पहले उत्तराखंड अब अरुणाचल, हो क्या रहा है

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पहले उत्तराखंड अब अरुणाचल, हो क्या रहा हैgaonconnection

नरेन्द्र मोदी जल्दी में तो हैं लेकिन हड़बड़ी में काम नहीं करते हैं, यह मोदी की कार्यशैली नहीं हैं और आरएसएस की भी नहीं जहां प्रशिक्षण पाया है। आखिर किसने उत्तराखंड और अरुणाचल में हड़बड़ी में काम कराया कि मुंह की खानी पड़ी। हड़बड़ी और उतावलापन चाहे जिसने दिखाया हो जिम्मेदारी तो प्रधानमंत्री को ही लेनी होगी।

आज जो सरकार चला रहे हैं ये वही लोग हैं जो बात-बात में बोमई प्रकरण का हवाला देते रहे हैं और राज्यपाल के पद के दुरुपयोग का मसला भी उठाते रहे हैं।लगता है भारत को कांग्रेस मुक्त करने में उतावलापन हो रहा है जो बूमरैंग करेगा और शर्मिन्दगी झेलते रहेंगे।

अदालतों के साथ सरकारों का टकराव होता रहा है और कभी इनकी चली और कभी उनकी। चिन्ता का विषय यह नहीं है कि अदालत ने सरकारी फैसले को उलट दिया बल्कि चिन्ता इस बात की है यदि संविधान बदलने की ताकत हो सरकार में तो क्या वह अदालत को उलट देगी? प्रजातांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार को बर्खास्त करने का अधिकार राज्यपाल का नहीं है, यह हमेशा के लिए तय हो चुका है। तब उत्तराखंड और उत्तरांचल के मामलों में बोमई प्रकरण की नज़ीर को क्यों नहीं माना गया, यह सरकार को पता होगा।

नरेन्द्र मोदी की कार्य शैली कामराज नादर जैसी लगती थी जो साठ के दशक में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे और बागी कांग्रेसियों को किनारे किया था “कामराज प्लान” के अन्तर्गत। वह तुरन्त फैसला नहीं करते थे, तमिल में कहते थे “पारकलाम” यानी देखेंगे। वह कक्षा सात पास थे और उनके निर्णय कठोर और दूरगामी होते थे। मंत्रियों की डिग्रियां देखने वालों के लिए एक उदाहरण है। 20 मोदी ने अपनी कैबिनेट को तीन बार फेंटा है शायद एक बार फिर से रीशैफ़ल करना पड़े। 

किसी भी देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था के तीन परस्पर पूरक अंग होते हैं, विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। कठिनाई तब आती है जब विधायिका और न्यायपालिका में टकराव होता है। इन्दिरा गांधी का टकराव न्यायपालिका से 1975 में हुआ था। आपातकाल लगा और खामियाज़ा आम आदमी को भरना पड़ा।

राजीव गांधी की सरकार ने अस्सी के दशक में अदालत का निर्णय उलट दिया तो समान नागरिक संहिता की एक अच्छी शुरुआत होते-होते रह गई। अभी तक मोदी ने अदालती फ़ैसले का उलट नहीं किया है या उलट नहीं सकते। 

सरकार के उतावलेपन का एक उदाहरण तब सामने आया था जब जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया पर देशद्रोह का मामला चलाया था। काफ़ी बहस छिड़ी थी संसद और संसद के बाहर। कानून उल्लंघन, उपद्रव और देशद्रोह में अन्तर करना ही चाहिए था। उसे जमानत मिल गई सरकार की किरकिरी हुई। मोदी से बेहतर कोई नहीं जानता कि सरकारी निर्णय आवेश में नहीं होते, सरकार में बैठे हुए उन लोगों को पहचानना होगा जो आवेश में निर्णय करा रहे हैं।

यह हमारे देश का दुर्भाग्य होगा यदि पारदर्शी ढंग से काम करने की कोशिश कर रहीं सरकार अनुभव की कमी और उतावलेपन के कारण अदालत से टकराए और चली जाए। हम शुभकामना ही दे सकते हैं कि भगवान इन्हें सदबुद्धि दे। 

 

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