मेहनत तो हम भी बराबर करते हैं बस हमें तवज्ज़ो नहीं मिलती

Shrinkhala PandeyShrinkhala Pandey   14 Dec 2017 6:39 PM GMT

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मेहनत तो हम भी बराबर करते हैं बस हमें तवज्ज़ो नहीं मिलतीमहिला मजदूर की परेशानी मेहनत तो बराबर फिर मेहनताना क्यों कम।

हर क्षेत्र में महिला व पुरूष कंधा मिलाकर चल रहे हैं। शहर की बड़ी कंपनियां हो या गाँव में मजदूरी महिलाएं हर जगह बराबरी की टक्कर देने को तैयार हैं। लेकिन शहर की ओर पलायन करके मजदूरी करने आई महिलाएं हों या अपने ही गाँव में रहकर मनरेगा में काम करने वाली, ये सभी कम मेहनताने पर काम करने के लिए मजबूर हैं क्योंकि पुरूषों के बराबर इन्हें दिहाड़ी देने को कोई भी मालिक तैयार नहीं है।

सिर पर सीमेंट का तसला रखे रत्ना (35) बार-बार इमारत से ऊपर नीचे चक्कर लगाती है और बीच-बीच में अपने तीन साल के बच्चे को देखती है, जो नीचे लेटा सो रहा है। सुबह आठ बजे से शाम पांच बजे तक लगातार काम करने के बाद रत्ना को घर पहुंचकर पति और बच्चों के लिए खाना भी बनाना है।

बिहार के हसपुरा गाँव से पिछले साल रत्ना और उनके पति अपने दो बच्चों के साथ लखनऊ काम की तलाश में आये थे। यहां आकर दोनो पति पत्नी मजदूरी करके अपने परिवार का पेट भर रहे हैं। रत्ना बताती हैं, ''हमारे पास खेती नहीं थी एक घर था वो भी पैसे की जरूरत के आगे बेंचना पड़ा। वहां कोई खास काम नहीं था और मजदूरी भी कम थी तो यहां आ गये लेकिन यहां भी आकर हालत कोई सुधरी नहीं।”

वो आगे बताती हैं, ''मुझे काम जल्दी नहीं मिलता, दो सौ रुपये मजदूरी है लेकिन औरतों को मजबूरी में 150-160 में काम करना पड़ता है। पूरे दो सौ उन्हें कोई नहीं देता। कुछ न पाने से बेहतर है थोड़े कम में गुजारा करें इसलिए हम काम पाने के लिए कम मेहताने में भी तैयार हो जाते हैं।”

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वेतन में भेदभाव

देश भर में सर्वे करने वाली संस्था, नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में पुरूषों को महिलाओं की अपेक्षा 56 प्रतिशत ज्यादा दिहाड़ी मिलती है, जबकि 1961 के वेतन पारिश्रामिक अधिनियम के अनुसार महिला और पुरूष दोनो को समान वेतन देने का नियम है।

शहरों की तरफ पलायन कर रही महिलाओं के साथ मनरेगा और खेती में काम करने वाली महिलाओं को भी रोजगार पाने के लिए कम पैसे में काम करना पड़ रहा है। ठेकेदार रंजीत यादव बताते हैं, ''महिलाओं को हम काम देते हैं लेकिन जब आदमी नहीं मिलते या ज्यादा पैसा मांगते हैं। महिलाएं सारे काम नहीं कर सकती उनमें इतनी सामथ्र्य नहीं है तो हम अपना काम क्यों बढ़ाएंगें।

लखनऊ से लगभग 40 किलोमीटर दूर निंदूरा ब्लॉक के खरिहानी गाँव की प्रेमा ने मनरेगा में तीन साल पहले काम किया था। उसके बाद से उन्हें आज तक काम नहीं मिला। प्रेमा बताती हैं, ''हमें प्रधान कोई काम नहीं देता। लड़ -झगड़कर एक बार काम लिया। आठ-दस दिन किया उसके बाद से आज तक नहीं मिला। अब दूसरों के खेतों पर जाकर मजदूरी करते हैं।”

काम मिलने में भी होती है परेशानी

मनरेगा में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ लड़ रहे उत्तर प्रदेश खेत मजदूर संघ के महासचिव बृजलाल भारती बताते हैं, ''मनरेगा कानून के आधार पर आदमी और औरत को बराबर काम और मेहनताना दिये जाने का नियम है। लेकिन ऐसा होता नहीं है महिलाओं के काम पुरूषों की अपेक्षा कम मिलता है।”

वो आगे बताते हैं, ''उनके काम करने की दर इस बार मात्र 19 फीसदी थी जबकि 33 फीसदी होनी चाहिए। महिलाओं से काम लेने का तरीका भी बदलना चाहिए। वो फावड़ा नहीं चला सकती लेकिन उनसे बराबर काम करने पर ही बराबर पैसा मिलेगा ऐसा कहकर काम नहीं दिया जाता।”

महिला मजदूर को नहीं देता कोई जल्दी काम।

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लखनऊ से लगभग 28 किलोमीटर दूर माल ब्लॉक के अकड़रिया खुर्द पंचायत के प्रधान श्री नारायण द्विवेदी बताते हैं, ''महिलाओं को भी काम बराबर मिलता है लेकिन दोनों को बराबर ही काम करना पड़ता है इसलिए औरते कम आती हैं। अगर आदमी 50 आते हैं तो औरतें दस होती हैं। उन्हें भी फावड़ा चलाना पड़ता है, मिट्टी ढोनी पड़ता है उसमें कोई रियायत नहीं है।”

खेती करने वाली मजदूर महिलाओं की दशा भी इसी श्रेणी में आती है। उन्हें सुबह आठ बजे से शाम के छह सात बजे तक काम करना पड़ता है और इसके लिए मजदूरी मात्र सौ रुपये है। बाराबंकी के अन्नीपुर गाँव की जरीना (42) बताती हैं, ''खेतों की निराई, गुड़ाई, खुदाई आदि कई काम ऐसे हैं जो हमें मिल जाते हैं। इसके लिए सौ रुपये देते हैं। लेकिन काम बड़ी मुश्किल से मिलता है क्योंकि आदमी हमसे ज्यादा काम कम समय में कर लेते हैं।” वो आगे कहती हैं, ''मजबूरी है और गाँव में इसके अलावा कोई काम भी तो नहीं।”

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