पहाड़ की महिलाओं का मायका जल गया, उजड़ गया
डॉ. शिव बालक मिश्र 5 May 2016 5:30 AM GMT

जो लोग पहाड़ों पर रहे हैं या कम से कम गए हैं उन्हें जरूर पता होगा कि पहाड़ की महिलाओं का आज भी जंगलों से कितना लगाव रहता है। वे जंगलों को अपना मायका कहती हैं। वहां पर समतल जमीन नहीं है जिसमें फसलें उगाकर साल भर का अनाज भर लिया जाए, अथवा जानवरों के लिए हरा चारा उगा लिया जाए। सब्जियां भी मैदानों से जाती रही हैं और खाना पकाने की गैस या स्टोव न होने पर लकड़ियां भी जंगल देता रहा है। किसी चीज की कमी हुई वे अपने मायके यानी जंगल जाकर फल, चारा, लकड़ी, छप्पर बनाने का सामान आदि सब ले आती हैं लेकिन अब तो मायका ही उजड़ गया।
इस बात का पता लगाना आसान तो नहीं होगा कि यह सब कैसे हुआ लेकिन जिस तरह मनुष्य का लालच और ईर्ष्या उसे बर्बाद कर देता है शायद यहां भी वही हो रहा है। पहाड़ों पर चीड़ के वृक्ष लगाना क्योंकि वे जल्दी बढ़ते और लकड़ी देते हैं, अंग्रेजों ने इस लालच में देवदार हटाकर चीड़ का वृक्षारोपण सिखाया। ध्यान रहे चीड़ के पेड़ के नीचे पत्तियां बहुत कम गिरती हैं जिससे जमीन उपजाऊ नहीं बनाती। जड़ें सीधी जाती हैं इसलिए जमीन को स्थायित्व नहीं देतीं। इनमें तेल होता है इसलिए ज्वलनशील होती हैं और जानवरों के चारा के काम भी नहीं आतीं।’
ऐसा नहीं कि वहां अनाज और सब्जियां होती ही नहीं। यदि न होतीं तो हमारे देश के ऋषि मुनि वहां जाकर तप कैसे करते, जीवित कैसे रहते और वहां की जमीन देवभूमि कैसे बनी होती। उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद उत्तराखंड ने तेजी से प्रगति की है और इससे पहले पंजाब से अलग होने के बाद हिमाचल प्रदेश ने फलों के उत्पादन में नाम कमाया है लेकिन उत्तराखंड के बाद अब शिमला में भी आग की लपटें पहुंच गई हैं।
इस आग से बर्फ पिघल सकती है, पत्तियां सूख जाएंगी, मिट्टी की नमी घट जाएगी, घास सूख जाएगी और उगने में देर लगेगी और फलों की फसल का सहारा टूट जाएगा। जंगल जलने से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ेगी जिसके कारण मौसम पर बुरा असर पड़ेगा। बरसात में जब पानी बरसेगा तो वनस्पति विहीन धरती पर तेजी से बहता चला जाएगा। सूखी और वीरान जमीन को देखने सैलानी भी कम ही आएंगे इसलिए स्थानीय लोगों की जीविका के साधन भी सीमित हो जाएंगे। हम और आप यहां बैठकर पहाड़ का दर्द नहीं समझ सकते जब तक वहां के मित्रों से बात न करें।
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