देहरादून (भाषा)। उत्तराखंड में मोदी लहर ऐसी सुनामी बनकर आयी कि कांग्रेस का पहले से कमजोर पड़ा वृक्ष एक झटके में ही उखड़ कर धराशायी हो गया। राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पांच भारी-भरकम रैलियों ने प्रदेश में चुनावी समर की फिजा ही बदल दी, जिसमें भाजपा ने 69 में से 56 सीटें अपने नाम कर एक नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। पंजाब में जहां कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने एक शानदार जीत हासिल की वहीं मुख्यमंत्री हरीश रावत उत्तराखंड में ऐसा करिश्मा दिखाने में नाकामयाब रहे।
कांग्रेस के इस खराब प्रदर्शन का दोष दो साल पहले रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद से कांग्रेस में बगावतों के चले कई दौरों को भी दिया जा रहा है जिसमें पार्टी के कई दिग्गज नेता एक के बाद एक पार्टी को अलविदा कह गये। इन नेताओं के जाने से जहां कांग्रेस कमजोर हुई वहीं उनके भाजपा में शामिल होने से उसे एक नई मजबूती मिल गयी।
भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस के 12 दिग्गज नेताओं ने भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा जिसमें 10 ने शानदार जीत हासिल की। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने खुद के बदले अपने पुत्र सौरभ को सितारगंज से चुनाव लड़ाया और उसे भी 28450 मतों के भारी अंतर से जीत हासिल हुई। चुनाव से ठीक पहले भाजपा में आये पूर्व कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य ने भी अपने पुत्र संजीव को नैनीताल से चुनावी समर में उतारा और उन्हें भी 7247 मतों से अच्छी जीत हासिल हुई।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय भी अपनी पार्टी के नेताओं की बगावत का शिकार हो गये और सहसपुर से 18863 मतों से चुनाव हार गये। चुनावों में मिली इस हार की जिम्मेदारी हालांकि, मुख्यमंत्री रावत ने बड़ी साफगोई से अपने उपर ले ली और कहा कि उनके नेतृत्व में ही कुछ खामियां रही होंगी जिसकी वजह से उनकी पार्टी का विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन खराब रहा।
इन चुनावों में कांग्रेस केवल 11 सीटों तक ही सिमट गयी। मुख्यमंत्री रावत खुद दो सीटों, हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा से चुनाव हार गये।
कांग्रेस में बगावत का दौर हालांकि, वर्ष 2012 में विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही शुरु हो गया था। उस वक्त मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में श्रम राज्य मंत्री रहे हरीश रावत ने बगावती तेवर अपनाते हुए पार्टी के इस फैसले के विरोध में पार्टी छोडने तक की धमकी दी थी। हालांकि, तब कांग्रेस आलाकमान ने रावत के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की बल्कि उन्हें शांत करने के लिये कैबिनेट मंत्री के रुप में प्रोन्नत करते हुए जल संसाधन विकास मंत्रालय सौंपा था।
जल संसाधन मंत्री बनते ही रावत ने बहुगुणा के खिलाफ एक बार फिर मोर्चा खोला और उन्हें 2014 में सत्ता से बाहर कर दिया और स्वयं मुख्यमंत्री बन गये। एक फरवरी, 2014 को उनके मुख्यमंत्री बनते ही कांग्रेस के दिग्गज नेता और उनके धुर विरोधी सतपाल महाराज ने पार्टी छोड दी और भाजपा का दामन थाम लिया। हालांकि, महाराज के जाने के बाद पार्टी को लगे एक बड़े झटके के बावजूद रावत ने पार्टी में मौजूद अन्य नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार करते रहे जो असंतोष के रुप में पनपता रहा।
पिछले साल मार्च में यही असंतोष एक नई बगावत के रुप में सामने आया जिसमें 10 वरिष्ठ विधायक पार्टी का साथ छोड़ गए और भाजपा में शामिल हो गये। इससे पार्टी अभी उबर भी न पायी थी कि ठीक चुनाव से पहले कांग्रेस के एक और दिग्गज नेता यशपाल आर्य अपने पुत्र संजीव के साथ पार्टी को अलविदा कहते हुए भाजपा में चले गये। इन नेताओं के भाजपा में जाने के बाद कांग्रेस पूरी तरह से कमजोर पड़ गई। प्रदेश अध्यक्ष उपाध्याय ने भी यह स्वीकार किया कि इन नेताओं के जाने से कांग्रेस की स्थिति कमजोर हुई और पार्टी को चुनावों में इसका खामियाजा उठाना पड़ा।