पंजाब और हरियाणा में ‘जलयुद्ध’

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पंजाब और हरियाणा में ‘जलयुद्ध’Gaon Connection

अमित शुक्ला 

चंडीगढ़। पंजाब में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक बार फिर हरियाणा और पंजाब के बीच राजनैतिक ‘जलयुद्ध’ छिड़ गया है। जिसमें सियासी फायदा बेशक किसी भी दल को हो लेकिन, नुकसान सिर्फ किसान का ही होगा। चाहे वो पंजाब का अन्नदाता हो या फिर हरियाणा का। राजनैतिक द्वंद में पिसना सिर्फ और सिर्फ किसान को ही है। सालों से सुप्रीम कोर्ट में चल रहा ये मसला अब प्रधानमंत्री के दरबार तक पहुंच चुका है। लेकिन, दिलचस्पम बात ये है कि ‘जलयुद्ध’ के रण में दोनों छोरों पर बीजेपी ही आमने-सामने है।

सतलुज-यमुना लिंक नहर यानी एसवाईएल का ये मसला साल 1970 से राजनीति का ध्रुवीकरण करता आ रहा है। मौजूदा वक्तक में पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी गठबंधन वाली बादल सरकार ने विधानसभा में एसवाईएल डिलिमिटेशन बिल पास कर साफ कर दिया है कि वो हरियाणा को पंजाब के हिस्सेम का एक भी बूंद पानी नहीं देगा। पंजाब के सभी दल इस बिल के समर्थन में हैं। यानी अकाली दल और बीजेपी के अलावा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भी ये कहती है कि पंजाब का पानी दूसरे राज्योंप को ना दिया जाए। वहीं दूसरी ओर हरियाणा के रण पर खड़े सभी राजनैतिक दल पंजाब सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। चाहे वो बीजेपी हो या फिर कांग्रेस या फिर इंडियन नेशनल लोकदल। हरियाणा के मुख्य मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने पंजाब सरकार के इस फैसले को संघीय ढांचे पर हमला बताया है। मनोहर लाल खट्टर का कहना है कि पंजाब सरकार का ये फैसला असंवैधानिक है। खट्टर ने पंजाब और हरियाणा के राज्यापाल कप्ता न सिंह सोलंकी से मिलकर इस फैसले को पारित ना करने की गुहार लगाई है।

उधर, पंजाब के मुख्येमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने ना सिर्फ एसवाईएल डिलिमिटेशन बिल पास कर ये कह दिया है कि वो एसवाईएल नहर के लिए अधिग्रहीत की गई जमीन किसानों को वापस लौटाएंगे बल्कि उसने कोई पैसा भी नहीं लेंगे। सरकार के इस फैसले के बाद से पंजाब के हिस्सेि में एसवाईएल नहर को पाटने का काम भी शुरु हो गया है। पंजाब सरकार की कैबिनेट ने एसवाईएल नहर के निर्माण में खर्च हुए हरियाणा के पैसों को भी लौटाने का फैसला किया है। पंजाब सरकार इसके लिए हरियाणा सरकार को 300 करोड़ रुपए देगी। लेकिन, हरियाणा सरकार के मंत्री अनिल विज का कहना है कि उन्हें  पैसे नहीं बल्कि पानी चाहिए। जो किसी के बाप का नहीं है।

ये विवाद पर अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दरबार में भी पहुंच गया है। हरियाणा से बीजेपी के सांसदों ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर पंजाब के रुख पर अपनी नाराजगी जताई और प्रधानमंत्री से दखल देने की मांग की। बीजेपी सांसद रमेश कौशिक ने बताया कि सभी सांसदों ने प्रधानमंत्री को बताया कि जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है तो फिर कैसे पंजाब विधानसभा से एसवाईएल डिलिमिटेशन बिल पारित किया गया। जो सरासर गैरकानूनी है। कौशिक ने बताया कि बताया कि उन्हेंट प्रधानमंत्री ने भरोसा दिया है कि वो इस मामले को खुद देखेंगे। जबकि इंडियन नेशनल लोकदल के नेता अभय चौटाला का कहना है कि बीजेपी इस पूरे मामले में सिर्फ राजनीति कर रही है। हरियाणा से बीजेपी के आठ सांसद हैं। लेकिन, एक बार भी ये मामला उनकी ओर से संसद में नहीं उठाया गया। पंजाब में भी अकाली और बीजेपी का गठबंधन है। जनता सब देख रही है। अभय चौटाला का कहना है कि वो हरियाणा के हितों के लिए सरकार की हर संभव मदद के लिए तैयार हैं। एसवाईएल के मसले पर भी वो सरकार के साथ हैं। बशर्ते काम हो राजनीति नहीं।

समझिए क्या  है सतलुज-यमुना लिंक नहर यानी एसवाईएल का विवाद ?

पंजाब और हरियाणा के बीच चल रहे ‘जलयुद्ध’ की जड़े 1947 में शुरु हुए भारत-पाकिस्तान के जल बंटवारे से जुड़ी हैं। 1947 में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के दौरान पंजाब भी बंट गया था। सतलुज, रावी, चिनाब और झेलम जैसी नदियों के पानी पर दोनों देशों में विवाद हो गया था। बाद में भारत के लिए भाखड़ा डैम और पाकिस्तान के लिए मंगला डैम का हल निकाला गया। आखिर में दोनो देशों के बीच साल 1960 में इंडस वाटर ट्रीटी हुई। इस समझौते के तहत इंडस नदी, चिनाब और झेलम पूरी तरह से पाकिस्तान को दी गई। जबकि सतलुज, रावी और ब्यास पर भारतीय पंजाब की मालकियत मानी गई। बाद में पंजाब का पानी राजस्थान को भी दिया जाने लगा। 1 नवंबर 1966 को पंजाब पुनर्गठन एक्ट के तहत हरियाणा और हिमाचल अलग प्रदेश बन गए। बाद में केंद्र सरकार ने भाखड़ा, ब्यास मैनेजमेंट बोर्ड (बीबीएमबी) का गठन किया। 1970 में तत्त्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फैसला लेते हुए पंजाब को कहा कि वो सतलुज-यमुना लिंक नहर के जरिए सरप्लस पानी हरियाणा को दें। तब पंजाब में कांग्रेस की सरकार थी और दरबारा सिंह मुख्यमंत्री थे। 1981 में इंदिरा गांधी ने पटियाला के गांव कपूरी में सतलुज जमुना लिंक नहर के निर्माण का शिलान्यास करवाया। पंजाब की सियासी पार्टियों ने इसका जबरदस्त विरोध किया और अकालियों और वामपंथियों ने मिलकर मोर्चा लगा दिया। जो आगे चलकर धर्मयुद्ध मोर्चे में बदल गया। 1984 के बाद पंजाब के हालात और खराब हो गए। पंजाब में ये मामला लोगों के भावनाओं से जुड़ गया लेकिन इसके बावजूद नहर का निर्माण जारी रहा। बरनाला सरकार जिसमें कैप्टन अमरेंदर सिंह मंत्री थे, उसके कार्यकाल के दौरान भी निर्माण जारी रहा लेकिन 23 जुलाई 1990 में एसवाईएल नहर पर चल रहे काम को रूकवाने के लिए खालिस्तानी आंतकियों ने दो प्रमुख इंजीनियरों का कत्ल कर दिया, जिसके बाद काम रूक गया। उस वक्तस के बाद से ये मामला अदालती और सियासी लड़ाई में ही उलझा हुआ है। हरियाणा की दलील है कि हरियाणा सिंधू बेसन का है। इसलिए पंजाब के पानी पर उसका हक है। लेकिन, पंजाब कहता है कि हमारी दरिया में सरप्लस पानी नहीं है। अगर केंद्र सरकार जबरदस्ती। पंजाब के हिस्सेक का पानी हरियाणा को देता है तो पंजाब के मालवा प्रांत का बड़ा हिस्सा सूखे में तब्दील हो सकता है। जिस वक्त पंजाब में कैप्टन अमरेंदर सिंह मुख्यमंत्री हुआ करते थे उस वक्त भी जल समझौते को रद्द करने वाला कानून विधानसभा से पास किया गया था। जिसमें दलील दी गई थी कि अब पंजाब के पास सरप्लस पानी नहीं है। 1947 में सरप्लस पानी हुआ करता था।  

जानिए कितनी जमीन में और कितनी लंबी बननी थी नहर ?

214 किलोमीटर का सफर तय कर हरियाणा के खेतों तक पहुंचने वाली एसवाईएल नहर के निर्माण के लिए किसानों की 5376 एकड़ जमीन अधिग्रहीत की गई थी। हरियाणा में इसके निर्माण का काम पूरा हो चुका है। पंजाब में इस नहर का 120 किमी के करीब का क्षेत्र पड़ता है। जिसका 90 फीसदी काम पूरा हो चुका था। लेकिन, अब नहर को दोबारा से मिट्टी डालकर कर पाटा जा रहा है।

 

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