जरूरत है जो महज राजनीतिक या धार्मिक न हों बल्कि वे युवाओं को लैंगिक पूर्वाग्रहों को भूलने और निष्पक्ष नजरिया बनाने में सहयोगी हों। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये कार्यक्रम खेल, संगीत या थिएटर संबंधी हों, इनकी एकमात्र शर्त यह है कि ये युवाओं को संकरी, नकारात्मक और लिंग भेद आधारित पहचान से आजाद होना सिखाएं।

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बहुत सारे देशों में ऐसे उदाहरण हैं जहां खेल, संगीत या सलाह-मशविरे को केंद्र में रखकर युवाओं खासकर किशोर लड़कों में नेतृत्व क्षमता उभारी जाती है, उनकी सकारात्मक ऊर्जा को एकजुट किया जाता है। वेनेजुएला में अल सीस्टेमा नाम का एक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जिसमें शास्त्रीय संगीत के जरिए लड़कों को अपने जीवन के मायने तलाशना सिखाया जाता है। इसी तरह, अमेरिका में बिग ब्रदर प्रोग्राम में किशोरों को सलाह दी जाती है कि वे किस तरह अपने जीवन में सफलता पाएं।

भारत में लड़कियों के लिए कुछ पहल तो हुई है लेकिन लड़कों के लिए (चाहें वे शहरी या ग्रामीण) सरकार ने कोई ऐसी योजना नहीं चलाई है।

हमें ऐसे कार्यक्रमों के लिए और अधिक कल्पनाशीलता, अधिक मौलिकता और ज्यादा सरकारी मदद की जरूरत है जो हमारे युवाओं की सकारात्मक ऊर्जा को नियंत्रित कर सकें।

2. कानूनी ढांचे की पुनर्व्याख्या जरूरी : ऐसे समाज के विकास के लिए हमारे कानूनी ढांचे को और प्रयास करने की जरूरत है जिसमें महिला या पुरुष के आधार पर कायदे-कानूनों की व्याख्या ना हो । अक्सर, हमारे कानून और नीतियां पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों को प्रतिबिंबित करते हैं जो पुरुषों को रूढ़िवादी विचारधारा की ओर ही धकेलते हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं के साथ इज्ज्त या मर्यादा की रक्षा का आदर्श न तो पुरुष, न स्त्री और न ही किसी और के लिए सार्थक है। बल्कि वह उसी पितृसत्तामक संरचना की देन है जिससे हमें संघर्ष करना है।

3. कौशल विकास कार्यक्रमों को संवेदनशील बनाने की जरूरत : सरकारी और निजी क्षेत्र पहले ही देश भर में कौशल विकास कार्यक्रम चला रहे हैं। अगर इनमें लैंगिक आयाम भी जोड़ दिया जाए तो यह न केवल किफायती होगा बल्कि समाज के लिए भी उपयोगी होगा। इससे कार्यस्थल (दफ्तरों वगैरह) पर लिंग आधारित शक्ति समीकरण के बारे में महिला और पुरुषों को शिक्षित किया जा सकेगा।

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4. लड़कियों के मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं को साथ लेना : ऐसे नागरिक संगठनों का सहयोग लिया जा सकता है जो महिलाओं और लड़कियों के मसलों पर काम करते रहे हों। ये किशोरों और पुरुषों के लिए बने संगठनों के साथ अपने सबक साझा कर सकते हैं साथ ही इन्हें बनाने में सहयोग भी दे सकते हैं। ऐसा मुमकिन हो सके, इसके लिए समाजसेवियों को आगे आकर ऐसी पहल और ऐसे संगठनों की मदद करनी होगी।

अपनी भूल को सुधारने की जरूरत

हालांकि हमने महिलाओं के सशक्तिकरण में काफी प्रगति की है, लेकिन पुरुषों के रूप में एक ऐसे अहम कारक को शामिल करने का मौका चूक गए हैं जिनकी नियति महिलाओं से अलग नहीं है। इस मुद्दे पर जो थोड़े से संगठन काम कर रहे हैं, हमें उनका समर्थन करना चाहिए। भारत के युवाओं और किशोरों की आवश्यकता है कि हम उनके लिए कुछ और करें। ऐसा पुरुषों के हक में तो होगा ही, साथ ही महिलाओं को सही मायनों में सशक्त बनाने के लिए भी जरूरी है। इसलिए बेहतर है कि हम बिना समय गंवाए इस दिशा में आगे बढ़ें।

* रोहिणी नीलेकणि स्वयंसेवी संगठन अर्घ्यम की संस्थापक अध्यक्ष और जानीमानी लेखिका हैं।

यह लेख मूल रूप में India Development Review में प्रकाशित हो चुका है

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