दिल्ली की देहरी : रेल की पटरियों के साथ पनपी दिल्ली

Nalin ChauhanNalin Chauhan   30 Sep 2017 2:51 PM GMT

दिल्ली की देहरी : रेल की पटरियों के साथ पनपी दिल्लीदिल्ली की देहरी।

ब्रिटिश जमाने में एक लंबे कालखंड (1857-1911) में दिल्ली शहर विध्वंस का गवाह बना। इसके बाद ही रेलवे के आगमन के साथ यहां कई भवनों का निर्माण हुआ। दस्तावेजों के मुताबिक़ शहर के पश्चिम की दिशा के भू-भाग में स्थानीय जनता की भलाई के लिए विकास के गंभीर कुछ प्रयास किये गए। लिहाजा, तत्कालीन सरकार ने अपनी सेना और प्रशासन के गोरे कर्मचारी और अफसरानों के लिए घर, कार्यालय, चर्च, बाजार बनाए।

इस तरह देखते ही देखते शाहजहांनाबाद के परकोटे की दीवार से बाहर गोरों की आबादी वाला नया शहर दिल्ली के नक़्शे उभरकर सामने आया। जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के हिसाब से यह एक महत्वपूर्ण काल था। ख़ास बात यह भी है कि 1911 में जब देश की राजधानी कोलकता से दिल्ली लायी गयी, तब भी अंग्रेजों ने बड़ी इमारतों, रिहायशी मकानों के अलावा दफ्तरों का एक नए सिरे से एक नए नगर योजना बनाई।

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वैसे तो 1860 के बाद से ब्रितानी सरकार ने शहर का पुनर्निर्माण शुरू कर दिया था और इसी प्रक्रिया में दिल्ली के रूप-स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिला। इस मामले में सबसे रोचक तथ्य यह है कि 1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को ध्यान में रखते हुए ही अंग्रेज़ सरकार ने शहर के विकास की योजना का खाका तैयार किया।

प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कोई चार साल बाद (1861), रेलवे लाइन बिछाने की योजना के तहत लाल किले के कलकत्ता गेट सहित कश्मीरी गेट और मोरी गेट के बीच के इलाके को ध्वस्त कर दिया। 1857 की घटना अंग्रेजों ने यह सबक सीखा कि दिल्ली की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है और उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। ग़दर में हाथ जला चुकी ब्रिटिश सरकार भविष्य में भारतीयों की ओर से दोबारा किसी भी तरह के बगावत की चिंगारी को आसानी से सुलगने नहीं देने की मंशा को लेकर पूरी सुरक्षा की जांच के बाद कलकत्ता गेट के स्थान को समेटते रेलवे पटरी बिछाई गयी।

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वैसे तो अंग्रेज सरकार के कई अधिकारी दिल्ली में रेलवे के पक्ष में इस वजह से नहीं थे क्योंकि वे दिल्लीवालों को आजादी के पहले आंदोलन में भाग लेने की मुकम्मल सजा देना चाहते थे। भारत के आधुनिक जमाने के प्रारंभिक बंदरगाह वाले शहरों के योजनाकार मिटर पार्थ (1640-1787) ने लिखा है कि अंग्रेजों ने भारतीय शहरों की प्रकृति, भारतीयों के अंग्रेजों की गुलामी के विरूद्व दोबारा संघर्ष का बिगुल बजाने के भय और शहरों में नए निर्माण के लिए जगह बनाने के लिए पुराने शहर के केंद्रों को ध्वस्त करने की बातों को ध्यान में रखते हुए अपनी नीति में योजना और डिजाइन का पालन किया।' रेलवे के निर्माण का मुख्य मक़सद था भविष्य में भारतीयों की सशस्त्र चुनौती से निपटने के लिए ब्रितानी सेना को आसानी से दिल्ली पहुंचाया जा सके।

1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद दिल्ली के विकास और नगर-योजना के नक़्शे (ब्लू-प्रिंट) पर गौर करें तो यह बात समझ में आती है कि दिल्ली की सुरक्षा को अपनी योजना को केंद्र में रखकर मेरठ में एक अंग्रेज छावनी बनायी गई क्योंकि वहाँ से अंग्रेज सेना आसानी से दिल्ली तक पहुंच सकती थी। इसके लिए रेलवे लाइन मेरठ, गाजियाबाद, लोनी, सीलमपुर से होते हुए दिल्ली तक बिछाई गई। रेलवे लाइन के लिए पूर्वी रेलवे ने 31 एकड़ जमीन अधिग्रहित की, जिसके बदले में मुआवजे में केवल 166 रुपए की राशि दी गई।

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साल 1860 में, रेलवे पटरी बिछाने के मंसूबे से दिल्ली में भूमि अधिग्रहण हुआ। यमुना नदी पर एक लोहे का पुल बनाया गया, जो कि दिल्ली को मेरठ से जोड़ता था। ईस्ट इंडियन रेलवे के बनाए इस लोहे के पुल के विषय में जी‐डब्ल्यू‐मैकजॉर्ज ने “वेएस एंड वर्क इन इंडिया” में लिखा है कि हस पूरे पुल को बनाने में 16,66,000 रूपए की लागत आई। वर्ष 1866 के अंत में यह पुल यातायात के लिए खोल दिया गया। इस तरह, आखिरकार कलकत्ता और दिल्ली के बीच रेल यातायात का मार्ग पूरा हो गया।

तब तक दिल्ली एक व्यावसायिक शहर बन चुका था। रेलवे के कारण परिवहन में तेजी आने के साथ शहर में पर्यटन में उत्साहजनक वृद्वि हुई। दिल्ली में होटल, नई सड़कों और भवनों के निर्माण के कारण उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य भारत से श्रमिकों की आवक बढ़ी। बाहर से आने वाले मजदूर शहर के परकोटे की दीवार से बाहर शाहदरा और पहाडगंज इलाकों में पसरी हुई बंजर-बेकार और खाली भूमि में अपना बसेरा बनाया, या बने-बनाये बसेरों में रहने लगे ।

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वर्ष 1870 के बाद शहर के विकास का जो दौर शुरू हुआ वह आम जनता के लिए सार्वजनिक सुविधा से बिलकुल न होकर रेलवे से संबंधित था। इस दौरान भूमि का जबरन अधिग्रहण किया गया और वहां रहने वाले भारतीयों को मुआवजा स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया। हद तो तब हो गयी जब अपनी जमीन वापस पाने के लिए अपील करने का अधिकार भी आम जनता के पास नहीं था। दुःख की बात यह है कि अधिग्रहित भूमि बंजर न होकर उपजाऊ भूमि थी, जहां मीठे और रसदार फलों के बागान थे।

दुविधाओं के बीच पसरता गया शहर का दायरा

1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद उत्तर भारत के विकास की बनी योजनाओं में विद्रोह से आतंकित हो चुके ब्रिटिश अंतर्मन का प्रभाव दिख रहा था। जब दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विकास के इसी दौर में, सदर बाजार एक व्यावसायिक बाजार के रूप में विकसित हो चुका था। यह बाज़ार रेलवे स्टेशन के काफी करीब है मगर यह पूरा क्षेत्र बुनियादी सुविधाओं से वंचित था, जबकि सदर बाजार से अंग्रेज सरकार को कर के रूप में सबसे अधिक आमदनी हो रही थी।

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उधर पूर्वी दिल्ली भी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के प्रवासियों के वहां पर बसने के कारण एक घनी आबादी वाला क्षेत्र बन गया। इस इसलिए भी हुआ क्योंकि ब्रितानी सरकार को रेलवे कंपनियों में काम करने के लिए श्रम मजदूरों की आवश्यकता थी। इतना ही नहीं, रेलवे लाइनों का भी विस्तार हो रहा था। अब दिल्ली में रेलवे की तीन लाइनें थीं और चौथी निर्माणाधीन थी, जिससे करनाल, अम्बाला और शिमला को जुड़ना था। दिल्ली शहर के विकास से लोगों के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे थे। रेल कंपनियों को शहर में रेल लाइनों को बिछाने के लिए मजदूरों की जरूरत थी। इसी कारण काम की तलाश में संयुक्त प्रांत, राजस्थान और मध्य भारत से मजदूर यहां पहुंचने लगे।

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सरकार ने पंजाब की ओर जाने वाली एक और रेलवे लाइन बनाई। क्योंकि अंग्रेजों के लिए पंजाब अत्यंत महत्वपूर्ण था। दिल्ली का राजकाज पंजाब से चलता था और उत्तर में अंबाला सबसे बड़ी ब्रितानी छावनी था, जहां से किसी संकट की स्थिति में ब्रितानी सरकार की वफादार सिख रेजिमेंट सहजता से दिल्ली पहुंच सकती थी। वर्ष 1872 में ब्रितानी सरकार ने पंजाब की ओर जाने वाली इस रेलवे पटरी बिछाने के लिए अधिग्रहित ज़मीन राजपूताना स्टेट रेलवे को दे दिया। इसके लिए पश्चिमी जमुना नहर, रोहिल्ला खान, नारायणा, नांगल राय, पालम और बिजवासन के समानांतर वाली 136 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया। अंग्रेज सेना के उपयोग के लिए दो नई रेल लाइनें भी शुरू की गई। इस कदम से शहर को परोक्ष रूप से फायदा मिला और दिल्ली पर्यटन और कारोबार के हिसाब से एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया।

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शहर के योजनाकारों के सामने चुनौतियां थी और साथ में कई दिक्कतें भी आईं। आरंभिक चरण में मूल रूप से ऐसी योजना थी कि राजपूताना रेलवे प्राधिकरण मोरी गेट में शहर के वर्तमान प्रवेश द्वार पर एक स्थान पर रेलवे के ऊपर एक पुल बनाएगा। रेलवे के इंजीनियरों का मानना था कि यहां पर किसी भी कीमत पर क्रॉसिंग पुल बनाना संभव नहीं है। जबकि म्यूनिसिपल कमेटी का मानना था कि यह सड़क बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे शहर का उत्तर भाग दक्षिण के छोर से जुड़ जाएगा। कश्मीरी गेट से निकलने वाली इस सड़क को चांदनी चैक से जोड़ने की योजना थी, जिसे आखिरकार बनाया गया। लाहौर गेट के बाहर रेलवे स्टेशन के निर्माण के साथ ही ने एक और समस्या पैदा हो गई क्योंकि म्यूनिसिपल कार्पोरेशन का मानना था कि इस रेलवे स्टेशन से शहर के पश्चिम में अत्याधिक भीड़ हो जाएगी। शहर के निवासियों के यहां से हटने की थोड़ी बहुत संभावना भी नहीं थी क्योंकि वे पहले से ही यहां अपना धंधा पानी जमा चुके थे।

इसमें कोई दो राय नहीं कि यहां रहने वाले भारतीय परिवहन के नए साधन रेलवे के पक्ष में तो थे लेकिन अपने विस्थापन की कीमत पर वह नगर विकास होने देना नहीं चाहते थे। क्योंकि कारोबारी तबका केवल अपनी निजी हित को पूरा करने के लिए ज़िद्द पर अड़ा था। जबकि कारोबारियों की इच्छा के ठीक विपरीत, म्यूनिसिपल कार्पोरेशन इस स्थान को भीड़भाड़ रहित बनाने के हिसाब से भारतीय कारोबारियों को यहां से स्थानांतरित करने के पक्ष में थी।

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ध्यान देने की बात यह है कि अंग्रेज सरकार 1857 में हुए प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को भूली नहीं थी। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उसने कटरा नील की ओर शहर के विस्तार के विचार का छोड़ दिया गया। अब शहर का विस्तार परकोटे की दीवार को हटाकर ही संभव था लेकिन स्थानीय अंग्रेज सैनिक अधिकारी इस निर्णय से खुश नहीं थे। उनका मानना था कि इस ऐतिहासिक महत्व की दीवार का संरक्षण किया जाना चाहिए। सैन्य विभाग ने अनेक बार शहर की परकोटे की दीवार को हटाने के प्रस्तावों को अस्वीकृत किया क्योंकि इस विषय में निर्णायक फैसला अंग्रेज सेना के हाथ में ही था।

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