फिल्मों में हो न हो दिल को अच्छी लगती हैं गज़लें

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फिल्मों में हो न हो दिल को अच्छी लगती हैं गज़लेंgaoconnection

गज़लों का जिक्र होते ही जगजीत सिंह, पंकज उधास, गुलाम अली और न कितने हर-दिल-अजीज गायकों की याद आ जाती है। एक दौर था जब फिल्मों से लेकर दोस्तों की महफिलों में एक से बढ़कर एक गज़लें पेश की जाती थीं। अब फिल्मों में वह दौर तो नहीं रहा लेकिन फिर भी गज़लें सुनकर आज भी लोगों के दिलों को सुकून महसूस होता है।

बात करें फिल्मों में गज़लों के बारे में तो वह 50-60 का दशक रहा होगा जब फिल्मों में अधिकतर गाने गज़ल हुआ करते थे। तलत महमूद, लता मंगेशकर की दिलकश आवाज और मदन-मोहन और खय्याम जैसे दिग्गज संगीतकारों की धुनों से सजी गज़लों को सुनकर श्रोताओं खो जाते थे। हालांकि 80 के दशक में डिस्को म्यूजिक की लहर में गज़ल कहीं खो सी गई। इसने दोबारा वापसी की गुलाम अली के साथ जिन्होंने फिल्म निकाह के लिए ‘चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद था’ गाया। इसे ऑडियंस ने काफी पसंद किया। उसी दौर में पंकज उधास, जगजीत सिंह और अनूप जलोटा जैसे गज़ल गायकों ने इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाई और 90 के दशक में इनकी सिंगल अलबम भी रिलीज होने लगी। उस समय पूरी-पूरी अलबम में गज़लें हुआ करती थीं।

हालांकि 90 के अंत तक आते-आते हम फिर से गज़लों से दूर होते गए और हिप-हॉप और रोमांटिक गानों का ही दौर चलने लगा। अब इंडस्ट्री में गज़लें गाने वाले गायक भी नहीं बचे। अब इक्का दुक्का ही गज़लें फिल्मों में रखी जाती हैं जैसे 2012 में फिल्म बर्फी आई थी जिसमें एक गज़ल को पेश किया गया था। फिर ले आया दिल... इसे सैयद कादरी ने लिखा था वहीं अर्जित सिंह और रेखा भारद्वाज ने गाया था। इस गज़ल को काफी पसंद किया गया था।

फिल्मों की कुछ यादगार गज़लें

  • दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या (मिर्जा ग़ालिब)
  •  न किसी की आंख का नूर (लाल किला)
  •  रंग और नूर की बारात किसे पेश (गज़ल)
  •  हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू (खामोशी)
  •  दिल ढूंढता है फिर वही (मौसम)
  •  होठों से छू लो तुम (प्रेम गीत)
  •  दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया (बाज़ार)
  •  तुमको देखा तो ये ख्याल आया (साथ-साथ)
  •  झुकी-झुकी सी नजर (अर्थ)
  •  चिट्ठी न कोई संदेश (दुश्मन)
  • फिर ले आया दिल (बर्फी)

ईरान से भारत कैसे आई थी गज़ल

तकरीबन 1000 साल से भी पहले ग़ज़ल का जन्म ईरान मे हुआ और वहां की फ़ारसी भाषा मे ही इसे लिखा या कहा गया। माना जाता है कि ये “कसीदे” से ही निकली। कसीदे राजाओं की तारीफ मे कहे जाते थे और शायर अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए शासकों की झूठी तारीफ़ करता था और विलासी राजाओं को वही सुनाता था जिससे वो खुश होते थे। ग़ज़ल पर्शियन और अरबी भाषाओं से उर्दू में आयी। ग़ज़ल का मतलब हैं औरतों से अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता हैं कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण अर्थ हैं माशूक से बातचीत का माध्यम। उर्दू के प्रख्यात साहित्यिक स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल की बडी ही भावपूर्ण परिभाषा लिखी हैं। वह कहते हैं कि, ‘जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते भागते किसी ऐसी झाड़ी में फंस जाता हैं जहां से वह निकल नहीं सकता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती हैं। उसी करूण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं।

जैसे जैसे समय बीता ग़ज़ल का लेखन पटल बदला, विस्तृत हुआ और अब तो ज़िंदगी का ऐसा कोई पहलू नहीं हैं जिस पर ग़ज़ल न लिखी गई हो।

 

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