प्रोडक्ट पर लेबल का खेल

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प्रोडक्ट पर लेबल का खेलgaonconnection

हिन्दुस्तानी उपभोक्ताओं के बीच पैकेज़्ड फूड की मांग दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। आप किसी भी शॉपिंग मॉल, डिपार्ट्मेंटल स्टोर या घर के नजदीक किराना स्टोर पर जाएं, पैकेज़्ड फूड ने हर तरफ पैर पसारे रखा है। एक ही पैकेट में संपूर्ण सेहत या पोषक तत्वों की भरमार जैसे दावों के साथ ऐसे उत्पाद खूब बेचे जा रहे हैं। खाद्य पदार्थों और पैकेज़्ड फूड तैयार करने वाली कंपनियां बेहतर सेहत के लिए नित नए दावों के साथ उपभोक्ताओं को अपनी ओर रिझाने का भी खूब प्रयत्न कर रही हैं।

जिन दावों के साथ उत्पादों को बाजार में बेचा जाता है अक्सर इनमें से कई दावे खोखले साबित होते हैं और ऐसे में उपभोक्ता ठगा हुआ सा महसूस करता है। अपनी सेहत की परवाह करने वाला उपभोक्ता सेहत की बेहतरी के लिए दावों से भरपूर उत्पादों को खरीदकर आजमाता तो जरूर है और जब परिणाम अनुकूल नहीं मिलते तब अपने आप को छ्ला सा महसूस करता है। ऐसी स्थिति में खाद्य और औषधि प्रशासन जैसे विभाग की जिम्मेदारी बन जाती है कि इस तरह के उत्पादों पर रोक लगाए, ना सिर्फ रोक अपितु ऐसे विक्रेताओं और कंपनी के मालिकों को सजा भी मिलनी चाहिए।

उत्पादों के डिब्बों या पैकेट पर लिखे गए दावों पर नज़र रखने के लिए एफडीए (फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) ने अपनी नियमावली और शर्तें भी तय कर रखी हैं जिसका उल्लंघन किसी को भी जेल की सलाखों के भी दर्शन करा सकता है लेकिन सवाल है कि सिर्फ नियम-कानून से ही छलावों पर काबू पाया जा सकता है या कार्यवाही ज्यादा जरूरी है? बाजार बिकने वाले अनेक खाद्य पदार्थों पर दर्शाए गए लेबल जैसे “ओमेगा-3 एस के साथ”, “एंटीऑक्सीडेंट्स का अच्छा स्रोत”, “फाईबरयुक्त उत्पाद”, “मेड विथ होल ग्रेन”, “लो फैट उत्पाद”, “प्राकृतिक”, “लाइट”, “जीरो ट्रांस फैट”, “ऑर्गेनिक”, “ऑर्गेनिक पदार्थों से बना”, “कोलेस्ट्राल फ्री”, “होल व्हीट”, “मल्टी ग्रेन” और “लो सोडियम” हैं क्या? और क्या इनके शाब्दिक अर्थ हैं, कोई बताने वाला माई-बाप नहीं है। तो फिर इन लेबल्स के बारे में सामान्य लिखे पढ़े उपभोक्ता को कौन बताएगा? इन दावों पर किसी एजेंसी की पैनी नज़र होना जरूरी है।

खाद्य पदार्थों पर लेबल के संदर्भ में दो पहलू हैं एक तो यह कि लेबल पर सही जानकारियों को लिखकर उत्पाद के गुणों को कम शब्दों के जरिए लोगों तक पहुंचाने में मदद मिलती है वहीं दूसरा पहलू यह है कि कंपनियों को अपने उत्पादों को बाजार में ज्यादा से ज्यादा मात्रा में बेचने के लिए लेबल के तौर पर नए तरह के औजार मिल गए हैं। वैसे तो हिन्दुस्तान में उत्पादों पर लगने वाले लेबल या दावों को मुख्य तौर पर खाद्य अपमिश्रण अधिनियम- 1954 (प्रिवेन्शन ऑफ फूड एडल्ट्रेशन) के तहत निगरानी में रखा जाता है। इस अधिनियम के तहत मुख्य तौर पर उत्पादों के लेबल पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है जबकि उत्पाद के स्वास्थ्य और पोषक गुणों पर उतना गौर नहीं फरमाया जाता है।

हालांकि इस अधिनियम में तार्किक परिवर्तन करके पैकेजिंग और लेबलिंग को खाद्य अपमिश्रण अधिनियम के सातवें हिस्से में तय किया गया कि उत्पादों की सामान्य जानकारी के अलावा इसके स्वास्थ्य और पोषक गुणों की जानकारी लेबल पर देना अनिवार्य है। सन 2006 में पारित खाद्य सुरक्षा और स्तर कानून यानी फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड एक्ट (एफएसएसए) के तहत भी इस तरह की जानकारियों को विधिवत उत्पाद के पैकेट पर देना अनिवार्य किया गया है। एफएसएसए के चौथे अध्याय के 23 वें पैराग्राफ पर स्पष्ट तरीके से लिखा गया है कि कोई भी व्यक्ति या कंपनी किसी भी खाद्य उत्पाद को बाजार में व्यापार करते हुए बेचती है तो उन्हें लेबल पर खाद्य सुरक्षा के हिसाब से उत्पाद की गुणवत्ता के हिसाब से सारी जानकारियों को लिखा जाना जरूरी है अन्यथा इसका पालन नहीं करना एक अपराध की श्रेणी में आता है।

मजे की बात है ये है कि विदेशों से आयात होने वाली चॉकलेट और डेयरी प्रोडक्ट्स के पैकेट्स पर वहा‍ं की स्थानीय भाषा लिखी होती है जो भारतीय बाजार में धड़ल्ले से बेची जाती है। उदाहरण के तौर पर अरब देशों से आने वाली चॉकलेट पर अक्सर ऊर्दू या अरबियन भाषा में जानकारियां लिखी होती हैं। ऐसे उत्पादों को खरीदते समय ग्राहक किसी भी सूरत में उत्पाद के पदार्थों और अन्य जानकारियों को समझ नहीं पाता है। इंडोनेशिया जैसे देश के एफडीए ने तो ऐसे उत्पादों को पूरी तरह से गैर कानूनी माना है और कानून के अनुसार इंडोनेशिया में बिकने वाले किसी भी पैकेज़्ड फूड पर इंडोनेशिया की स्थानीय भाषा में ही जानकारी होना अनिवार्य है। हमारे देश में क्या कोई ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? सरकारी एजेंसी के अलावा आम जनता का जागरूक होना भी बेहद जरूरी है।

(लेखक हर्बल विषयों के जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।) 

 

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