किसी बेटी ने रोका बाल विवाह, तो किसी ने अपने गाँव के बच्चों का स्कूल में कराया नामांकन

Neetu SinghNeetu Singh   25 Jan 2019 10:22 AM GMT

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किसी बेटी ने रोका बाल विवाह, तो किसी ने अपने गाँव के बच्चों का स्कूल में कराया नामांकन

रांची/लखनऊ। ये बेटियां बदलते भारत की तस्वीर हैं। खेलने कूदने पढ़ने-लिखने की उम्र में ये समाज में बदलाव की कहानियां गढ़ रही हैं। घर परिवार समाज से लड़ाई लड़कर ये वो काम कर रही हैं जिस पर हर साल सरकार करोड़ों रुपए खर्च करती है।

इनमे से कोई बेटी बाल-विवाह रोक रही है तो कोई अपने गाँव के बच्चों का स्कूल में नामांकन करा रही। कोई बिहार के सुदूर गाँव से निकलकर फ़ुटबाल खेलने का सपना पूरा कर कर रही तो कोई झुग्गी-झोपड़ी में रह रहे बच्चों को पढ़ाने का काम कर रही है। कोई बेटी माहवारी जैसे विषय पर खुलकर गाँव की बेटियों से चर्चा करने लगी तो कोई कई किलोमीटर साइकिल से स्कूल जाकर पुलिस बनने के सपने को पूरा करने में लगी है। ये बदलाव सुनने में आपको छोटे लग रहे हों लेकिन इन बेटियों के लिए ये उनके सबसे बड़े सपने हैं जिसे वो अंजाम दे रही हैं।


"आठ किलोमीटर साइकिल चलाकर स्कूल जाने वाली मैं अपने गाँव की पहली लड़की हूँ। मेरे कहने पर कुछ लड़कियां अब कभी-कभी स्कूल जाने लगी हैं। हम पुलिस में नौकरी करके देश की सेवा करना चाहते हैं।" ये बताते हुए आरती कुमारी (15 वर्ष) के चेहरे पर खुशी और आत्मविश्वास था। उसने बताया, "मेरी गाँव की बहुत सी लड़कियां पढ़ना चाहती हैं पर उनके घरवाले कहते हैं पढ़ाई करके कौन सा कलेक्टर बन जाओगी। कितना भी पढ़ लो फूंकना तो चूल्हा ही पड़ेगा। घर में रहो इतने दूर जाओगी लोग चार तरह की बात करेंगे।"

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लेकिन झारखंड के अति पिछड़े जिले पलामू के हुसैनाबाद ब्लॉक के जूड़ीबांद गाँव की रहने वाली आरती ने इस सोच का विरोध किया और स्कूल जाने वाली अपने गाँव की पहली लड़की बनी। अगर बेटियां ठान लें तो उनके लिए कुछ भी करना असम्भव नहीं इसे आरती जैसी देश की कई बेटियों ने सही साबित किया है। ये बदलाव की कहानी आरती तक ही सीमित नहीं है बल्कि इनकी तरह 40 लड़कियां आज अपने समुदाय की लीडर हैं। इन्हें आगे ला रही एक गैर सरकारी संस्था सहभागी शिक्षण केंद्र, जो पिछले 28 वर्षों से उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में गरीब और वंचित तबके की महिलाओं और बेटियों को सशक्त करने का काम कर रही है।


आरती की तरह बिहार के मुंगेर जिले के पुरानी गंज कुम्हार टोली में रहने वाली पल्लवी के सपने भी कुछ कम नहीं हैं। वो अपनी बस्ती से हर सुबह साढ़े पांच साइकिल से दो किलोमीटर दूर जाकर फ़ुटबाल खेलने का अभ्यास करती हैं। पल्लवी कुमारी (14 वर्ष) बताती हैं, "जब खेलने जाना शुरू किया तो लोग कहने लगे अब इनका पढ़ने में मन नहीं लगता। ये खुद खेलेंगी दूसरी लड़कियों को भी बिगाड़ देंगी। लेकिन जब हम पहली बार दिल्ली खेलने गये तो मेरे देखादेखी तीन चार लड़कियां और खेलने जाने लगीं।"

पल्लवी के लिए एक छोटी सी बस्ती से निकलकर मैदान में फ़ुटबाल खेलना किसी अधूरे सपने जैसा था लेकिन पल्लवी ने न केवल अपना सपना पूरा किया बल्कि अपने जैसी कई बेटियों को घर से बाहर खेलने में मदद की। पल्लवी कहती हैं, "हम देश के लिए गोल्ड मेडल जीतना चाहते हैं हमें पूरा भरोसा है हम इसे जरुर पूरा करेंगे।" पल्लवी की तरह इस जिले की 16 बेटियों के सपने को उड़ान दे रही है एक गैर सरकारी संस्था पहचान लाइव फाउंडेशन। यूनाईटेड नेशन ने पिछले साल इन 16 खिलाड़ियों को दिल्ली में खेलने का मौका दिया था।

अगर हम यूपी के सबसे पिछड़े जिले बहराइच की बात करें तो यहाँ बाल-विवाह जैसी कुप्रथा को खत्म करने में लगी हैं सत्रह वर्षीय अंकिता। इन्होंने न केवल अपना बाल-विवाह रोका बल्कि पांच और बच्चियों का बाल विवाह रोककर दूसरों के लिए उदाहरण बनी। वो बताती हैं, "पहले हमें नहीं पता था कि कम उम्र में शादी होना कानूनी अपराध है। जब दो साल पहले महिला समाख्या से जुड़े तब हमें पता चला। हमने आठ बच्चों की मजदूरी छुड़वाकर उनका स्कूल में नामांकन भी करवाया है।" शिवपुर ब्लॉक के खेरी बाजार की अंकिता उत्साह के साथ बताती हैं, "एक कम उम्र की लड़की की गोद भराई हो गयी थी उसकी भी शादी हमने रोक दी। हमारी इस कोशिश से वो लड़की बहुत खुश हुई थी।"


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जिन बेटियों की हम बात कर रहे हैं इनके लिए ये लड़ाई इतनी आसान नहीं थी। कोई कहता ये बिगड़ गयी हैं तो कोई कहता अब दहलीज लांघकर ये किला फतह करेंगी। लेकिन इन सब की परवाह न करते हुए इन्होंने न केवल अपने सपने पूरे किये बल्कि दूसरी कई बेटियों के सपनों को अपने प्रयासों से हकीकत में बदला।


बिहार की चंदा ठाकुर (21 वर्ष) आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। ये अपने परिवार की पहली लड़की हैं जो दिल्ली, मुंबई जैसे अलग-अलग शहरों में अकेले गयी हैं। इन्हें 11 अक्टूबर 2018 में अंतरर्राष्ट्रीय बालिका दिवस के मौके पर राजधानी दिल्ली में एक दिन के लिए अमेरिका के राजदूत का प्रभार संभालने की जिम्मेदारी दी गयी थी। चंदा देश की उन 16 लड़कियों में अपना स्थान बनाने में सफल रहीं जिन्हें इस प्रतीकात्मक जिम्मेदारी के लिए चुना गया था।

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