‘आंखों में शर्म नहीं बची जो लड़की होकर खिलाड़ी बनोगी’

Shrinkhala PandeyShrinkhala Pandey   8 Sep 2017 6:04 PM GMT

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‘आंखों में शर्म नहीं बची जो लड़की होकर खिलाड़ी बनोगी’महिला खिलाड़ियों के आगे कई चुनौतियां।

लखनऊ। लड़की होकर खेलकूद करना, दिमाग खराब है क्या, टीवी देखना कम कर दो थोड़ा। पराये घर जाना है और ये छोटी छोटी नेकरें पहनकर दौड़ने जाओगी तो गाँव में क्या इज्जत रह जाएगी। ऐसी ही कुछ तीखी बातें सुननी पड़ी थीं, जया को जब उसने खेल को करियर बनाने की सोची।

जहां एक ओर ग्रामीण लड़कियों के लिए घर से बाहर निकलना अभी भी एक चुनौती है वहां पर खेलकूद की बात करना व लड़कों की तरह खेल की ट्रेनिंग लेने की बात करना किसी को भी चकित करने के बराबर ही था।

लखनऊ के केके सिंह बाबू स्टेडियम में खेल का प्रशिक्षण ले रही जया (17वर्ष) की मां का सपना था कि बेटी खेल जगत में नाम रोशन करें। लेकिन परिवार व रिश्तेदार इस बात के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। जया बताती हैं, ‘‘ मेरा तो शुरू से मन था कि खेल में ही आगे बढूं लेकिन पिता जी कभी इस बात के लिए राजी न होते। बहुत बार कहने पर उन्होंने मना कर दिया लेकिन मेरे भाई और मां ने हार नहीं मानी और फिर पापा ने मुझे एक मौका दे ही दिया, अब मैं इतना आगे बढूंगी कि सबको गलत साबित कर दूंगी।”

जया अपनी मां के सपने को पूरा करने के लिए 2015 में लखनऊ आई व एथलीट जैसे खेलों का प्रशिक्षण लेने लगी। वो कक्षा 11 में हैं और पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कई प्रतियोगिताओं में भाग भी लिया है, जिसमें रांची जूनियर नेशनल चैंपियनशिप के 100 मीटर में छठवें और 200 मी में चौथे स्थान पर आयी थीं।

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खेल में ग्रामीण महिलाएं बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं लेकिन ये बात अलग है कि उन्हें शुरूआती दौर में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लोगों की तरह तरह की टिप्पणियां सुननी पड़ती हैं उसके बाद भी कम सुविधाओं में ये महिला खिलाड़ी आगे चलकर सबको लोहा मनवा देती हैं।

इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत भर में धीरे-धीरे गांव, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर के खेल प्रतियोगिताओं में महिलाओं की भागीदारी पिछले चार साल में 328% तक बढ़ी है। यह बढ़ोतरी चकाचौंध करने वाली लगती है लेकिन इसका आधार बहुत छोटा है। महिलाओं के बीच खेल को बढ़ावा देने के लिए 1975 में शुरू की गई राष्ट्रीय महिला चैम्पियनशिप को अब आरजीकेए के साथ एकीकृत कर दिया गया है।

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महिला खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन उतना नहीं मिल पाता कि वो पुरूषों के बराबर आगे आए फिर भी वो बेहतर कर रही हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण के एथेलेटिक्स जोन शैलेन्द्र सिंह कहते हैं, ‘’खिलाडिय़ों का आधार मजबूत होना चाहिए, जो नहीं हो पाता क्योंकि शुरूआती समय में कोई ट्रेनर नहीं मिलता। खेलों को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं लेकिन उनका फायदा खिलाड़ी उठा नहीं पाते।” वो आगे बताते हैं, “खुशी की बात ये है कि फिर भी लड़कियां आगे आ रही हैं वो भी गाँवों से निकलकर तो उन्हें दबाने के बजाय प्रोत्साहित करने की जरूरत है।”

ग्रामीण क्षेत्रों से होने के बाद जहां एक और इन लड़कियों के पास सुविधाओं की कमी है तो वहीं दूसरी ओर गाँव वालों की रूढि़वादी सोच इनको आगे बढ़ने से पूरी तरह रोकने की कोशिश करती है। गोण्डा जिले के कुंदरखा गाँव की प्रीति यादव (19) बताती हैं, ‘‘मेरा परिवार बड़ा था, हम पांच बहनें और एक भाई थे ऐसे में घर की बेटी को स्पोर्ट सीखने देना बहुत बड़ी चुनौती थी। बचपन से ही खेल में रूचि थी जब गाँव में खेल का अभ्यास करती थी तो गाँव के लोग कई तरह की बातें बनाते थे कि लड़की होकर ये सब काम आंखों की शर्म मर गई है।”

ये बातें सुनकर भी प्रीति ने अभ्यास करना नहीं छोड़ा आज वो लखनऊ के गुरू गोविंद सिंह स्पोर्ट कॉलेज में रहकर एथलीट खेलों का प्रशिक्षण ले रहीं हैं। छोटे से गाँव से होने के बाद भी प्रीति के सपने बहुत बड़े हैं, वो आेलंपिक में हिस्सा लेना चाहती हैं व भारत का नाम रोशन करना चाहती हैं।

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