लॉकडाउन बढ़ा मतलब प्रवासी मजदूरों की मुश्किलें भी बढ़ीं

Daya SagarDaya Sagar   15 April 2020 4:21 AM GMT

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लॉकडाउन बढ़ा मतलब प्रवासी मजदूरों की मुश्किलें भी बढ़ींगुड़गांव के मानेसर की एक मजदूर बस्ती

बिहार के भागलपुर जिले के गोपाल दास और उनके साथ लगभग 600 मजदूर मुंबई के बांद्रा के खेरवाड़ी नाका में रहकर एक कन्स्ट्रक्शन साइट पर निर्माण मजदूर का काम करते थे। लॉकडाउन के एक महीने पहले से ही साइट पर काम होना बंद हो गया। वे इस आस में रूके रहें कि कुछ दिन बाद स्थिति बेहतर होगी और उन्हें फिर से काम मिलना शुरू होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और लॉकडाउन आगे 20 दिनों के लिए और बढ़ा दिया गया। अब गोपाल दास और उनके साथी लॉकडाउन खुलने का इंतजार कर रहे हैं ताकि वे जल्द से जल्द अपने गांव वापस लौट सकें।

मुंबई से लगभग 1350 किलोमीटर दूर गुड़गांव के मानेसर इंडस्ट्रियल एरिया के नाहरपुर गांव के लगभग मजदूरों की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। इन मजदूरों के लिए दस बाई दस के एक छोटे से कमरे में दिन काटना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। इसके साथ ही उन्हें खत्म होते राशन, जेब में कम होते पैसे, भविष्य की रोजी-रोटी (रोजगार) और हजारों किलोमीटर दूर रह रहे अपने घर वालों की भी चिंता सता रही है।

मंगलवार, 14 अप्रैल की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशव्यापी लॉकडाउन को बढ़ाने की घोषणा की और इसे 3 मई तक कर दिया। इससे उन प्रवासी मजदूरों के माथे की शिकन और बढ़ गई, जो लॉकडाउन की वजह से देश के अलग-अलग कोनों में 'फंसे' हुए हैं। शाम-शाम होते-होते वो खबर आई जो कि दिल दहला देने वाली थी। मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर हजारों की संख्या में मजदूर इकट्ठा हुए और घर जाने की मांग करने लगे। इससे पहले दिल्ली और सूरत से भी प्रवासी मजदूरों के हंगामे की खबर आई थी।

मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर इकट्ठा हुई मजदूरों की भीड़

देश के अलग-अलग हिस्सों से कई ऐसे वीडियो, फोटो और वॉयस मैसेज आ रहे हैं, जिसमें प्रवासी मजदूर सरकार से उन्हें अपने घर भेजने की विनती कर रहे हैं। दरअसल इन मजदूरों के पास ना तो करने के लिए कोई काम है और ना ही खाने के लिए पैसा बचा हुआ है। दिन-रात काम करने वाले इन मजदूरों को ऐसे खाली बैठने की आदत नहीं है, इसलिए यह मुश्किल और भी बढ़ रही है। जानकारों का मानना है कि मजदूरों के लिए यह लॉकडाउन सामाजिक और आर्थिक लड़ाई के साथ-साथ एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई भी है।

सोमवार को सोशल मीडिया पर एक चिट्ठी वायरल हुआ जिसमें मुंबई के बांद्रा में फंसे कटिहार (बिहार) के मजदूर हेमंत पोद्दार, अभिषेक कुमार और जितेंद्र पोद्दार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपने गांव पहुंचाने की गुहार लगा रहे हैं।

इस चिट्ठी में इन मजदूरो ने लिखा हैं कि उन्होंने 14 अप्रैल तक घर में रहकर लॉकडाउन का पालन किया और सरकार की बात मानी। अब सरकार को भी उनकी बात मानते हुए उन्हें 15 अप्रैल को उनके घर पहुंचाने का इंतजाम करना चाहिए। इस चिट्ठी में इन मजदूरों ने मुंबई और उसके आस-पास के स्लम एरिया प्रमुखतः धारावी में कोरोना के तेजी से फैलने का भी जिक्र किया गया है, जिससे वे लोग डरे हुए हैं।

इस संबंध में हमने इस पत्र को लिखने वाले हेमंत पोद्दार से फोन पर बात की तो उन्होंने बताया, "यहां बहुत मुश्किल हो रहा है। हमें सरकारी मदद के नाम पर अभी तक कुछ भी नहीं मिला है। लॉकडाउन के शुरूआती दिनों में कुछ एनजीओ वाले आते थे और खिचड़ी या पूड़ी-सब्जी दे जाते थे। लेकिन अभी पास में ही कोरोना मरीज मिलने के कारण पूरा एरिया ही सीज कर दिया गया है। इसलिए जो एनजीओ से मदद मिल रहा था, वह भी नहीं मिल पा रहा है।"

केंद्र सरकार का दावा है कि लॉकडाउन के इस कठिन समय में वह मजदूरों को हरसंभव मदद देने की कोशिश कर रही है। श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार लॉकडाउन के बाद पूरे देश में लगभग 22,567 सरकारी राहत कैम्प बनाए गए हैं, जहां से लगभग 10 लाख 3 हजार प्रवासी मजदूरों को मदद दी जा रही है, वहीं लगभग 15 लाख मजदूरों को उनके नियोक्ता ही भोजन और शरण दे रहे हैं। जबकि लगभग 84 लाख से अधिक मजदूरों को किसी एनजीओ और स्वयं सहायता समूहों के द्वारा खाने और रहने का ठिकाना मिल रहा है। वहीं सरकार ने मजदूरों की शिकायतों और जरूरतों को सुनने और उन्हें हल करने के लिए पूरे देश भर में 20 कंट्रोल रूम भी बनाए हैं।

लेकिन मजदूरों की बातों को सुनने से लगता है कि सरकार की यह कोशिश नाकाफी है। "हम लोग दिन भर अपने कमरों में बैठे रहते हैं। थोड़ा सा भी बाहर निकलो तो पुलिस लाठी मारने को दौड़ाती है। कहीं लंगर भी चल रहा होता है, तो पुलिस के डर से वहां भी ना जा पाते। 5-6 दिन में एक बार निकलते हैं और राशन-पानी लाकर काम चलाते हैं। हम चाहते हैं कि बिहार सरकार हमें यहां से बाहर निकाले, भले ही बिहार पहुंचाकर हमें कुछ दिनों के लिए क्वेरंटाइन रहना पड़े," पोद्दार आगे बताते हैं।

इस एरिया में प्रवासी मजदूरों के लिए काम करने वाली संस्था आजीविका ब्यूरो के दीपक परडकर ने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया, "हमारे लिए सबसे मुश्किल काम मजदूरों को यहां पर रूकने के लिए समझाना है। जैसे-जैसे लॉकडाउन बढ़ रहा है, इन लोगों के सब्र का बांध टूट रहा है। ये अब यहां रूकना नहीं चाहते और अपने घर जाना चाहते हैं। इनके पास कोई काम नहीं है तो दिन भर एक छोटे से कमरे में इनके लिए रूकना काफी मुश्किल हो रहा है।"

"इसके अलावा इन्हें घरवालों की फिक्र भी होती है। जब घर से फोन आता है तो यह फिक्र बेचैनी में बदल जाती है। बगल में धारावी है, जहां 40 से अधिक लोगों को कोरोना हो चुका है। इन मजदूरों को उसका भी डर है। इन सबसे निपटने के लिए मजदूरों को राशन-पानी के अलावा मनोचिकित्सकों की भी जरूरत है। लेकिन जहां मजदूरों तक सरकारी सुविधाएं नहीं पहुंच पा रहीं, मनोचिकित्सक का पहुंचना तो बहुत बड़ी बात है," दीपक परडकर आगे कहते हैं।

मुंबई के बांद्रा के खेरवाड़ी नाका में रहने वाले मजदूर। 10 बाई 10 के एक कमरे में 6 से 8 मजदूर एक साथ रहते हैं। इससे आप सोशल डिस्टेंसिंग का भी अंदाजा लगा सकते हैं।

परडकर ने बताया कि 600 मजदूरों की इस बस्ती में अभी तक कोई सरकारी सहायता नहीं पहुंच पाई है। जो सहायता हुई है, वह कुछ एनजीओ के द्वारा ही हुई है। ठीक इसी तरह की बात मानेसर के ऑटोमोबाइल मजदूर संतोष कहते हैं।

सीतामढ़ी (बिहार) के संतोष ने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया कि इंडस्ट्रियल एरिया होते हुए भी मानेसर में सरकार की तरफ से मजदूरों के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गई है। "ना ही कहीं कैंप बना है और ना ही हमें कोई राशन मिला है। इसके अलावा हरियाणा सरकार द्वारा जारी हेल्पलाइन पर फोन करने पर भी कोई रिस्पांस नहीं मिलता। हमारे पास जितना बचा-खुचा पैसा था, वह सब खत्म हो गया। अब राशन वाले से उधार लेकर काम चलाते हैं। उम्मीद यही है कि यह सब खत्म होगा तो फिर से काम मिलेगा, जिसके जरिये इस उधार को चुका सकेंगे," संतोष अपनी बातों को समाप्त करते हैं।

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