अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो

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अगले जनम मोहे बिटिया न कीजोलड़कियों में भेदभाव आज भी। 

निकहत परवीन

“पढ़ लिख कर क्या करोगी? तुम पराया धन हो” भारतीय समाज के लगभग हर दूसरे घर में कहने वाला ये प्रचलित वाक्य है, विशेषकर ग्रामीण भारत में। इसका इस्तेमाल मां बाप अपनी ही संतानों के लिए करते हैं।

बिहार की राजधानी पटना में रहने वाली 21 वर्षीय महिला ने नाम न बताने की शर्त पर नम आंखों से अपनी आपबीती सुनाते हुए कहा “बचपन, बचपन क्या होता है? मैंने कभी महसूस नहीं किया। सिर्फ किताबों में पढ़ा है। जीवन ने इतना समय नहीं दिया की बचपन की परिभाषा समझ पाती। हम तीन बहनें और एक भाई हैं। सबसे बड़ा भाई और उसके बाद मैं। 6 साल की थी की घर के कामों में अम्मी का हाथ बंटाने लगी। उम्र बढ़ने के साथ साथ जिम्मेदारी भी बढ़ती गई। मैंने खुशी खुशी सब स्वीकार किया क्योंकि अम्मी हमेशा कहती थी कि लड़की को ये सब करना ही होता है और मेरे बाद मेरी बहने यही करेंगी। ये वाक्य तसल्ली देने के लिए काफी होता था”।

वो आगे कहती हैं कि छोटी सी उम्र से व्यस्त जीवन जी रही हूं। हमारा देश भी अजीब है शादी की उम्र 18 साल तय कर दी लेकिन घर की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए कितनी उम्र होनी चाहिए ये कानून आज तक नहीं बनाया।

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8 साल की उम्र से जब भी घर लौटी हूं सिर्फ लंच करने का समय मिल पाता था बाकी सारा समय किचन और घर के कामों में लगता था टीवी पर रात के कार्य़क्रम का आंनद सब उठाते थे सिर्फ हम बहनों को छोड़कर। अगली सुबह फिर वही जिंदगी। मैं सुबह-सुबह जागती थी घर का काम करने के लिए लेकिन भाई दौड़ लगाने के लिए। मैं सुबह का नाश्ता और स्कूल के लिए लंच बनाती थी वो टीवी देखता था, मुझे स्कूल से आकर खाने के लिए रसोई घर तक जाना पड़ता था, उसका खाना लेकर अम्मी उसके कमरे में इंतज़ार करती थी। मैं खाना खाकर रसोई घर में चली जाती थी वो कोचिंग करने जाता था। उसे शाम का नाश्ता मिलता था, मुझे धोने के लिए जूठे बर्तन। वो सूरज ढलते ही पढ़ाई करने में लग जाता था, मैं पढ़ने के लिए रात का इंतज़ार करती थी। वो रोज़ रात को टीवी पर क्रिकेट देखता था मुझे सिर्फ रविवार को टीवी के दर्शन होते थे।

अम्मी हर सुबह उसे बादाम खाने को देती थी, मुझे कभी छिलका भी नसीब नहीं हुआ। रात के खाने के बाद दूध का गिलास भाई को अक्सर देती थी लेकिन उसमे अपने लिए दूध कभी नहीं भर पाई। अम्मी बताती थी भाई को इसकी ज्यादा ज़रुरत है उसे इंजीनियर जो बनना था। हालांकि वो बन नहीं पाया ये अलग बात है। मैं क्या बनना चाहती थी ये सिर्फ अब्बा जानते थे लेकिन उन्होंने कभी मौका नहीं दिया कहते थे, “तुम लोग अपने सुसराल चली जाओगी। हमारा इकलौता बेटा ही बुढ़ापे का सहारा बनेगा। वैसे भी बहन तो भाई के लिए ये सब करती ही है तुम भी करती रहो लड़की जो हो।”

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मालूम नहीं लड़की के साथ ये वाक्य क्यों जोड़ दिया गया है या यूं कहिए कि लड़की जन्म लेते ही खुद इस वाक्य के साथ जुड़ जाती है। लड़की होने का नुकसान क्या क्या होता है या क्या हो सकता है ये अहसास पहले उसके घर वाले ही दिलाते हैं समाज और दुनिया तो बाद में आपको बताती है कि आप लड़की हैं। परंतु मैं अगर किसी बेटी की मां बनी तो उसे लड़की होने के कारण पछताने का मौका नही दूंगी गर्व से जीना सिखाउंगी”।

बिहार के छपरा जिला मे रहने वाली 24 साल की मुन्नी का जीवन भी संघर्षों में इसलिए कटा क्योंकि वो लड़की हैं। वो बताती हैं “साधारण परिवार से हूं, पढ़ने का मौका नहीं मिला क्योंकि 10 साल की उम्र से ही मां-बाप ने लोगों के घरों में काम करने भेज दिया था। हम दोनों बहने काम करते थे। 5 छोटे भाइयों का ख्याल रखते थे और घर चलाने में पापा की मदद भी। जब बड़ी बहन की शादी हुई तो 6 महीने बाद पति ने उसे छोड़ दिया क्योंकि वो खूबसूरत नहीं थी। मेरी शादी को 5 साल हो गए हैं दो बेटे की मां हूं। ससुराल में पहले ही दिन सास ने बता दिया कि यहां घर की बहुएं सबसे अंत में भोजन करती हैं, बार बार याद दिलाया जाता था कि जल्दी से घर को चांद जैसा पोता दूं पोती हुई तो मायके भेज देगें। जब मां बनने वाली थी तो डरती थी कि कहीं बेटी न पैदा हो। ऊपर वाले की मेहरबानी कहूं या किस्मत, की दूसरी बार भी बेटा हुआ जिसकी वजह कर ससुराल में थोड़ी इज्ज़त तो मिल जाती है पर भर पेट खाना आज भी नहीं मिलता। कभी लंबे समय के लिए मायके जाती हूं तो वहां एक दो घरों में काम कर लेती हूं ताकि कुछ पैसे आ जाएं और मैं ठीक से खा पी सकूं। जरुरत पड़ने पर इलाज के लिए, दवाओं के लिए कुछ पैसे जोड़ लेती हूं, बस इसी तरह जिंदगी चल रही है।

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लड़की होना किसी गुनाह से कम नही क्या वास्तव में इस वाक्य में वज़न है? इस संबध में अंग्रेजी से स्नातक कर रही पल्लवी कुमारी ने कहा, “कई बार ऐसा होता है कि लड़की ये सोचने पर मजबूर हो जाती है कि लड़की होना ही आपका सबसे बड़ा गुनाह है और ऐसी भावना क्यों न आए लड़कियों के मन में? आप देखिए लड़का पैदा हो तो मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाते हैं, पूजा अर्चना भी होती है पर बहुत कम ऐसे परिवार हैं जो बेटियों के लिए मंदिर तक जाते हैं। या मन्नत मांगते हैं। कहने को तो बेटियां देवी का रुप हैं लेकिन इसकी महत्वपूर्णता बहुत कम समझी जाती है”।

अनुभवी गाइनोकॉलिजिस्ट डॉक्टर विनिता सहाय के अनुसार “पिछले 30 सालों के काम में मैंने अधिकतर उन परिवारों को देखा है जो अपनी बीवी, बहू को जितनी बार भी चेकअप के लिए लाते हैं तो बिना ये जाने की गर्भ में लड़का है या लड़की सीधे यही कहते हैं कि मेरा पोता, मेरा बेटा ठीक तो है। कई बार मैं अभिभावकों से पूछ लेती हूं कि आपको कैसे पता कि पोता, या बेटा ही होगा? जवाब आता है मैडम प्लीज़ ऐसे न बोलिए बहुत दुआएं की है पूरा भरोसा है बेटा ही होगा। जब बच्चे के आने से पहले ही बेटा- बेटी में अंतर की भावना परिवार के मन में आ गई तो जन्म के बाद बेटे की जगह बेटी हो जाए तो लड़की को भेदभाव को शिकार तो होना ही पड़ेगा। अफसोस तब होता है जब उंचे घराने के पढ़े लिखे लोग भी ऐसी छोटी सोच को दर्शाने से परहेज़ नही करते”।

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के पांचवे लक्ष्य का उद्देश्य है जिसके अनुसार 2030 तक सभी देशों को लिंग समानता प्राप्त करना और सभी महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाना है। अब इस संदर्भ में भारत की बात करें तो सरकार के लाख प्रयासों के बाद भी इस लक्ष्य को पाना तबतक संभव नही जब तक देश और समाज लड़कियों के प्रति अपने रूढ़िवादी विचारों और रवैये में बदलाव न लाए।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं।) साभार: (चरखा फीचर्स)

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