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कोरोना लॉकडाउन के कारण प्रभावित हो रही ग्रामीण छात्रों की पढ़ाई, नहीं ले पा रहे ऑनलाइन शिक्षा का लाभ

कोविड-19 महामारी के कारण जहां शहरी क्षेत्रों के शिक्षकों और छात्रों ने ऑनलाइन माध्यम से दूरस्थ शिक्षा का सहारा लिया है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे शिक्षा से चूक रहे हैं क्योंकि उनके पास ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने का साधन उपलब्ध नहीं है।
Online Education

क्या तुम्हें स्कूल की याद आती है?

हां।

तुम्हें स्कूल जाना क्यों पसंद है?

वहां पढ़ाई होती है तो अच्छा लगता है।

आजकल घर में तुम सारा दिन क्या करती हो?

अपने दोस्तों के साथ खेलती हूं।

क्या तुम्हारे माता-पिता के पास स्मार्टफोन है?

नहीं।

क्या तुम्हें ऑनलाइन क्लासेस के बारे में कुछ पता है?

नहीं।

यह बातचीत छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के अटारिया गांव की रहने वाली हिमानी यादव से फोन के ज़रिए हुई। हिमानी यादव अटारिया गांव के ही प्राथमिक स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ती है।

बीते दो महीनों से कोरोना संकट और लॉकडाउन के चलते भारत में स्कूल बंद हैं। सरकारों की तरफ से ऑनलाइन शिक्षा की व्यवस्था की गई है। लेकिन कई जगहों पर बच्चों के पास स्मार्टफोन और इंटरनेट की सुविधा के अभाव के कारण वो इसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। ऑनलाइन शिक्षा की यह सुविधा शहरी क्षेत्रों के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों तक तो पहुंच रही है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों से यह अभी भी कोसों दूर है।

हिमानी यादव की तरह ही कई ऐसे बच्चे हैं जो स्कूल जाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें नहीं पता है कि उनके स्कूल कब खुलेंगे। हमारी जिन बच्चों और शिक्षकों से बात हुई उनमें ज्यादातर को तो ये तक नहीं पता है कि ऑनलाइन क्लास क्या होता है।

हिमानी अपने दोस्तों के साथ खेलती हुई। फोटो- दिनेश साहू

हिमानी अपने दोस्तों के साथ खेलती हुई। फोटो- दिनेश साहू

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बारका गांव में रहने वाले अर्जुन शाही कहते हैं, “हम गांव में रहने वाले लोग हैं। हमें नहीं पता है कि ऑनलाइन क्लास क्या होता है।” अर्जुन ने बताया कि उनका बेटा गांव के ही प्राथमिक स्कूल में पांचवी कक्षा में पढ़ता है।

26 साल के अमर कुमार सिंह क्रांतिकारी युवा क्लब के संस्थापक हैं। वह कहते हैं कि ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में जूम या दूसरे ऐप के जरिए पढ़ाई संभव ही नहीं है। यहां बच्चों और शिक्षकों को चॉक और ब्लैकबोर्ड के ज़रिए पढ़ाई करने की आदत है। इन्हें व्हाट्सएप और वॉइस रिकॉर्डिंग के ज़रिए नोट्स और विडियो भेजने का कोई मतलब नहीं है।

इस युवा क्लब में 20 सदस्य हैं जो झारखंड के रामगढ़ जिले में रहने वाले जनजातीय लोगों की स्वच्छता और उनके शिक्षा संबंधी जरूरतों पर काम करते हैं। वर्तमान में यह टीम जिला प्रशासन के साथ मिलकर लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण इलाकों के बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने का काम कर रही है। अमर कुमार चिंता जाहिर करते हुए पूछते हैं, “हमें नहीं पता कि स्कूल कब खुलेंगे. और अगर स्कूल खुल भी गए तो क्या माता-पिता इस परिस्थिति में अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे?”

फरवरी में लोकसभा में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा पेश की गई रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के स्कूल छोड़ने के प्रमुख कारण गरीबी, खराब स्वास्थ्य और घर की कामों में मदद करना है।

मार्च में लगे लॉकडाउन के बाद से सभी स्कूलें बंद हैं। फोटो- शिवानी गुप्ता

मार्च में लगे लॉकडाउन के बाद से सभी स्कूलें बंद हैं। फोटो- शिवानी गुप्ता

लॉकडाउन का ग्रामीण बच्चों पर प्रभाव के बारे में बात करते हुए सौरमंडल फाउंडेशन के संस्थापक नागाकार्तिक कहते हैं कि इसका सबसे ज्यादा प्रभाव ग्रामीण इलाकों में रहने वाले आर्थिक तौर पर कमजोर बच्चों पर होगा। उनके सीखने-समझने की क्षमता कम होगी। इन बच्चों के माता-पिता आर्थिक तनाव के चलते अपने बच्चों को स्कूल जाने से मना कर रहे हैं। इसका प्रभाव दीर्घकालिक होने वाला है। सौरमंडल फाउंडेशन एक गैर-लाभकारी संस्था है जो दूर-दराज के इलाकों में वंचित लोगों के बीच समाजसेवा का कार्य करता है।

2018 के एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) के अनुसार भारत में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या 2.8 फीसदी से ज्यादा नहीं है। ऐसा पहली बार हुआ था कि जब यह आंकड़ा 3 फीसदी के नीचे गया हो। इस तरह स्कूलों में कुल नामांकन 97.2 फीसदी के स्तर पर आ गया। हालांकि इसी रिपोर्ट के अनुसार इस तरह के आंकड़ों में दिखने वाले ये सुधार ग्रामीण स्कूलों की असल स्थिति को प्रदर्शित नहीं करते हैं। बच्चों को स्कूल तो भेज दिया जाता है पर शिक्षा के स्तर में कोई सुधार नहीं होता।

हाल ही में, उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षकों को व्हाट्सएप समूहों, ऑल इंडिया रेडियो (AIR) और सामुदायिक रेडियो के माध्यम से शैक्षिक सामग्री भेजने की सलाह दी थी, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ टीवी कवरेज सीमित है। यह कागज पर एक अच्छा विचार हो सकता है, लेकिन किसी ने भी व्यावहारिक समस्याओं जैसे कि इंटरनेट कनेक्टिविटी, सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या और ग्रामीण इलाकों में छात्रों के लिए इंटरनेट डेटा पैक की उपलब्धता के बारे में सोचने की जहमत नहीं उठाई।

उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले के हसुरी औसानपुर गाँव के ग्राम प्रधान दिलीप त्रिपाठी कहते हैं कि इन योजनाओं में से अधिकांश कागज पर ही हैं। इनमें से शायद ही कुछ जमीनी स्तर पर हुआ हो। वह बताते हैं कि हमारे गांव में शायद ही कोई हो जिसके घर में रेडियो हो। उन्हें नहीं लगता कि 10 फीसदी लोग भी इन रेडियो व्याख्यानों से अवगत होंगे।

इन योजनाओं के प्रभाव और क्रियान्वयन पर चर्चा करते हुए नागाकार्तिक कहते हैं कि वर्तमान परिस्थिति के अनुसार रेडियो जैसे संचार माध्यमों का बड़े पैमाने पर उपयोग बहुत जरूरी है। लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि यह कितना प्रभावी साबित होगा। वह यह भी कहते हैं कि घर पर पढ़ाई के दौरान एक गरीब बच्चे के सामने स्मार्टफोन की उपलब्धता, पढ़ने की जगह और नई चीजों को सीखने के लिए उपयुक्त माहौल जैसी कई तरह की चुनौतियां होती हैं।

अधिकतर ग्रामीण छात्रों के पास मोबाइल की सुविधा उपलब्ध नहीं है। फोटो-शिवानी गुप्ता

अधिकतर ग्रामीण छात्रों के पास मोबाइल की सुविधा उपलब्ध नहीं है। फोटो-शिवानी गुप्ता

2011 की जनगणना के अनुसार 91.8 करोड़ की अनुमानित आबादी में से ग्रामीण भारत में केवल 18.6 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) की रिपोर्ट के अनुसार 70% ग्रामीण आबादी सक्रिय रूप से इंटरनेट का उपयोग नहीं करता है।

शहरी और ग्रामीण भारत में इंटरनेट के उपयोगकर्ताओं की संख्या में एक बड़ा अंतर है। शहरी भारत में इंटरनेट की पहुंच लगभग 64.85 प्रतिशत है, वहीं यह ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 20.26 प्रतिशत है।

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के सूरतगंज ब्लॉक के लकुडा गाँव के एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक हिमांशु वर्मा कहते हैं, “हम बच्चों को रिकॉर्डेड ऑडियो व्याख्यान भेज तो रहे हैं, लेकिन उनमें से कई के पास स्मार्टफ़ोन नहीं है और इसलिए यह सामग्री उन तक नहीं पहुंच पा रही है।”

ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों को शिक्षित करने पर ज़ोर दिया जाता रहा है लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में माता-पिता में जागरूकता का अभाव है और वे आम तौर पर इसमें रुचि नहीं लेते।

मुजफ्फरपुर, बिहार के बड़का गाँव के रहने वाले अर्जुन कहते हैं “मेरे पास एक स्मार्टफोन है लेकिन हम यह नहीं जानते कि इसके माध्यम से बच्चों को कैसे पढ़ाया जाए।” हसुरी औसानपुर के ग्राम प्रधान दिलीप बताते हैं, “अधिकांश परिवारों के पास एक एंड्रॉयड फोन भी नहीं है, लेकिन जिनके पास है वे या तो मनोरंजन, सोशल मीडिया के लिए इसका उपयोग करते हैं या फिल्में देखते हैं।”

IAMAI की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में रहने वाले केवल 7% लोग ही शैक्षिक उद्देश्यों के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। 2019 में गांव कनेक्शन द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार साक्षात्कार में आए 18,267 लोगों में से 80% लोग ऐसे थे जो विभिन्न माध्यमों से इंटरनेट का उपयोग करते हैं। इंटरनेट का उपयोग करने वाले 15,549 लोगों में से, 6,883 लोगों ने कहा कि वे इसका उपयोग फेसबुक, व्हाट्सएप जैसी सोशल मीडिया साइटों के लिए करते हैं। इसके साथ ही 5,440 लोगों ने कहा कि वे इंटरनेट का उपयोग सोशल मीडिया के साथ ही खुद को अपडेट रखने के लिए भी करते हैं। इसके अलावा 2,403 लोगों ने कहा कि वे वीडियो देखने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं।

जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी तब उत्तर प्रदेश में कई शिक्षकों ने व्हाट्सएप ग्रुप बनाए थे और उन अभिभावकों को जोड़ा था जिनकी इंटरनेट तक पहुंच थी। दिलीप बताते हैं कि आपको विश्वास करना मुश्किल होगा, लेकिन किसी ने भी उन संदेशों का जवाब नहीं दिया।

कई शिक्षक अभिभावकों को शैक्षिक उद्देश्यों के लिए इंटरनेट का उपयोग करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं, लेकिन उनमें जागरूकता की कमी है। अमर कहते हैं, “जिन बच्चों के अभिभावक शिक्षित हैं, केवल वे ही इस लॉकडाउन के दौरान अपने बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दे रहे हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके पास स्मार्टफोन हैं या नहीं, बच्चे तभी सीखेंगे जब उनके माता-पिता जागरूक होंगे। इसके लिए हमें सामुदायिक स्तर पर काम करना होगा।”

डाटा सोर्स- IMAI

डाटा सोर्स- IMAI

कुछ पढ़ रहे हैं, बाकी खेल रहे हैं

ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत से परिवारों के पास स्मार्टफोन नहीं हैं। जिनके पास हैं, वे जरूरी इंटरनेट पैक भी नहीं रखते हैं। उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के खैराबाद गांव के एक प्राथमिक विद्यालय की 39 वर्षीय शिक्षक नीलम कहती हैं, “स्कूल में नामांकित 209 बच्चों में से केवल 30-40 ही व्हाट्सएप के माध्यम से हमारे साथ जुड़े हैं। सभी बच्चों को इस पहल का लाभ नहीं मिल पा रहा है।”

इसी तरह, प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक हिमांशु ने हमें बताया कि लाकौड़ा प्राथमिक विद्यालय में लगभग 100 बच्चे नामांकित हैं, लेकिन उनमें से केवल 50% के पास ही स्मार्टफोन हैं और बाकी लोग इंटरनेट पैक नहीं होने की समस्या से जूझ रहे हैं।

उत्तरप्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले के हसुरी औसानपुर गांव के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक राम कृपाल कहते हैं, हम सभी बच्चों के संपर्क में नहीं हैं। कुल 233 छात्रों में से केवल 20-25 ही व्हाट्सएप के माध्यम से हमारे संपर्क में हैं। केवल कक्षा 4 और 5 में पढ़ने वाले बच्चे ही हमसे संपर्क करने की कोशिश करते हैं।

नागाकार्तिक कहते हैं कि कई छात्र शिक्षा से चूक गए हैं और एक संभावित समाधान के बारे में बात कर रहे हैं। वे कहते हैं, “इसके लिए अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है। सरकार को कम संसाधन वाले इलाकों में असल जरूरतों को समझने और बेहतर तरीकों से निवेश करने की जरूरत है।”

“बेकार क्यों बैठे हो, खेतों में हमारी मदद करो”

आमतौर पर मार्च महीने में अधिकांश किसान अगली फसल के लिए फसलों की कटाई और बुआई करते हैं। इससे बच्चों की शिक्षा भी प्रभावित होती है। दिलीप बताते हैं, “माता-पिता अपने बच्चों को यह कहते हुए खेतों मं ले जाते हैं कि चूंकि उन्हें स्कूल नहीं जाना है, इसलिए उन्हें फसलों की कटाई में मदद करनी चाहिए। इससे उन्हें दिन में अतिरिक्त फसल कटाई करने में मदद मिलती है।”

इसी तरह राम कहते हैं, “हम माता-पिता और बच्चों दोनों को इस बारे में जागरूक करने की कोशिश करते हैं कि फसलों की कटाई से उनका भविष्य उज्ज्वल नहीं होगा। इस साल लॉकडाउन के कारण हमें डर है कि माता-पिता अपने बच्चों को अपने साथ खेतों में ले गए होंगे।”

हिमांशु कहते हैं, “अधिकांश घरों में एक ही मोबाइल फोन है। इसे उनके माता-पिता अपने पास रखते हैं। आमतौर पर जब हम बच्चों से संपर्क करने की कोशिश करते हैं, तो उनके माता-पिता फोन उठाते हैं। वे हमसे कहते हैं कि वे खेतों में हैं और हम बाद में उन्हें फोन कर लें।”

यद्यपि बच्चों को अगली कक्षा में पदोन्नत किया गया था और सत्र केवल जुलाई में ही शुरू होगा, इसलिए अध्यापकों के पास कक्षा में पहले से पढ़ाए गए अध्यायों को फिर से पढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। शिक्षा की खाई को पाटने के लिए व्हाट्सएप ग्रुप बनाए गए हैं।

नीलम कहती हैं, “कुछ नहीं से बेहतर है कुछ सही, इस लिहाज से हम पुराने अध्यायों के नोट्स बना रहे हैं ताकि बच्चों की पढ़ाई में कोई अंतर न हो।” हालाँकि नागाकार्तिक का मानना है कि अगर ऑडियो फॉर्मेट में उन्हीं किताबों और पाठों को पढ़ाया जा रहा है तो इसका प्रभाव बहुत ही कम होगा।

राम कहते हैं कि “हम इन व्हाट्सएप ग्रुप में बच्चों को चित्र और ग्राफिक्स भेजते हैं। हम गणित, अंग्रेजी और हिंदी जैसे विषयों के लिए प्रश्न तैयार करते हैं। हम उन्हें नियमित रूप से पेंट करने और व्यायाम करने के लिए भी कहते हैं। जिन बच्चों को जोड़ा गया है, वे बहुत होशियार हैं, उन्हें किसी भी तरह का संदेह होता है तो वे हमसे पूछ लेते हैं।”

नीलम कहती है कि उनके गांव में लगभग 90 फीसदी परिवारों के पास एक फोन जरूर है, भले ही वह स्मार्टफोन ना हो। वह बताती हैं, जिन लोगों के पास स्मार्टफोन नहीं है उन बच्चों से संपर्क करने के लिए हम वॉइस कॉल कर लेते हैं।

शिक्षा प्रदान करने के लिए विभिन्न आसान तरीकों का सुझाव देते हुए नीलम कहती हैं, “जिन बच्चों के पास एंड्रॉइड फोन नहीं है, उन्हें टेक्स्ट मैसेज के माध्यम से रोज़ होमवर्क भेजा जा सकता है। व्हाट्सएप इस्तेमाल करने की आदत पड़ने के बाद हमने इनबॉक्स का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। इसके अलावा, सरकार बच्चों को मुफ्त डेटा पैक प्रदान कर सकती है क्योंकि गरीब परिवार के लोग नियमित रूप से महंगे डेटा पैक नहीं खरीद सकते। यह हमें व्हाट्सएप के माध्यम से कई बच्चों से संपर्क करने में मदद करेगा। 

अनुवाद- शुभम ठाकुर

इस स्टोरी को मूल रूप से अंग्रेजी में यहां पढ़ें।

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