एक फरवरी को संसद में केंद्रीय बजट 2021-22 पेश करते हुए, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, “प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली सरकार अपने संसाधनों को हमारे समाज के सबसे कमजोर वर्गों – ग़रीबों, दलितों, आदिवासियों, बुजुर्गों, प्रवासी श्रमिकों और बच्चों तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध है।”
उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में 750 एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय स्थापित करने की भी घोषणा की। ऐसे प्रत्येक स्कूल की लागत 20 करोड़ से बढ़ाकर 38 करोड़ कर दी गई, वहीं पहाड़ी व दुर्गम क्षेत्रों के लिए इसे 48 करोड़ रुपए तक बढ़ाया गया है। उन्होंने आगे कहा, “यह आदिवासी छात्रों के लिए मजबूत बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराने में मदद करेगा।”
सीतारमण ने अनुसूचित जातियों (दलितों) के कल्याण के लिए पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना को नए रूप में शुरू करने की घोषणा की और 4 करोड़ छात्रों के लिए 2025-26 तक, छह साल के लिए 35,219 करोड़ रुपए आवंटित किए।
जाति के आधार पर भेदभाव को खत्म करने के लिए काम करने वाले नेशनल कैम्पेन ऑन दलित ह्यूमन राइट के बजट 2021 के विश्लेषण, ‘दलित आदिवासी बजट विश्लेषण 2021-22’ से पता चलता है कि देश की आबादी में 25 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले दलितों और आदिवासी समुदायों के लिए आवंटित बजट दिशानिर्देशों से काफी कम है।
नीति आयोग के दिशानिर्देशों के अनुसार, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को धन का आवंटन जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी के अनुपात में होना चाहिए। लेकिन बजट 2021 के आवंटन में इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया गया है।
“आवंटन में अनुसूचित जाति के लिए 112,863 करोड़ रुपए और अनुसूचित जन जाति के लिए 60,247 करोड़ रुपए बजट में कम आवंटित किए गए हैं। अनुसूचित जाति के लिए आवंटित कुल बजट में से, लक्षित योजनाओं के लिए केवल 48,397 करोड़ रुपए (4.5 प्रतिशत) आवंटित किए गए हैं, और अनुसूचित जनजाति के लिए यह 27,830 करोड़ रुपये (2.6 प्रतिशत) है,” ‘दलित आदिवासी बजट विश्लेषण 2021-22’ (अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए बजट 2021-22 देखें) के मुताबिक।
“भारत की कुल आबादी में आदिवासी जनसंख्या आठ प्रतिशत से अधिक हैं। लेकिन बजट 2021 में, केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय को 7,524.87 करोड़ रुपए ही आवंटित किए गए हैं। यह कुल बजटीय आवंटन का लगभग 0.216 प्रतिशत है,” छत्तीसगढ़ के समर्थ चैरिटेबल ट्रस्ट की टीम लीडर मनजीत कौर बल ने गाँव कनेक्शन को बताया। उनका संगठन राज्य के जनजातीय समुदायों के साथ काम करता है।
उन्होंने आगे कहा, “बजट 2021 में, कई योजनाओं और परियोजनाओं को फिर से संगठित और नए नाम दिए गए हैं। ऐसा ही आदिवासी योजनाओं के साथ भी हुआ है, जो अब 14 क्षेत्रों में विभाजित हैं। उन्होंने कहा कि कई आवंटन कम हुए हैं या पिछली बार जितनी ही हैं।”
अनुसूचित जातियों और जनजातियों की शिक्षा
“दलित आदिवासी बजट विश्लेषण 2021-22” के मुताबिक सरकार ने पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए पांच साल के लिए 35,000 करोड़ रुपए की घोषणा की है, यानी हर साल लगभग 7,000 करोड़ रुपए। अनुसूचित जातियों के लिए, केवल 3,866 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं, जबकि अनुसूचित जनजातियों के लिए यह राशि 2,146 करोड़ रुपए है। कार्यकर्ताओं का दावा है कि यह छात्रों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
नेशनल कैम्पेन ऑन दलित ह्यूमन राइट के मुताबिक, स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग में एससीसी (अनुसूचित जाति घटक) के तहत 9,421 करोड़ रुपए और एसटीसी (अनुसूचित जनजाति घटक) के तहत 5,297 करोड़ रुपए के कुल आवंटन में से केवल चार योजनाओं में ही एससी और एसटी के लिए प्रत्यक्ष प्रावधान हैं। इन चार योजनाओं में अनुसूचित जातियों के लिए केवल 3,041 करोड़ रुपए (32 प्रतिशत) और अनुसूचित जनजातियों के लिए 1,783 करोड़ रुपए (33.66 प्रतिशत) आवंटित किए गए हैं।
अनुसूचित जातियों और जनजातियों की महिलाओं की सुरक्षा
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के ‘क्राइम इन इंडिया 2019’ रिपोर्ट के अनुसार, देश में हर दिन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के कम से कम 10 मामले और आदिवासी महिलाओं के साथ पांच मामले सामने आते हैं। लेकिन फिर भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 और नागरिक अधिकार (पीसीआर) अधिनियम 1955 के कार्यान्वयन के लिए केवल 60 लाख रुपए आवंटित किए गए हैं।
दलित महिलाओं के लिए कुल आवंटन 15,116 करोड़ रुपए है और आदिवासी महिलाओं के लिए यह राशि 7,205 करोड़ रुपए है, जो कि कुल केंद्र प्रायोजित योजनाओं और केंद्रीय क्षेत्र की योजनाओं के क्रमश: 1.4 प्रतिशत और 0.67 प्रतिशत हैं।
इस बीच, मैनुअल स्कैवेंजर्स के लिए, बजट 2021 में 10 लाख रुपये की राशि आवंटित की गई है। यह वास्तव में इस काम में लगे लोगों की संख्या की तुलना में काफी कम है। “यह देखकर भी दुख होता है कि मैला ढोने वालों के बच्चों के लिए प्री मैट्रिक छात्रवृत्ति और उनके स्वास्थ्य के लिए वित्त वर्ष 2020-21 में 25 करोड़ रुपये की तुलना में इस साल कोई राशि आवंटित नहीं की गई है,” दलित आदिवासी बजट विश्लेषण 2021-22 में कहा गया है।
हाल ही में, सरकार ने लोकसभा को बताया कि पिछले पांच वर्षों में, 31 दिसंबर, 2020 तक देश के 19 राज्यों में 340 मैनुअल स्कैवेंजर्स की मृत्यु हुई है। सबसे ज्यादा, 52 मौतें उत्तर प्रदेश में हुईं, इसके बाद तमिलनाडु (43) का स्थान रहा। दिल्ली में 36, महाराष्ट्र में 34, गुजरात में 31 और कर्नाटक में 24 मैनुअल स्कैवेंजर्स की मौत हुई है।
अन्य चिंताएँ
मनजीत कौर के अनुसार, आदिवासी समुदायों की कई अन्य चिंताएं हैं जिन्हें बजट 2021 में नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। उन्होंने कहा, “आदिवासी समुदाय दूरदराज के इलाकों में रहते हैं और उन्हें पीने के साफ़ पानी के स्रोतों की सख्त जरूरत है। सरकार जल जीवन मिशन और हर घर नल की बात करती रहती है, लेकिन आदिवासी इलाकों में अभी भी महिलाओं को झिरिया (जमीन की सतह पर खुले में पानी) से पानी लाने के लिए तीन से चार किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। उनके पास एक कुआं भी नहीं है।”
स्वच्छ पेयजल की कमी के अलावा, आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण की भी समस्या है। मनजीत कौर ने शिकायती लहजे में कहा, “कई आदिवासी क्षेत्रों में अभी भी आंगनबाड़ी केंद्र नहीं हैं और वहां बच्चों में कुपोषण अधिक है। बजट में इन गंभीर मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया है। पीवीटीजी यानी विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों के लगभग 90 फीसदी बच्चे आंगनबाड़ियों की पहुंच से बाहर हैं। ऐसे गांवों में नए आंगनबाड़ियों को खोलने के बजाय, बजट 2021 में आंगनबाड़ियों के लिए कुल आवंटन कम कर दिया गया है। इससे आदिवासी बच्चों के पोषण पर गंभीर असर पड़ेगा।”
“आदिवासी उप-योजना के लिए संस्थान स्थापित किए गए हैं और कई इकाइयाँ जिला और ब्लॉक स्तरों पर हैं। लेकिन बजट में आवंटित धनराशि के उपयोग के लिए ऐसी इकाइयों और संस्थानों में न तो स्टाफ है और न ही पर्याप्त बुनियादी ढांचा है,”सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी, नई दिल्ली के साथ काम करने वाले वरिष्ठ विकास अर्थशास्त्री जावेद आलम खान ने बताया।
उन्होंने आगे कहा कि आदिवासी समुदायों की आकांक्षाओं और ज़रूरतों के बीच एक बड़ा अंतर था जो कि बजट और आधिकारिक योजना दस्तावेज़ों में कभी भी नहीं दिखता है। उन्होंने कहा, “हम आदिवासी समुदायों से कभी नहीं पूछते कि उनकी ज़रूरतें क्या हैं, लेकिन उनके लिए बजट तैयार करते हैं। बजट तैयार करने में सामुदायिक भागीदारी शून्य है। महामारी और इसके प्रभावों के वर्तमान परिदृश्य में, दलितों और आदिवासी समुदायों के लिए बजट में कुछ खास व्यवस्था नहीं है।