जो कभी चुपके से सुनती थीं भजन, आज दुनिया उन्हें सुनती है
मालवा की मिट्टी में आज भी लोक की खुशबू है, कबीर की वाणी है और उन आवाज़ों की गूंज है, जिन्हें कभी चुप करा दिया गया था। संगीत की एक ऐसी ही आवाज़ है - गीता पराग। एक समय था जब वह छुप-छुपकर भजन सुनने जाती थीं। आज वही आवाज़ खुले मंचों पर गूंजती है, लोगों की आत्मा को छूती है।

“अर जल थल जीव में तुही बिराजे,
जा देखूं वहां तू का तू…”
एक हाथ में खड़ताल, दूसरे में तंबूरा और होठों पर कबीर के निर्गुण पद-गीता पराग की गायकी सिर्फ़ संगीत नहीं, एक जीवन-दर्शन है।
गीता याद करती हैं, “महिलाओं के लिए एक तय दायरा होता है। बाहर निकलना, गाना-बजाना… ये सब अच्छा नहीं माना जाता।”
पति को भी शुरुआत में यह सब पसंद नहीं था। विरोध था, तकरार थी। लेकिन गीता की सासू मां उनके साथ ढाल बनकर खड़ी रहीं।
रात के अंधेरे में, घर का काम निपटाकर, सास-बहू छुप-छुपकर गांव में भजन मंडली सुनने जाती थीं। डर भी था, अगर पति को पता चल गया, तो झगड़ा होगा।
लेकिन सासू मां कहती थीं, “जो होगा, मैं संभाल लूंगी।”
यह सिर्फ़ संगीत नहीं था, यह पीढ़ियों के बीच खड़ा एक भरोसा था।

गीता ने पहली बार जब भजन गाया, तो उन्हें उम्मीद नहीं थी कि लोग सुनेंगे। लेकिन हुआ उल्टा, उन्हें प्रेम मिला, सम्मान मिला।
“जब मैंने शुरुआत में गाया, तो लोगों का प्यार मिला। वहीं से मेरा हौसला बढ़ा, ”गीता कहती हैं। धीरे-धीरे सफ़र आगे बढ़ा। छोटे मंच आए, फिर बड़े मंच। गाँव से ज़िले तक, और ज़िले से राज्य तक। आज गीता पराग अकेली नहीं गातीं। उनके साथ उनकी सासू मां मंजीरा बजाती हैं, बेटी हारमोनियम संभालती है और पति टिमकी।जो पति कभी इस रास्ते के ख़िलाफ़ थे, आज वही उनके सबसे बड़े सहारे हैं। तीन पीढ़ियाँ, एक ही मंच पर, एक ही स्वर में, कबीर की वाणी गा रही हैं। गीता कहती हैं, “जब मैं अपने परिवार के साथ स्टेज पर होती हूं, तो अंदर से बहुत गर्व महसूस होता है।”
“कहे कबीर सुनो भाई साधु…” गीता की गायकी में सिर्फ़ सुर नहीं, सवाल हैं। स्त्री की आज़ादी के सवाल, परंपरा और बदलाव के बीच का संघर्ष और उस साहस की कहानी-जो चुप्पी से आवाज़ तक का सफ़र तय करता है।
वह गाँव-गाँव जाकर यही संदेश देती हैं, “अपनी प्रतिभा को दबाइए मत। उसे मौका दीजिए।” क्योंकि क्या पता जो आज छुप-छुपकर संगीत सुन रहा है, कल वही मंच पर देश-दुनिया को अपनी आवाज़ सुना रहा हो।