पानी का धंधा-पानी

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पानी का धंधा-पानीगाँव कनेक्शन

जिस तरह से देश में पानी का संकट बढ़ता जा रहा है, वह खतरे की घंटी है। इससे पहले भी मैं इसी स्तंभ में कह चुका हूं कि पानी का आय़ात कोई बेहतर विकल्प नहीं है और हर इकोसिस्टम को अपने लिए पानी खुद बचाना चाहिए और वहां रहने वाले लोगों को पानी की मात्रा के हिसाब से खुद को एडजस्ट (समायोजित) करना चाहिए।

फिर भी, जिस तेज़ी से आबादी बढ़ी है और उसी तेज़ी से पानी कम हुआ। (क्योंकि हम ने पानी बचाना नहीं सीखा) जैसे दृश्य बोलीविया में, चिली में हैं वैसे ही भारत के मराठवाड़ा-बुंदेलखंड में। ट्रेन से कब तक पानी पहुंचाते रहेंगे आप? अभी स्थिति यह है कि आजादी के समय सन 1947 में 6042 क्यूबिक मीटर पानी हर व्यक्ति के हिस्से का था। यह मात्रा सन 2011 में घटकर 1545 क्यूबिक मीटर रह गया। आज की तारीख में, 1495 क्यूबिक मीटर पानी हर व्यक्ति के हिस्सा में है।

विकसित हो रहे देशों के कतार में भारत ही दुनिया का एक ऐसा देश है जहां पानी के प्रबंधन का कोई विचार नहीं है। कम से कम ठोस विचार तो नहीं ही है। इस्तेमाल में लाए जा चुके 90 फीसदी पानी को नदियों में उड़ेल दिया जाता है। सीधे शब्दों में आप इसे शहरों का सीवेज और उद्योगों का अपशिष्ट मानिए। पर्यावरण को और खुद नदी को कितना नुकसान होता है यह अलग मामला है। फिर कोई सरकार गंगा और यमुना को बचाने की कोशिशों में जुट जाती है। आंकड़े बताते हैं कि देश की बरसात का 65 फीसदी पानी समुद्र में चला जाता है।खेती के लिए सिंचाई, सिंचाई में अंधाधुंध उर्वरकों का इस्तेमाल, कीटनाशकों का छिड़काव यह सब मिलकर पीने लायक पानी को भी प्रदूषित कर देते हैं और उसे पीने लायक नहीं छोड़ते। एक मिसाल है कानपुर का। 

गंगा नदी के ठीक किनारे, कानपुर में गंगा की डाउनस्ट्रीम में जाजमऊ से आगे शेखुपूर समेत दो दर्जन गाँव ऐसे हैं जहां का पानी पीने लायक नहीं है। पानी को लेकर भारत का रास्ता एक ऐसी दिशा में बढ़ रहा है, जहां खेती की अर्थव्यवस्था भी ढह जाएगी और थर्मल हो या हाइड्रो पावर सेक्टर भी बिजली पैदा करने लायक नहीं रह पाएगा।

लेकिन, ऐसा नहीं है कि इस घटते पानी से और खराब होते पानी से किसी को फायदा नहीं है। इस संकट में भी धंधा है। आप को एक विज्ञापन याद तो होगा, एक मशहूर कंपनी का ठंडा वैसी जगह पर भी मिलता है जिस वीराने में हैंडपंप तक नहीं। जीहां, हैंडपंप हो न हो, बोतलबंद पानी हर जगह मिल जाएगा। इसमें वैसे बोतलबंद पानी निर्माता भी हैं जो नल का पानी भरकर आपको उसी कीमत पर देते हैं जिस पर बड़ी कंपनियां। बहरहाल, वो मुद्दा अलग है और उनकी औकात कोयले की खदान से साइकिल पर कोयला लाद कर ले भागे मजदूरों से अधिक नहीं।

आज की तारीख में बोतलबंद पानी का कारोबार डेढ़ सौ अरब का है। पानी का संकट बरकरार रहा या और बढ़ा (उम्मीद है कि बढ़ेगा ही) तो यह रकम भी 200 करोड़ पार कर जाएगी। भारत जैसे देश में पानी का संकट मुनाफे के धंधे में बदलता जा रहा है। आज की तारीख में यही विकास की अविरल धारा है। साल 2002 में नैशनल वॉटर पॉलिसी में सरकार ने पानी को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया। इसके तहत जल संसाधन से जुड़े प्रोजेक्ट बनाने, उसके विकास और प्रबंधन में निजी क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता खुला और उसके बाद पानी के बाज़ार में नफा कमाने की होड़ लग गई। आज भी साढ़े सात करोड़ से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध ही नहीं है। विज्ञापन कहता है एक खास आरओ ही सबसे शुद्ध पानी देता है लेकिन सच यह भी है बोतलबंद पानी में भी कीटनाशक मौजूद हैं। यह बात सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की रिसर्च में सामने आई है।

वैसे भी भारत में मानकों से किसी का कोई लेना-देना होता नहीं। सुना है जॉनसन बेबी पाउडर में भी कुछ भारी धातु मिले हैं। बोतलबंद पानी के मामले में पिछले साल मुंबई में 19 ऐसी कंपनियों पर रोक लगाई गई थी। सूखे के बीच ही एक और कड़वा सच कि एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने में पांच लीटर पानी खर्च होता है इसलिए सूखे पर रणनीति खुद अपने स्तर पर तैयार कीजिए। खुद आगे बढ़िए, अपने पड़ोसी और गाँववालों को आगे लाइए। नौकरशाह जब यह तय करते हैं कि वह अलां जगह ट्रेन से पानी भेजेंगे और फलां राज्य के नौकरशाह उसे लेने से मना कर देते हैं तो उस फैसले की घड़ी में उनके सामने बोतलबंद पानी ही होता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

 

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