पाकिस्तान छोड़ेगा कभी विभाजन का बैरभाव

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पाकिस्तान छोड़ेगा कभी विभाजन का बैरभावगाँव कनेक्शन

हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सबको अचम्भे में डाल दिया अचानक पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के जन्मदिन और उनकी नातिन की शादी के मौके पर उनके घर लाहौर पहुंच कर। यदि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बिना सेना से पूछे फैसले करने लगें तो दोनों देशों का भला हो सकता है। जब अटल जी और शरीफ प्रेमभाव से लाहौर में मिले थे तब पाकिस्तानी सेना प्रमुख परवज़ मुशर्रफ के दिमाग में बैरभाव हिलोरे ले रहा था और उसका नतीजा था कारगिल युद्ध।

बैरभाव मिटने की सम्भावना तभी बनेगी जब दोनों देशों में प्रजातंत्र जीवित रहेगा। भारत में लगातार प्रजातंत्र रहा और बैरभाव मिटाने की बराबर कोशिश होती रही हैं। सब बेनतीजा रहे क्योंकि पाकिस्तान में फौजी हुकूमत रही। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में, राजीव गांधी ने 1988 में, अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 में शान्ति की चाह में पाकिस्तान का दौरा किया था। पर बैरभाव मिटा नहीं, मोदी के सामने चुनौती है बैरभाव मिटाने की। 

पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि हिन्दू और मुसलमानों के हीरो अलग-अलग हैं, उनका खान-पान और रहन-सहन अलग है इसलिए वे एक मुल्क में एक कौम की तरह नहीं रह सकते। उनका कहना था कि हिन्दू मेजॅारिटी में मुस्लिम माइनॅारिटी के हितों की रक्षा नहीं हो सकती। लेकिन मौलाना आजाद ने मुसलमानों को समझाया कि पाकिस्तान चले जाओगे तो भारत में मुसलमानों की संख्या और भी कम हो जाएगी और आवाज कमजोर हो जाएगी फिर भी पाकिस्तान जाने पर आमादा मुसलमानों ने उनकी एक नहीं मानी।

विभाजन के बाद बहुत से लोग यह पचा नहीं पाए कि दोनों सम्प्रदाय एक कौम की तरह रह सकते हैं। कुछ ऐसे ही विचारों ने प्रभावित किया होगा नेहरू को जब उन्होंने हिन्दुओं के लिए कानून बनाए, मुसलमानों के लिए कानून बनाए परन्तु भारतीयों के लिए कानून नहीं बनाए। पचास के दशक के ये वह दिन थे जब हमारा देश एक राष्ट्र के रूप में खड़ा हो सकता था। हमारे राजनेताओं ने मुसलमानों के लिए अलग बैंक बनाए, अलग वित आयोग बने, अलग कमीशन बने, नौकरियों में आरक्षण के कानून बने। सरकारों ने बड़ी मशक्कत से मुसलमानों को मुख्य धारा से अलग रक्खा। 

इसका परिणाम ठीक नहीं रहा। मुजफ्फरनगर में झगड़ा शुरू हुआ कि एक मुसलमान लड़के ने हिन्दू लडकी को छेड़ा था। यदि एक हिन्दू लड़के ने हिन्दू लड़की को या मुसलमान लड़के ने मुसलमान लड़की को छेड़ा होता तो क्या इतना ही खूनखराबा होता। लोगों ने गुनहगार को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया होता। पर पिछले 60 साल में हमारे राजनेताओं ने समाज में जिन्ना के सोच को मजबूत किया है। हमारे नेताओं ने मुसलमानों की पहचान की चिन्ता तो की है, बाकी कुछ नहीं। 

मैं समझता हूं कि नेहरू, पटेल, अम्बेडकर या लोहिया ने कभी रोज़ा इफ़्तार की रस्म नहीं निभाई होगी। रोज़ा इफ़्तार के बहाने उनके चेलों नें रमज़ान की कद्र नहीं बढ़ाई बल्कि एकमुश्त मुस्लिम वोट की चाहत बढ़ाई है। कठिनाई तब बढ़ती है जब बात-बात में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के नाम पर राजनीति होती है। राजनेताओं की सोच यह है कि हज़रत अली के जन्मदिन पर स्कूलों में छुट्टी बोल देंगे तो मुस्लिम वोट मिल जाएंगे और परशुराम के जन्मदिन पर छुट्टी बोलने से ब्राह्मण वोट मिलेंगे वर्ना पिछले 60 साल के बाद इन महापुरुषों की अचानक याद क्यों आ गई। 

सबसे पहले भारत में हिन्दू और मुसलमान के बीच की दीवार गिरनी चाहिए फिर भारत और पाकिस्तान के बीच का बैरभाव अपने आप घटेगा। पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के लोगों ने बंटवारे की दीवार खुद ही ढहा दी। जरूरत है ऐसी सहनशीलता की जिसमें होली और ईद के त्योहार कहीं भी ग़म के त्योहार न बनें, ताजि़ए और मूर्ति विसर्जन के समय रास्ते को लेकर झगड़े न हों। हिन्दू और मुसलमानों की लड़कियां और लड़के कोई गुनाह करें तो उन्हें भारतीय संविधान के हिसाब से सज़ा मिले ना कि फ़तवा, खाप या महापंचायत के हिसाब से। 

केवल भारत के हिन्दू-मुसलमानों की बात नहीं, भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश की दस हजार साल पुरानी साझा विरासत है। जब पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की तरह उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम एक देश हो सकते हैं तो कड़वाहट भुलाकर भारत और पाकिस्तान अच्छे पड़ोसी तो हो ही सकते हैं।

 

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