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कोराना महामारी के समय आपदा की दोहरी मार झेल रहा असम, बाढ़ और भूस्खलन से 35 लाख लोग प्रभावित, लगभग 100 की मौत

हर साल मॉनसून के दौरान असम में बाढ़ आती है। लेकिन इस साल यह संकट और बढ़ गया है, क्योंकि राज्य कई आपदाओं से एक साथ जूझ रहा है। राज्य में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, जबकि तिनसुकिया में तेल के कुएं में 9 जून से लगी हुई आग अब तक नहीं बूझ पाई है। वहीं कई जगहों पर भूस्खलन के मामले में भी सामने आए हैं।

– अमरज्योति बरूआ

पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला असम इस समय आपदा की दोहरी मार झेल रहा है। लगातार हो रही बारिश से असम के कई जिलों में भारी बाढ़ आ गई है। बाढ़ से अब तक 76 लोगों की मौत हो चुकी है। असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (ASDMA) के अनुसार असम में बाढ़ से 28 जिलों के 3,014 गांव बुरी तरह प्रभावित हैं।

कुल मिलाकर देखा जाए तो बाढ़ में अब तक कुल 35,75,832 लोग और 1,27,955 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। वहीं 12,55,102 बड़े जानवर, 6,52,552 छोटे जानवर और 12,40,479 मुर्गियां भी इसकी चपेट में आ चुकी हैं। प्रभावित जानवरों में अधिकतर काजीरंगा नेशनल पार्क के जानवर है।

असम के विभिन्न हिस्सों में ब्रह्मपुत्र सहित कई नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। बाढ़ के कारण लाखों परिवार बेघर हो चुके हैं। धेमाजी, लखीमपुर, बिश्वनाथ, सोनितपुर, चिरांग, उदलगुरी, दरंग, बक्सा, नालबारी, बारपेटा, बोंगाईगांव, कोकराझार, धुबरी, दक्षिण सलमारा, गोलपारा, कामरूप,मोरीगांव, नागांव, होजई, पश्चिम कार्बी-आंगलोंग, गोलाघाट, जोरहाट, माजुली, शिवसागर, डिब्रूगढ़, तिनसुकिया, कछार और चराइदेव बाढ़ प्रभावित जिले है।

राज्य सरकार ने राज्य भर में 64 राहत वितरण केंद्र सहित 156 राहत शिविर स्थापित किए हैं। इन राहत शिविरों में 12,000 से अधिक बाढ़ प्रभावित लोग रह रहे हैं।

असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एम एस मणिवन्न ने गांव कनेक्शन को बताया कि असम में बाढ़ हर साल आती है और अधिकारियों ने इससे निपटने के लिए अच्छे से तैयारी भी कर रखी थी। मगर इस बार कोरोना संकट के साथ बाढ़ प्रबंधन हमारे लिए बड़ी चुनौती साबित हो रहा है।

उन्होंने आगे कहा, “कोरोना महामारी में प्रोटोकॉल का पालन करते हुए राहत शिविरों को स्थापित करना और चलाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन हमें खुशी है कि हम प्रबंधन करने में काफी हद तक सक्षम हैं।”

किसानों पर सबसे ज्यादा संकट

आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार राज्य में 67,628 हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि और उस पर रहने वाले पालतू जानवर बाढ़ से प्रभावित हैं। असम के कृषि विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी मावसम हजारिका कहते हैं, “इस साल की बाढ़ ने किसानों को अधिक प्रभावित किया क्योंकि कोरोना संकट ने उन्हें पहले ही आर्थिक रूप से तोड़कर रख दिया था। किसानों की आपूर्ति श्रृंखला भी इससे बुरी तरह प्रभावित है।”

हजारिका ने आगे बताया, “2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में 12,63,532 खेतिहर मजदूर हैं। रबी सीजन के दौरान किसान कोरोना में लॉकडाउन के दिशा निर्देशों का पालन करने के कारण मजदूरों को काम पर नहीं लगा सके। इससे लाखों मजदूर प्रभावित हुए। अब अगर बाढ़ की मौजूदा लहर किसानों को प्रभावित करती है तो इससे मजदूर भी गंभीर रूप से प्रभावित होंगे।”

मोरीगांव के बोरसोला गांव के एक 40 वर्षीय किसान सोसी नंद बोरदोलोई ने बताया कि मोरीगांव जिला बाढ़ के लिए सबसे संवेदनशील माना जाता है और इस साल सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इस साल कोरोना संकट के कारण मजदूरों की भारी कमी हुई है। “मैं अपनी खुद की 2 बीघा जमीन भूमि पर खेती नहीं कर पाया। बोरदोलोई के खेत का लगभग 10 बीघा जमीन वर्तमान में बाढ़ से प्रभावित है।”

हालांकि वह अभी भी खुद को भाग्यशाली मानते हैं क्योंकि वह चावल की खेती करते हैं जिसे पानी की अत्यधिक जरूरत होती है।

उन्होंने बताया, “असम कृषि विश्वविद्यालय के अंतर्गत कृषि विकास केंद्र ने रंजीत सब नाम से चावल की एक किस्म विकसित की है जो बाढ़ प्रतिरोधी है। यह बिना नुकसान के 14 दिनों तक पानी में डूबी रह सकती है। मैंने पिछले साल अपनी जमीन के एक छोटे से हिस्से में इसकी खेती की जिसका परिणाम संतोषजनक रहा। इसलिए इस साल मैंने इस किस्म के चावल की खेती की।”

हालांकि, रबी फसल के मौसम में उन्हें सरसों की खेती से भारी नुकसान उठाना पड़ा।बोरदोलोई ने कहा, “रबी सीजन में मैंने 18 बीघा जमीन में सरसों लगाई थी, लेकिन लॉकडाउन के कारण फसल काटने के लिए न तो मैं खेत में जा सका और ना ही लॉकडाउन में छूट मिलने के बाद मजदूरों की उचित व्यवस्था कर पाया। इस कारण मेरी आधे से अधिक खेती खराब हो गई और मुझे दो लाख से भी अधिक रुपयों का नुकसान हुआ।”

असम के कृषि विभाग के वरिष्ठ अधिकारी मावसम हजारिका ने बाढ़-प्रतिरोधी चावल की किस्म के उपयोग को सकारात्मक विकास करार दिया है।

हजारिका कहते हैं, “हम अपने जिला और उप-मंडल कार्यालयों के माध्यम से किसानों को इस किस्म के बारे में जागरूक कर रहे हैं और साथ ही साथ इसके बीज भी वितरित कर रहे हैं। हालांकि पूरे राज्य को कवर करने में अभी थोड़ा समय लगेगा। हमने दूरदराज के इलाकों के किसानों को चावल की इस किस्म को उपलब्ध कराने के लिए सामुदायिक नर्सरी की स्थापना की है।”

बोरसोला गांव के ही रहने वाले 43 वर्षीय रामू मेधी कहते हैं,”सभी किसान बोरदोलोई की तरह भाग्यशाली नहीं होते। कृषि मेरे लिए एक पारंपरिक आजीविका है, लेकिन यह पिछले कुछ वर्षों से एक जुआ बन गया है। जब भी बाढ़ गंभीर होती है, मुझे भारी नुकसान होता है और इस साल बाढ़ ने गंभीर रूप धारण कर लिया है,” रामू के पास 20 बीघा जमीन है।

इंसानों के साथ बेजुबानों की जान पर आफत

कृषि भूमि के अलावा बाढ़ ने राज्य में वन्यजीवों को भी प्रभावित किया है। काजीरंगा नेशनल पार्क और पोबितोरा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी का 85 फीसदी हिस्सा पानी में डूब गया है। जिससे यहां संरक्षित वन्य प्रजातियों पर गहरा संकट आ गया है। अकेले काजीरंगा नेशनल पार्क में 86 जानवरों के मरने की खबर है, वहीं 125 जानवरों को अब तक बचाया जा चुका है। बाढ़ में कई गैंडों के मारे जाने की खबर है। कई हिरण ब्रह़्मपुत्र के बहाव में इधर- उधर बह गए। असम सरकार के अनुसार काजीरंगा नेशनल पार्क में बाढ़ से अब तक 4 गैंडों, 1 जंगली भैंसों, 7 जंगली सुअर, 2 बारहसिंगा, 23 हिरण और 2 साही जानवरों की मौत हो चुकी है।

असम के वन विभाग के अनुसार, काजीरंगा में 223 वन शिविरों में से 14 बाढ़ से प्रभावित हैं और तीन खाली कर दिए गए हैं।

 लगातार बारिश और भूस्खलन

लगातार हो रही बारिश के कारण बड़े पैमाने पर भूस्खलन ने राज्य को हिलाकर रख दिया है। भूस्खलन के कारण राज्य में अब तक 24 मौतें हो चुकी हैं। 2 जून को राज्य के हैलाकांडी, कछार और करीमगंज जिलों में अलग-अलग हुई घटनाओं में भूस्खलन के कारण चार नाबालिगों सहित 21 लोगों की मौत हुई।

कामरूप मेट्रो जिले में कई भूस्खलन होने के कारण तीन लोगों के मौत हो गई। कुल मिलाकर भूस्खलन से अब तक 24 लोगों के मारे जाने की खबर है।

असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा समर्थित असम इंजीनियरिंग कॉलेज में किए गए एक अध्ययन के अनुसार राज्य में 366 साइटें भूस्खलन की चपेट में हैं और इनमें से 74 प्रतिशत साइटों को मानव जीवन और संपत्ति के नुकसान को रोकने के लिए तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। यह रिपोर्ट पहाड़ियों पर वनस्पतियों की कमी को भी उजागर करती है। इसके साथ ही इसमें यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि गुवाहाटी में वैज्ञानिक रूप से डिजाइन किया हुआ पहाड़ी क्षेत्र का जल निकासी नेटवर्क नहीं है।

गुवाहाटी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भागवत प्राण दुआरा ने गांव कनेक्शन को बताया, “कई पहाड़ियों पर प्राकृतिक धाराओं और अन्य जल निकायों को विकास संबंधी गतिविधियों के लिए अवरुद्ध कर दिया गया है, जिसकी वजह से पहाड़ियों अस्थिर हो जाती हैं और इससे भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।”

कामरूप मेट्रो जिला प्रशासन ने पहाड़ियों और आसपास के रहने वाले लोगों को जल्द से जल्द सुरक्षित स्थानों पर जाने का आदेश जारी किया है।

एक महीने से तेल के कुएं में आग

एक तरफ जहां राज्य प्रशासन बाढ़ और कोरोना महामारी से जूझ रहा है वहीं दूसरी तरफ तिनसुकिया जिले के बागजान में ऑयल इंडिया लिमिटेड का तेल का कुआं 27 मई से ही लीक होना शुरू हो गया था। इसके बाद 9 जून को उसमें आग लग गई थी और वह अभी तक जल रहा है। तिनसुकिया जिले के लोग इस समय बाढ़ और आग लगे कुएं के प्रभाव को बुरी तरह झेल रहे हैं। आग ने आसपास के गांवों और कृषि भूमि को प्रभावित किया है।

उपक्रम होने के बावजूद विशेषज्ञ ऑइल इंडिया लिमिटेड से बह रहे तेल को रोकने में सक्षम नहीं हैं। बाढ़ के पानी के कारण आग बुझाने का कार्य स्थगित करना पड़ा। आस-पास की नदियां में हुए जलभराव के कारण कुएं की आग बुझाने के लिए लगाई गई मशीने जलमग्न हो गई हैं।

आसपास के क्षेत्रों में कई घरों को जलाने और कृषि भूमि को नुकसान पहुंचाने के अलावा, तेल रिसाव ने मगुरी-मोटापुंग बील सहित आसपास के जल निकायों को प्रभावित किया है।

दलदली भूमि और प्रसिद्ध डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान दोनों ही प्रभावित गैस कुएं से लगभग 900 मीटर की दूरी पर स्थित हैं। यह जैव विविधता का हॉटस्पॉट है जहां तकरीबन 36 स्तनधारियों की प्रजातियां, 500 पक्षियों की प्रजातियां, 105 तितलियों की प्रजातियां और 108 मछलियों की प्रजातियां रहती हैं।

असम में वन्यजीवों पर काम करने वाली प्रमुख संस्था, अरण्यक की पार्थ ज्योति दास इकोसिस्टम पर कुएं से हुए नुकसान को अपरिवर्तनीय बताती हैं। उनका कहना है कि बहाली की प्रक्रिया के लिए दो से तीन साल के निरंतर प्रयासों की आवश्यकता होगी।

तेल के कुएं से प्रभावित 1,600 से अधिक परिवारों को चार राहत शिविरों में रखा गया है। इन परिवारों के विरोध के बाद कंपनी ने उन परिवारों को 20-20 लाख रुपये का मुआवजा देने का वादा किया है, जिनके घर आग से जल गए हैं। साथ ही आग से प्रभावित प्रत्येक परिवार को 30,000 रुपये के एकमुश्त मुआवजे की भी घोषणा की गई है।

एक प्रभावित स्थानीय हेमंत मोरन कहते हैं,”मुख्य रूप से राहत शिविरों में रखे गए प्रभावित लोग अपने भविष्य को अंधेरे में देख रहे हैं। ज्यादातर ग्रामीणों को अपने भविष्य की चिंता है क्योंकि वे आग बुझने के बाद सामान्य स्थिति में लौटने पर ही नुकसान की सीमा को जान पाएंगे।” हेमंत बागजन गांव मिलन ज्योति युवा संघ नाम के एक स्थानीय संगठन से जुड़े हुए हैं।

राहत शिविर में रहने वाले एक स्थानीय ग्रामीण सत्यजीत मोरन ने कहा, “हम तत्काल मुआवजा चाहते हैं। हम राहत शिविरों में अनिश्चित काल तक नहीं रह सकते।”

असम प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने शुरुआत में ऑयल इंडिया लिमिटेड पर सख्त कार्रवाई की और 19 जून को बागजन ऑयल फील्ड ऑपरेशंस को बंदी का नोटिस जारी किया। लेकिन चार दिनों के भीतर ही 23 जून को कंपनी को दिया गया नोटिस वापस ले लिया गया।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पूर्व में इस आधार पर क्लोजर नोटिस जारी किया था कि कंपनी बिना पूर्व अनुमति के काम कर रही है जिसका मुख्य उद्देश्य कंपनी की स्थापना करना और संचालन करने के लिए सहमति लेना शामिल था।

हालांकि दूसरी सूचना में यह साफ कहा गया कि कंपनी को जल (रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1974 की धारा 25 के तहत ‘संचालन के लिए सहमति’ और ड्रिलिंग के लिए अलग से वायु (रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1981 की धारा 21 के तहत आवेदन करना होगा।

पत्र में कहा गया कि उन्हें खतरनाक और अन्य अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 के अनुसार खतरनाक अपशिष्ट के सभी विवरण प्रस्तुत करने होंगे और उसके प्रबंधन का उपाय भी बताना होगा।

इस बीच नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 26 जून को विस्फोट की जांच के लिए विशेषज्ञों की आठ-सदस्यीय समिति का गठन किया। यह जांच करेगा कि बाद में तेल के कुएं में आग कैसे लगी और इससे मानव, वन्यजीव और पर्यावरण को क्या नुकसान हुआ। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान पारित आदेश में न्यायाधिकरण ने कंपनी को क्षति के लिए अंतरिम मुआवजे के रूप में जिला प्रशासन को 25 करोड़ रुपये जमा करने का निर्देश दिया है।

वहीं ऑयल इंडिया लिमिटेड ने एक बयान में कहा कि वह आग के कारण हुए सभी नुकसानों की वित्तीय क्षतिपूर्ति करने को तैयार है।

मगर इस भरपाई से क्या इकोसिस्टम को हुए नुकसान की भरपाई कभी की जा सकेगी? 

अनुवाद- सुरभि शुक्ला

यह स्टोरी मुख्य रूप से हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है, जिसे आप यहां क्लिक कर के पढ़ सकते हैं।

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