बिहार में खुला अनोखा सैनिटरी नैपकिन बैंक, ऐसे करेगा काम

Shefali SrivastavaShefali Srivastava   29 July 2017 6:44 PM GMT

बिहार में खुला अनोखा सैनिटरी नैपकिन बैंक, ऐसे करेगा कामसैनिटरी नैपकिन बैंक (फोटो साभार : इंटरनेट ) 

पटना। पिछले कुछ समय से समाज में एक बदलाव देखने को मिल रहा है जहां पहले लोग इन चीजों का नाम लेने में भी हिचकिचाते थे वहीं अब पीरियड्स, माहवारी स्वच्छता और सैनिटरी नैपकिन जैसे मुद्दो पर खुलकर अपनी बात रख रहे हैं।

बावजूद इसके भारत में अभी भी कई ऐसे इलाके हैं जहां माहवारी अभी शर्म और झिझक का मुद्दा है। भारत के पूर्वी राज्य बिहार के कई ग्रामीण इलाकों में ‍‍लोग माहवारी के दौरान कपड़ा और यहां तक कि कुछ महिलाएं घास-फूस और राख का इस्तेमाल करते हैं। सैनिटरी नैपकिन का तो उन्हो‍ंने नाम ही नहीं सुना है। ऐसे में पटना निवासी अमृता सिंह और पल्लवी सिन्हा मिलकर बिहार में न सिर्फ सैनिटरी नैपकिन बैंक का निर्माण कर रही हैं बल्कि इसके इस्तेमाल के लिए महिलाओं की काउंसलिंग प्रोग्राम भी चला रही हैं।

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नव अस्तित्व फाउंडेशन की फाउंडर अमृता और पल्लवी ने ‘स्वच्छ बेटियां स्वच्छ समाज’ नाम से मुहिम चला रही हैं। अमृता ने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया,‘इसी साल मई में हमने इस मुहिम की शुरुआत अपने क्षेत्र से की जिसके तहत हमने बेहद गरीब महिलाओं को एक साल के लिए 12 सैनिटरी नैपकिन बांटे।’

हालांकि अमृता और उनके साथियों को थोड़े समय में ही अहसास हो गया कि इस तरह मुहिम बहुत बड़े स्तर पर सफल नहीं हो पाएगी, जबकि माहवारी स्वच्छता मामले में बिहार के आंकड़ें बहुत बुरे हैं। यहां करीब 83 फीसदी महिलाएं सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं। इस वजह से अमृता ने सैनिटरी नैपकिन बैंक बनाने की योजना पर काम किया। इसे हम छह जिलों में एक साथ लॉन्च कर रहे हैं। वह बताती हैं कि इसके तहत हमारे वॉलेंटियर्स हर सेंटर में सैनिटरी नैपकिन इकट्ठा करेंगे और जरूरतमंदों को बहुत कम लागत में नैपकिन उपलब्ध करवाएंगे।

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सैनिटरी नैपकिन के साथ पासबुक भी उपलब्ध करवाएंगे

अमृता के अनुसार, ‘ सैनिटरी नैपकिन के लिए हमने बड़े मैन्युफैक्चरर्स से बात की है। हम उनसे थोक में नैपकिंस मंगाएं हैं। अमृता आगे बताती हैं, ‘हमने इस मुहिम को पांच साल के लिए प्लान किया है। नैपकिन प्रोवाइड करने के साथ हम लाभार्थियों को पासबुक भी देंगे। इसमें हर पैकेट को देने के साथ हम पासबुक में एंट्री भी करेंगे।’

अमृता बताती हैं कि सिर्फ नैपकिन उपलब्ध करवाना ही लक्ष्य नहीं है, महिलाएं उसे इस्तेमाल करें और कैसे इस्तेमाल करें इसके लिए काउंसलिंग बेहद जरूरी है। हम कई महीनों से महिलाओं की काउंसलिंग करवा रहे हैं जिसके जरिए हमें पता चला कि उन्हें कई गंभीर बीमारियां होती है लेकिन वे खुलकर इसके बारे में बोल नहीं पाती।’

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इससे पहले जीएसटी टैक्स स्लैब में 12 फीसदी टैक्स स्लैब में सैनिटरी नैपकिन को शामिल करने पर काफी विरोध हुआ था। महिलाओं के लिए काम कर रही कई संस्थाओं का मानना था कि सैनिटरी नैपकिन को जीरो परसेंट टैक्स स्लैब में होना चाहिए। एक महिला को महीने में कम से कम आठ से दस पैड की आ‍वश्यकता होती है जिसकी कीमत 80 से 100 रुपए हो सकती है या 900 रुपए सालाना।

सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल से जुड़े तथ्य

  • भारत में सैनिटरी नैपकिन का कारोबार 1990 में 30 करोड़ से 2016 में 2900 करोड़ तक बढ़ा है।
  • लेकिन भारत में 12 फीसदी महिलाएं ही पैड इस्तेमाल करती हैं
  • 23 फीसदी लड़कियां पीरियड्स के चलते स्कूल छोड़ देती हैं
  • 70 फीसदी महिलाएं सैनिटरी पैड इस्तेमाल ही नहीं करती

आंकड़ों के अनुसार 80 फीसदी महिलाएं सैनिटरी नैपकिन इसलिए इस्तेमाल नहीं कर पातीं क्योंकि उसकी कीमत ज्यादा होती है। वहीं दूसरे नंबर पर इसके पीछे वजह सैनिटरी पैड्स को लेकर जागरुक होना नहीं है। तीसरी वजह कपड़े का आसानी से मिल जाना। चौथी वजह नैपकिन को लेकर मिथक। पांचवीं वजह कपड़ा इस्तेमाल करने में आसान। छठी वजह पारंपरिक अभ्यास सातवीं वजह पारिवारिक दबाव बताया जाता है।

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माहवारी को लेकर लोगों में है अंधविश्वास

माहवारी को लेकर अभी भी लोगों में अंधविश्वास भरा हुआ है। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अभी भी महीने के उन दिनों में महिलाओं को अछूत मानते हैं। उत्तराखंड सहित भारत के कुछ इलाकों में आज भी महिलाओं को माहवारी के दौरान उन्हें घर के बाहर अलग से बनाए गए झोपड़ों और यहां तक कि कई जगह पशुओं के बाड़े तक में रहने को मजबूर होना पड़ता है।

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उत्तर प्रदेश स्थित वात्सल्य नाम की संस्था ने वर्ष 2016 में लखनऊ के आठ ब्लॉक के 80 स्कूल की 450 छात्राओं (11 से 18 वर्ष) के बीच बैंक आफ़ अमेरिका के तहत वेश लाइन सर्वे किया था जिसमें 93 प्रतिशत छात्राओं ने कहा, ‘माहवारी में वो मन्दिर, चर्च गुरुद्वारा नहीं जाती। 84.7 प्रतिशत ने कहा कि वो माहवारी को गंदा मानती हैं। हर तीन में से एक किशोरी यानी 33 प्रतिशत किशोरियां ही इन दिनों स्कूल जा पाती हैं। यूनीसेफ की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 66 प्रतिशत किशोरियों को पहली माहवारी के बारे में जानकारी ही नहीं है।’

वर्सोवा की विधायक भारती लावेकर

महाराष्ट्र में है भारत का पहला सैनिटरी नैपकिन बैंक

इससे पहले इस साल मेंस्ट्रुएशन हाइजीन डे (28 मई) के मौके पर वर्सोवा की एमएलए डॉ. भारती लावेकर ने अपने पहली बार अपने क्षेत्र में एक विशेष तरह के सैनिटरी नैपकिन बैंक का उद्घाटन किया था जिसे जनजातीय और आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं के लिए बनाया था। इसका नाम टाइ फाउंडेशन सैनिटरी पैड बैंक है। इसे भारत में अपनी तरह का पहला सैनिटरी नैपकिन बैंक बताया जा रहा है।

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