18 जून को केंद्र के आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत देश के 41 कोयला खदानों के नीलामी की प्रक्रिया शुरू हो गई है। यह पहला मौका है जब भारत में कोयला खदानों को कॉमर्शियल माइनिंग (वाणिज्यिक खनन) के लिए खोला जा रहा है। नीलामी प्रक्रिया को लॉन्च करने के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा कि कोयला खनन आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा। रोजगार के अवसर पैदा होंगे। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि कोयला खदानों के आवंटन से भारत के पर्यावरणीय प्रतिबद्धताओं पर कोई फर्क नहीं पड़े।
सितंबर 2014 में कोयला घोटाले के प्रकाश में सुप्रीम कोर्ट ने 1993 से 2011 के बीच हुए 218 में से 204 कोयला ब्लॉक आवंटन को रद्द करने का फैसला दिया था। कोर्ट का कहना था कि इन सभी कोयला ब्लॉकों के आवंटनों में पारदर्शिता का अभाव था। 14 ब्लॉक जिनका आवंटन नहीं रद्द किया था उनमें से 12 अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट और 2 एनटीपीसी और सेल के थे। हालांकि ठीक अगले ही महीने अक्टूबर 2014 में सरकार ने कोयला खदान आवंटन से संबंधी अध्यादेश लेकर आई। तत्कालीन वित्त मंत्री ने सरकार के फैसले का तर्क दिया कि सीमेंट, स्टील और ऊर्जा के क्षेत्र में ईंधन की सख्त जरूरत है। उन्होंने देश को भरोसा दिलाया कि सरकारी क्षेत्र की कंपनियों को आवंटन में प्राथमिकता दी जाएगी। प्राइवेट कंपनियों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक तय ‘लेवी’ (एक तय रकम) देना होगा। उन्होंने कोल इंडिया के हितों का ख्याल रखने की बात पर भी जोर दिया।
कोल माइन्स (स्पेशल प्रोविज़न) एक्ट, 2015 में पहली बार एनडीए र ने कॉमर्शियल माइनिंग का प्रावधान किया। ऐसा नहीं है कि 2014 से लेकर 2020 तक 31 कोयला खदानों का आवंटन हुआ है। लेकिन खनिज कानून (संशोधन) विधेयक, 2020 के तहत बड़ा बदलाव ये है कि अबतक प्राइवेट कंपनियों पर “इंड-यूज़” की सीमा लागू थी। “इंड-यूज़” का मतलब है कि कंपनियां सिर्फ अपने उद्योग जैसे बिजली, सीमेंट इत्यादि के उपयोग के लिए कोयले का इस्तेमाल कर सकती थी। अब उन्हें बाज़ार में कोयला बेचने की भी छूट दे दी गई है।
अव्वल तो सरकार को खनिज कानून (संशोधन) विधेयक, 2020 की जरूरत क्यों पड़ी? सरकार ने कोयला खपत बढ़ने का ऐसा क्या अनुमान लगाया जिसके लिए कॉमर्शियल माइनिंग को मंजूरी देनी पड़ गई? “नो-गो जोन” में शामिल किए गए क्षेत्रों को खनन के लिए खोलना पड़ गया? मध्य भारत के जंगलों के बड़े हिस्सों में कोयला खनन के क्या प्रभाव हो सकते हैं? जिस देश ने “कोलगेट” नाम से चर्चित कोयला खदान आवंटन के घोटाले झेले हैं, वहां वापस एक सरकार खदानों की नीलामी की प्रक्रिया की शुरुआत कर चुकी है। क्या सरकार देश की अवाम को ये भरोसा दे सकती है कि खदानों की नीलामी पारदर्शी तरीके से की जाएगी? भारत का पेरिस समझौते में जलवायु परिवर्तन की प्रतिबद्धताओं पर क्या असर पड़ेगा? फिलहाल आर्थिक मोर्चे पर कमज़ोर देश में ऐसी कौन सी कंपनियां हैं जो कोयले (जिसे घाटे का सौदा माना जा रहा है) में इतनी दिलचस्पी दिखा रही हैं?
कॉमर्शियल माइनिंग का नफा-नुकसान
ऐसा नहीं है कि कॉर्मेशियल माइनिंग की मंज़ूरी के बाद ही प्राइवेट कंपनियां कोयला क्षेत्र में हस्तक्षेप करेंगी। बल्कि प्राइवेट कंपनियां एमडीओ (माइन डेवलपर कम ऑपरेटर) की भूमिका में काम करती रही हैं। “कॉमर्शियल कोल माइनिंग और एमडीओ: कॉरपोरेट लूट का नया रास्ता” नाम की किताब में एमडीओ मॉडल पर विस्तार से लिखा गया है। इस किताब के अनुसार, “एमडीओ मॉडल के रास्ते से सरकारी कंपनियों की मिलीभगत से कोयला खदानों का पूरा विकास एवं संचालन पिछले दरवाज़े से सरकार के करीबी कॉरपोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है और पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।”
जिन भी सरकारी कंपनियों को कोयला खदानें आवंटित की गई, उन्होंने निजी कंपनियों को एमडीओ नियुक्त कर दिया। यानि माइन डेवलपर कम ऑपरेटर कोयला खदान के विकास एवं संचालन के लिए ज़िम्मेदार होता है। सभी पर्यावरणीय स्वीकृतियां लेना, भूमि अधिग्रहण करना, माइन के संचालन के लिए अन्य कांट्रैक्टर की नियुक्तियां, कोयला परिवहन इत्यादि की ज़िम्मेदारी एमडीओ की होती है।
केंद्रीय कोयला एवं खान मंत्री प्रहलाद जोशी ने कॉमर्शियल माइनिंग के कई फायदे गिनवाए हैं। उन्होंने कहा है कि कॉमर्शिल माइनिंग देश के आत्मनिर्भर भारत अभियान का एक महत्वपूर्ण कदम है। “कैप्टिव माइनिंग (इंड-यूज़) की सीमा की वजह से प्राइवेट कंपनियां कोयला क्षेत्र में निवेश करने से बचती रही थी। सरकार ने इस स्थिति को सुधारने के लिए लगातार पिछले छह वर्षों से काम किया है। अब जाकर यह मौका आया है जब वैश्विक कंपनियों को भी भारत के कोयला क्षेत्र में निवेश करने का अवसर मिलेगा। भारतीय उद्योग जगत को उत्पादन क्षमता बढ़ाने में मदद मिलेगी,” द हिंदू बिजनेस लाइन में प्रहलाद जोशी ने लिखा।
जिन क्षेत्रों में कोयला ब्लॉक के नीलामी की प्रक्रिया शुरू की गई है, वहां के स्थानीय लोग और कोयला संबंधी विषयों पर काम करने वाले विशेषज्ञ केंद्रीय मंत्री की बातों से इत्तेफ़ाक नहीं रखते। कॉमर्शियल माइनिंग को मंजूरी के सिलसिले में आईआईएम कोलकाता के शोधार्थी और कोल संबंधी मामलों के विशेषज्ञ प्रियांशु गुप्ता 2018में जारी कोल इंडिया की रिपोर्ट कोल विज़न 2030 का हवाला देते हुए कहते हैं, “कोल इंडिया ने अपनी कोल विज़न रिपोर्ट 2030 में अनुमान लगाया है कि वर्तमान ग्रोथ रेट के लिहाज़ से जितने कोयला खदान उनके पास हैं, वह भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है। उसी रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि जितने खदान फिलहाल कोल इंडिया के पास हैं, वह अगले दस वर्षों तक भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर सकता है।”
जब कोल इंडिया ने पूर्व में ही आत्मनिर्भरता का अनुमान लगाया है और वह अपने अनुमानित लक्ष्य की दिशा में अग्रसर है तो कॉर्मर्शियल माइनिंग के मार्फत कैसी आत्मनिर्भरता की उम्मीद की जा रही है? “2015 के बाद करीब 90 कोयला खदानों की नीलामी और आवंटन किया गया है। इनमें से 31 का आवंटन हुआ है, इन 31 में भी सिर्फ 28 खदानें ऑपरेशनल हैं। मतलब कि लगभग 62 आवंटित खदानें अभी नॉन-ऑपरेशनल ही हैं। पांच साल हो गए हैं और हम वहां खनन शुरू नहीं कर पाए हैं। उसका एक कारण रहा है कि अबतक इंड-यूज़ (अंत-उपयोग) का प्रतिबंध था। इसके तहत कोयले का इस्तेमाल बिजली उत्पादन और लोहे व इस्पात उद्योग में ही किया जा सकता था। दूसरी तरफ, चूंकि भारत में कोयले की मांग (डिमांड) ही नहीं है लिहाज़ा 31 आवंटित खदानों में से 8 प्राइवेट कंपनियों ने अपने कॉन्ट्रैक्ट खत्म कर दिए। इसका स्पष्ट अर्थ है कि ये इतने बड़े स्तर पर कोयला आवंटन कम से कम देश की घरेलू ऊर्जा खपत को ध्यान रखकर तो नहीं हो रहे हैं,” प्रियांशु ने गांव कनेक्शन से कहा।
कोयला सचिव अनिल जैन के अनुसार, वर्ष 2019-20 में 602.14 मिलियन टन कोयला उत्पादन का अनुमान था। वहीं वर्ष 2020-21 में 700 मिलियन टन कोयले उत्पादन का अनुमान है। वहीं कोल इंडिया वर्ष 2024 तक वार्षिक 1 बिलियन टन कोयला उत्पादन के लक्ष्य की ओर बढ़ रही है। इसके साथ ही भारत हर वर्ष 235 मिलियन टन कोयले का आयात करता है। इसका लगभग आधा हिस्सा बिजली उत्पादन के लिए थर्मल पावर प्लांट्स को दिया जाता है। अनिल जैन के मुताबिक सरकार बाकी आधे हिस्से को कम कर के अपने कोयला आयात को कम करना चाहती है। आयात में कमी के लक्ष्य को घरेलू उत्पादन बढ़ाकर पूरा किया जाएगा।
चाहे कोल इंडिया का अनुमान हो या भारत की जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक प्रतिबद्धता – दोनों ही स्थितियों में कोयले में निवेश करने का यह उचित समय मालूम नहीं पड़ता। आखिर ये आत्मनिर्भरता किसके हित में हैं? इसका अंदाज़ा हमें 18 जून को प्रधानमंत्री के संबोधन में मिलता है। “भारत कोविड-19 आपदा को अवसर में बदल देगा। इस आपदा ने हमें आत्मनिर्भर बनने को प्रेरित किया है। आत्मनिर्भर होने का तात्पर्य है कि भारत को आयात पर निर्भरता कम करनी होगी और आयात पर खर्चने वाले विदेशी मुद्रा का बचत करना होगा। हमें अपने घरेलू संसाधनों से उत्पादन बढ़ाना होगा और इसका मतलब होगा कि जो चीज़ें हम अभी तक आयात करते आए हैं, हम उन वस्तुओं के निर्यात में हमें अग्रणी बनना होगा,” प्रधानमंत्री ने कहा।
हालांकि प्रधानमंत्री की बात से प्रियांशु इत्तेफाक नहीं रखते। वह पूछते हैं, “क्या कोयले का निर्यात करना देश के हित में है? यह केवल कोयले का निर्यात नहीं है बल्कि प्राकृतिक आपदा, विस्थापन और प्रदूषण का आयात है?”
आदिवासी समाज, विस्थापन और पर्यावरण
कोयला उत्पादन को रोमांचकारी तरीके से हर सरकार ने पेश किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया। उन्होंने कहा, “कोयला क्षेत्र में सुधार से पूर्व और मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में विकास संभव हो सकेगा। इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महत्वाकांक्षी जिले हैं जहां ऐच्छिक विकास और खुशहाली नहीं आ सकी है। हमारे देश के 16 महत्वाकांक्षी जिले हैं जहां बहुतायत में कोयला उपलब्ध है लेकिन वहां के लोगों को इसका लाभ नहीं मिल सका है। इन जगहों के लोगों को रोज़गार के लिए दूर-दराज शहरों में पलायन करना पड़ता है।”
प्रधानमंत्री के संबोधन का अंश | क्रेडिट – पीआईबीछत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन से जुड़े आलोक शुक्ला प्रधानमंत्री की बात से असहमति जताते हैं। वह पूछते हैं कि प्रधानमंत्री या सरकार बताए कि जिन इलाकों में पहले से कोयला खनन हो रहा है, वहां कैसा विकास हुआ है? “प्रधानमंत्री देश में कोई ऐसा क्षेत्र बता दें जहां कोयला खनन से पर्यावरण को नुकसान नहीं हुआ है। कोई एक मॉडल गांव बता दें जहां खनन से विस्थापन नहीं हुआ और विस्थापित लोगों को समुचित पुनर्वास मिला हो?,” आलोक शुक्ला पूछते हैं.
जिन 41 कोयला ब्लॉकों की नीलामी प्रक्रिया शुरू की गई है, उनमें से कई मध्य भारत के जैव विविधता वाले क्षेत्र रहे हैं। इस क्षेत्र में सबसे घने करीब 1,70,000 हेक्टेयर में फैले हंसदेव अरण्य के जंगल शामिल हैं। साथ ही इनमें से कई क्षेत्रों को कोयला खदान आवंटन के लिए खोलने से पहले इंवॉयरमेंट क्लियरेंस भी नहीं लिया गया है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के हसदेव अरण्य कोयला ब्लॉक में मोरगा-II। यह क्षेत्र 26.64 वर्ग किलोमीटर में फैला है। जिसकी लगभग 85-90% जमीन जंगल है। हसदेव नदी (महानदी की सहायक नदी) का एक हिस्सा इस क्षेत्र में पड़ता है। उसी तरह झारखंड के चकला और चोरीटांड तिलैया कोयला ब्लॉक का 50% हिस्सा जंगल है।
नीलामी के लिए खोले गए कोयला खदानों की सूची | क्रेडिट – कोयला मंत्रालय
सिंगरौली फाइल्स के लेखक और पर्यावरण कार्यकर्ता अविनाश चंचल का छत्तीसगढ़ के कोयला क्षेत्रों में काम रहा है। उन्हें भी प्रधानमंत्री के दावों में कोई दम नज़र नहीं आता। वह कहते हैं, “चाहे छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश या तमिलनाडु में स्थित पावर प्लांट्स हो, स्थानीय लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। जिन स्थानीय समुदायों की आजीविका का साधन ये जंगल हैं, उन्हें वहीं से बेदखल कर दिया जाता है। बदले में इन्हें नौकरी भी नहीं दी जाती है। कोयला आवंटन जंगलों पर आधारित पूरी की पूरी एक सभ्यता को खत्म करने की साजिश है।”
दरअसल, पूर्व में पर्यावरण मंत्रालय और कोयला मंत्रालय ने मिलकर एक सहमति बनाई कि कोयला खनन की जड़ में आने से घने जंगलों और पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील इलाकों को बचाया जाना चाहिए। इसे कोयला खदानों का “गो/-नो गो अध्ययन” नाम दिया गया। वर्ष 2009 में पर्यावरण मंत्रालय ने 602 कोयला ब्लॉक के अध्ययन में से 396 कोयला ब्लॉक को ही “गो-जोन” में शामिल किया जहां खनन की मंजूरी दी जा सकती थी। 206 कोल ब्लॉक को “नो-गो ज़ोन” में शामिल किया गया। बड़ी संख्या में कोयला खदानों को “नो-गो” चिन्हित किए जाने पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने तत्कालीन योजना आयोग के सदस्य बीके चतुर्वेदी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। बाद में 53 और कोयला ब्लॉक को “गो-जोन” में शामिल किया गया। कोल माइन्स (स्पेशल प्रोविज़न) एक्ट, 2015 के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने गो-नो गो की जगह “वॉयलेट” और “इनवॉयलेट” में कोयला खदानों को चिन्हित किया।
बावजूद इसके कोयला मंत्रालय ने हसदेव अरण्य क्षेत्र को कोयला खनन से मुक्त नहीं किया। बीते पांच वर्षों में हसदेव अरण्य क्षेत्र में परसा, मदनपुर दक्षिण, केंटे एक्सटेंशन, पटुरिया और गिढ़मुरी में कोयला खदान सरकारी कंपनियों को आवंटित किए गए हैं।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने मांग की है कि जिन कोयला ब्लॉकों को “नो-गो जोन” में शामिल किया गया था, उन्हें नीलामी के नहीं खोला जाना चाहिए। हसदेव अरण्य क्षेत्र की नौ ग्रामसभाओं ने प्रधानमंत्री से कोयला खदानों की नीलामी रोकने की अपील की है। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में ग्रामसभाओं ने हसदेव अरण्य क्षेत्र की महत्ता का जिक्र किया है। लिखा है, “हसदेव अरण्य क्षेत्र साधन, जैव विविधता से परिपूर्ण, हाथी समेत कई महत्वपूर्ण वन्य-जीवों का पर्यावास क्षेत्र है। जो कि छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे मध्य भारत में पर्यावरण की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इन्हीं कारणों से अक्सर इस क्षेत्र को “छत्तीसगढ़ के फेफड़ों” के रूप में भी जाना जाता है। यदि इस क्षेत्र में खनन हुआ तो न केवल पूरे क्षेत्र का विनाश होगा बल्कि क्लाइमेट चेंज से भारत की लड़ाई में ऐसी ठोकर लगेगी जिसकी भरपाई असंभव है।”
ग्राम घाटबर्रा, जिला सरगुजा के सरपंच जयनंदन सिंह पोर्ते ने गांव कनेक्शन के साथ बातचीत में कहा, “परसा और पटुरिया जैसे क्षेत्रों में हाथी-मानव संघर्ष बढ़े हैं। इस क्षेत्र में अगर जंगल नष्ट किए गए तो वे वन्य जीवों के लिए त्रासदी साबित होंगे।”
छत्तीसगढ़ के पर्यावरण मंत्री मोहम्मद अकबर ने भी केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को लिखकर हसदेव अरण्य क्षेत्र में खनन गतिविधियों पर रोक की अपील है। मोहम्मद अकबर ने प्रकाश जावड़ेकर को लिखा है, “छत्तीसगढ़ राज्य में हाथियों की संख्या में हो रही लगातार वृद्धि, मानव हाथी द्वंद की बढ़ती घटनाओं तथा हाथियों के रहवास की आवश्यकता को देखते हुए हसदेव नदी से लगे 1995 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को लेमरू हाथी रिजर्व घोषित करने का निर्णय लिया गया है। जिसके पालन में अधिसूचना प्रकाशन हेतु कार्यवाही प्रगति पर है। राज्य के वन और पर्यावरण की सुरक्षा और भविष्य में मानव हाथी द्वंद की घटनाओं पर प्रभावशील नियंत्रण के लिए उक्त क्षेत्र में भविष्य में खनन गतिविधियों पर रोक अत्यंत आवश्यक है।”
ग्रामसभाओं ने सरकार के आत्मनिर्भर भारत अभियान पर भी सवाल खड़े किए हैं। “एक तरफ तो आप [प्रधानमंत्री] आत्मनिर्भरता की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर से आत्मनिर्भरता, आजीविका, संस्कृति और जीवन-शैली पर कठोराघात करने वाली प्रक्रिया को बढ़ावा दे रहे हैं। हमारा क्षेत्र पूर्णतया जंगल पर आश्रित है जिसके विनाश से यहाँ के लोगों का पूरा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।” इसके साथ ही ग्रामसभाओं ने भारत की जलवायु परिवर्तन की प्रतिबद्धताओं पर भी सवाल उठाया है।
भारत और जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धता
2015 पेरिस समझौते के मुताबिक 2030 तक भारत को अपना कार्बन उत्सर्जन 2.5-3 बिलिटन टन कम करना है। कार्बन उत्सर्जन में कमी वन क्षेत्र बढ़ाने से ही संभव होगा। स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2017 के मुताबिक भारत के भौगोलिक क्षेत्र का 24% हिस्सा वन क्षेत्र है। भारत ने वैश्विक पटल पर यह कहा है कि वह देश में वन क्षेत्र को कम से कम 33% पर लाना चाहता है। नेशनल फॉरेस्ट पॉलिसी 2018 में भी वन क्षेत्र को देश के भौगोलिक क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से में विकसित करने की प्रतिबद्धता जाहिर की गई है।
दूसरी तरफ भारत सरकार ने 2022 तक 175 गीगावाट (जिसमें 100 गीगावाट सौर्य और 60 गीगावाट वायु ऊर्जा) अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य रखा है। सरकार की महत्वाकांक्षा है कि 2030 तक भारत 450 गीगा वाट अक्षय ऊर्जा का उत्पादन करे। यूनिवर्सल इकोलॉजिकल फंड की रिपोर्ट “द ट्रूथ बिहाइंड क्लाइमेट प्लेजेज़” में बताया गया कि अगर भारत को पेरिस समझौतों की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने है तो उसे अपने मौजूदा वन्य क्षेत्र को दोगुना करना होगा। हालांकि इस रिपोर्ट में बताया गया कि भारत कुछ हद तक पेरिस समझौते के अनुरूप आगे बढ़ रहा है। “ऐतिहासिक रूप से भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन दो टन से भी कम है। यह बाकी किसी भी औद्योगिक देशों के मुकाबले कम है।,” संस्थान ने अपने अध्ययन में पाया।
जब दुनिया के दस सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के साथ शहर शामिल किए जा रहे हो। देश में औसत तापमान बढ़ रहा हो। प्रति वर्ष प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और उनसे होने वाले नुकसान बढ़ रहे हो। क्या भारत जैसे पर्यावरण के लिहाज़ से एक संवेदनशील देश में आत्मनिर्भरता के बहाने कोयला क्षेत्र में इस तरह की बढ़त उत्साहित करनी चाहिए?
“बिल्कुल यह चिंता पर्यावरण मंत्रालय की होनी चाहिए थी। उसे ये सुनिश्चित करना चाहिए था कि जो जैव-विविधता के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र हैं वहां कोयला खदानों के आवंटन नहीं होने चाहिए थे। पर दुखद यही है कि जो पर्यावरण मंत्रालय है, उसे पर्यावरण छोड़कर विकास की चिंता हो गई है। वह इंवॉयरमेंट क्लियरेंस दे रही है,” छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला ने कहा।
अविनाश चंचल कोयला खनन की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुकसान की बात कहते हैं। “इन क्षेत्रों में वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण तो है ही। जब ये प्रदूषित जल खेतों में सिंचाई के उपयोग में लाया जाता है तो इससे भूमि और खाद्य सुरक्षा के लिए भी चिंतनीय स्थिति पैदा होती है। इन क्षेत्रों में तरह-तरह की और रहस्यमयी बीमारियां होती हैं। इसीलिए हसदेव अरण्य जैसे क्षेत्र को कोयला खनन के लिए खोलना निश्चित रूप से स्थानीय समुदायों के अधिकारों पर हमला है।”
पूर्व कोयला सचिव अनील स्वरूप ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख में कोयला आवंटन की सराहना की थी। उन्होंने पूर्व सीएजी विनोद राय के कोलगेट घोटाले में आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए लिखा कि उस घटना के बाद से नौकरशाही में कोयला संबंधी मुद्दों में हाथ लगाने से एक हिचकिचाहट की स्थिति बन गई। गांव कनेक्शन ने उन्हें सवालों की एक सूची भेजी है। दो दिन बीत जाने पर भी उनकी तरफ से जवाब नहीं आया है। उनका जवाब आने पर स्टोरी अपडेट की जाएगी।
आने वाले दिनों में कोयला आवंटन का मामला तूल पकड़ता मालूम पड़ता है। धनबाद में कोयला आवंटन का विरोध कर रहे 50 ट्रेड यूनियनों पर मुकदमा दर्ज किया गया है। वहीं झारखंड सरकार ने सुप्रीट कोर्ट में कोयला खदानों की नीलामी को रोकने के लिए याचिका दायर की है।
#CoalMining में निजी कंपनियों को लाने के फ़ैसले के खिलाफ झारखंड सरकार सुप्रीम कोर्ट जा रही है। मुख्यमंत्री @HemantSorenJMM ने कहा है कि @narendramodi सरकार ने राज्य को विश्वास में लिए बगैर यह निर्णय लिया। हम इसका विरोध करते हैं। इसके लिए हमारे पास तार्किक कारण हैं। #Jharkhand pic.twitter.com/DlVLAFYmB3
— Ravi Prakash (@Ravijharkhandi) June 20, 2020
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