पांच फ़ीसदी किसानों के हाथ में देश के एक तिहाई खेत

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पांच फ़ीसदी किसानों के हाथ में देश के एक तिहाई खेतgaonconnection, पांच फ़ीसदी किसानों के हाथ में देश के एक तिहाई खेत

मुम्बई। भूमिहीन राधेश्याम (49 वर्ष) को 1990 में ज़मीनदारी खत्म करने के कानून के तहत एक ज़मीदार से लेकर आधा एकड़ ज़मीन दी गई थी। लेकिन वर्तमान में राधेश्याम एक कर्जदार किसान है जो मजदूरी करके अपना घर चलाते हैं।

राधेश्याम की मौजूदा स्थिति, अमीरों से लेकर गरीबों को ज़मीन देने के देश के 54 साल पुराने कानून की विफलता का उदाहरण है, जिससे वर्तमान में देश के लगभग पांच प्रतिशत लोगों के पास देश की लगभग 30 प्रतिशत कृषि भूमि है।

मैनपुरी जिले के बेबार गाँव के निवासी राधेश्याम को ज़मीन ग्राम सभा द्वारा दी गई थी। नए कानून के तहत जो था ‘ज़मीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था’ कानून। इस नियम के बाद हुए ज़मीनों के पुन: बटवारे से राधेश्याम के साथ-साथ देशभर के 57 लाख 80 हज़ार लोगों को लाभ हुआ था।

खेती की लागत निकालने के बाद आठ लोगों के राधेश्याम के परिवार का बस गुज़ार ही हो पाता था। लेकिन वर्ष 1995 में भारी वर्षा से उसके खेत के पास का तालाब भर गया, जिसमें ज़मीन डूब गई। राधेश्याम तब से अपने गाँव से 113 किमी दूर आगरा चले गए और वहां जो भी काम खोज पाए, करने लगे। तब से राधेश्याम का परिवार बढा तो उन्हें खर्च चलाने के लिए कर्ज भी लेना पड़ा।

वर्तमान समय में राधेश्याम कर्ज में गहरे दबे हैं और मानते हैं कि उन्हे और उनके गाँव में अन्य लोगों को जो ज़मीन ‘उत्तर प्रदेश ज़मींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950’ के तहत मिली थी, वो उनकी ज़िंदगी बदलने को बहुत कम थी। 

प्रदेशभर में राधेश्याम जैसे लगभग तीन लाख दस हज़ार लोगों को इसी व्यवस्था के तहत कुछ ज़मीन उपलब्ध कराई गई थी।

ज़मीदारी हटाने का कानून बनने के बाद पिछली लगभग आधी सदी में देश में भूमि व्यवस्था की विफलताओं में असानी से सुधार अब इसलिए नहीं संभव है क्योंकि अंतर बहुत बढ़ गया है। वर्ष 2011 की कृषि जनगणना के हिसाब से वर्तमान में देश के महज़ 4.9 प्रतिशत बड़े किसानों के कब्जें में देश की 32 फीसदी कृषि भूमि है।

ग्रामीण भारत के 56.4 प्रतिशत या दस करोड़ 40 लाख परिवारों के पास खेती की ज़मीन कतई नहीं है।

इस संवाददाता को केंद्रीय भूमि संसाधन मंत्रालय से सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत प्राप्त जवाब के आंकड़ों से स्पष्ट है कि पिछले 54 सालों में इस दिशा में जो गलती हुई है उसमें कोई सुधार नहीं होने वाला। 

आरटीआई में बताए गए आंकड़ों के हिसाब से देश में भूमिहीनों को दी जाने वाली सरकारी खेती की ज़मीन की मांप बढ़ने के बाद साल दर साल घट रही है, पिछले 13 सालों में इसमें 7.4 प्रतिशत की कमी आई है। 

वर्ष 2002 में भूमिहीन को 0.95 एकड़ ज़मीन दी जाती थी, जो 2015 में 0.88 एकड़ हो गई है।

दिसंबर 2015 तक पूरे देश में 67 लाख एकड़ ज़मीन ‘सरप्लस’ (यानि जो ज़मींदार से वापस ली जा सकती है) घोषित की गई थी; सरकार ने इसमें से 61 लाख एकड़ ज़मीन वापस ली और उसमें से 51 लाख एकड़ ज़मीन 57 लाख 80 हज़ार लोगों को बांटी।

मौजूदा स्थिति यह है कि कृषि जनगणना के हिसाब से देश के एक बड़े किसान के पास जितनी ज़मीन है वो छोटे किसान के मुकाबले 45 गुना ज्यादा है।

रिपोर्टर - सुमित चतुर्वेदी

 

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