नशे की लत से पंजाब ही नहीं झारखंड भी प्रभावित

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नशे की लत से पंजाब ही नहीं झारखंड भी प्रभावितgaon connection

झारखंड। 17 जून 2016 को रिलीज होने वाली फिल्म उड़ता पंजाब मे पंजाब के युवाओं में होने वाली नशे की लत औऱ उनसे होने वाले नुकसान के मुद्दे को एक अलग अंदाज़ में उठाया गया है शायद यही कारण है इस फिल्म को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है हालांकि नशे की लत से सिर्फ पंजाब ही नहीं बल्कि झारखंड राज्य भी बर्बाद होने की कगार पर है।

इसकी वजह है कि यहां के आदिवासी समाज में सृष्टि के समय से चला आ रहा शराब का प्रचलन। आदिवासी अपने को पिलचू हाड़ाम और पिलचू बूढ़ी की संतान मानते हैं। उनकी पूजा-अर्चना शराब के बिना नहीं होती, आदिवासी प्रसाद के रूप में उन्हें लेते हैं। 

आदिवासी टुसू पर्व, करमा पर्व, सोहराय, माघ पूजा, जांथार पूजा, हरियार पूजा, छठियार पूजा एवं शादी विवाह के अवसर पर देशी शराब का सेवन करते हैं। पूजा पर्व के अवसर पर कबूतर व मुर्गा के साथ देशी शराब का भोग लगाना एक आम सी बात है। 

यहां के आदिवासी परंपरागत रूप से चावल से बने शराब जिसे “पोचय” कहा जाता है और महुआ के शराब का सेवन करते रहे हैं। संथालों के देवता मारांग बुरू, जाहेर ऐरा, गोसांय ऐरा, मारांग ठाकुर सहित कई देवताओं को शराब अर्पित करते हैं। परंपरानुसार गाँव के बीच स्थित मांझी थान में मांझी हाड़ाम और मांझी बूढ़ी की पूजा की जाती है। हर एक आदिवासी गाँव में मांझी थान और जाहेर थान होता है। प्राचीन काल में आदिवासी अपने इष्टदेव मारांग बुरू के दिशानिर्देश पर जड़ी-बूटी जंगल से लाकर देशी शराब बनाते थे और 5 दिनों तक पत्ता का दोना बनाकर ढककर रखते थे और पूजा के अवसर पर प्रसाद के रूप में उसे लेते थे। महुआ झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है।

जाहेर थान और मांझी थान के दिसोम पुरोहित बालेश्वर हेम्ब्रम बताते हैं,“संथाल समाज में परंपरागत रूप से देशी शराब को प्रसाद के रूप में देवता को अर्पित करना और प्रसाद ग्रहण करने की परंपरा रही है। मारांग बुरू ने सर्वप्रथम इस परंपरा की शुरूआत की थी जो आज भी चली आ रही है। आज भी इष्ट देवता को सखुआ के पत्ते में देशी शराब अर्पित किया जाता है, जिसे चोडोर कहा जाता है।” 

इस संबध मे नायकी सनातन सोरेन बताते हैं “आदिवासी पिलचू हाड़ाम और पिलचू बूढ़ी के संतान हैं, उन्होंने ही सृष्टि की रचना की और आदिवासी परंपरा से बंधे होने के कारण वे इसका सेवन करते हैं। वे आगे बताते हैं, “गाँव में कम खेती, रोजगार का अभाव, जिससे रोजगार के लिए अन्य प्रदेशों में पलायन होने लगा, लघु वनोत्पाद कम हुआ तो उनकी जीविका का सहारा देशी शराब बना।” आदिवासी महिला घर में ही देशी शराब बनाती और ग्रामीण हाटों में बेचती हैं। आदिवासियों में शराब के प्रचलन का लाभ राजनीतिक दलों ने भरपूर उठाया, वे चुनाव के समय इसका लोभ देकर मतदान अपने पक्ष में कराते हैं। शराब के सेवन से उनमें कई प्रकार की बीमारियां होने लगी और उनकी आयु कम होने लगी। 

कृषि वैज्ञानिक डॉ एमएस मल्लिक बताते हैं, “देशी शराब के पीने से दिमाग पर असर ज्यादा होता है,सोचने की क्षमता खत्म हो जाती है। आए दिन अखबारों में आता है विषाक्त शराब पीने से दर्जनों गाँव में मौत हुई। चावल से बने शराब में अल्कोहल की मात्रा कितनी है, पता नहीं होता,स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी है। देशी शराब अधिक पीने से उनमें कुपोषण, टीबी, कर्ज लेना आम बात हो गई।”

आदिवासी जमीन बंधक रखकर महाजनों के चंगुल में फंसते चले गए। परंपरा के नाम पर उनमें लत लग गई। वे बताते हैं, आदिवासी नेता परंपरा के खिलाफ बोलने से भी परहेज करते हैं, नतीजा राजनीतिक दलों के लिए इसे पीलाकर वोट लेने का एक अवसर मिला। सरकार की योजनाओं से अनभिज्ञ आदिवासी नेता उनके नाम पर योजना लेकर अपना व्यापार करने लगे। राजनीतिक दलों के नेताओं ने उनका दोहन खूब किया। झारखंड में महुआ और ताड़ी हर एक गाँव में पाया जाता है। 

आदिवासी के मसीहा दिसोम गुरू शिबू सोरेन ने वर्ष 1970 में सोनोत संथाल समाज के माध्यम से संथालों में शराब के सेवन के विरूद्व आंदोलन प्रारंभ किया, वे महाजनों से उनकी जमीन वापसी का आंदोलन चलाया। शिबू सोरेन के कारण आदिवासियों में जागरूकता आई और वे मुख्यधारा में जुड़ने लगे। उन्होंने शिक्षा और खेती को बढ़ावा दिया और शराब के सेवन करनेवालों का सामाजिक बहिष्कार करने की अपील की। झारखंड की महिलाओं ने अब देशी शराबबंदी के खिलाफ गांव-गांव में आंदोलन चलाना शुरू किया और कई शराब की भट्टियों को समूह बनाकर तोड़ा।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने झारखंड के धनबाद से शराबबंदी के विरूद्ध आंदोलन का बिगुल फुंका, वे महिलाओं के आग्रह पर धनबाद आए।  

रिपोर्टर: शैलेन्द्र सिन्हा        

 

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