-शिवांगी सक्सेना, अंकित शुक्ला
बिहार की नदियों में पानी का बढ़ना-उतरना राज्य में बाढ़ के खतरे को बनाए हुए है। बाढ़ से राज्य के 16 ज़िलों के 69 लाख से ज़्यादा लोग प्रभावित हैं। कई गांवों में पानी 7 से 8 फ़ीट भर गया है।
इस बार भी बाढ़ से आई त्रासदी की तस्वीरें विकास के दावों की पोल खोलती नजर आ रही हैं। किसानों के खेत और उनके पाले मवेशी बाढ़ की चपेट से नहीं बच सके। जहां एक तरफ मानव जीवन तबाह होने की खबरें सुर्खियां बटोरने में कुछ कामयाब हो जाती हैं, वहीं जानवरों के मरने की खबरें नदारद हैं।
दुलार चंद सिवान के मठियागांव के निवासी हैं और गांव में ही मछली पालन से उनका घर चलता है। बूढी गंडक नदी में अचानक पानी उफान पर चढ़ने से बांध को तोड़कर पानी गांव में आ गया। बाढ़ का पानी दुलार चंद के तालाब में भर गया और उनकी मछलियां तालाब से बाहर निकल आईं। उन्हें इतना समय भी नहीं मिल पाया कि वो जाल बिछाकर अपनी मछलियां बचा पाएं।
इस अनकही तबाही ने केवल दुलार चंद ही नहीं बल्कि आस- पास के अन्य किसानों को भी प्रभावित किया है। इसी दौरान हमारी बात आजाद से हुई। आजाद पास के बंसोहीं गांव में रहते हैं। मीट की दुकान होने के साथ ही वो मछली पालन भी किया करते हैं। बाढ़ का पानी घुस आने से उन्हें लाख रूपए का नुक़सान झेलना पड़ा है।
उठाना पड़ेगा लाखों का नुकसान
गांव में रहने वाले लोग अपनी जमीन पर तालाब खोदकर किराये पर दिया करते हैं। किराया तालाब के आकार पर निर्भर करता है। दुलारचंद जैसे गांव में रहने वाले कई किसान किराये पर तालाब लेकर मछलियां पालते हैं। ये किसान मछलियों के बीज लाकर इन तालाब में डालते हैं और इनके तैयार होने तक इनकी देखरेख किया करते हैं। मछली के बीज मार्केट में पांच सौ रूपए प्रति सैंकड़ा या मछली की नस्ल के अनुसार प्रति किलो के हिसाब से बिकते हैं। मछली बनने में तीन से चार महीने तक का समय लग जाता है।
आजाद ने दो महीने पहले ही चालीस हज़ार रूपए देकर मांगूर नस्ल की मछलियां खरीदी थीं। ये मछलियां जल्दी तैयार हो जाती हैं। इन मछलियों को ये किसान रु. 100 से रु. 120 में बेचते हैं। लेकिन मछलियों के तैयार होने से पहले ही बाढ़ का पानी तालाब में भर जाने से मछलियां तालाब से बाहर आ गिरी। अब तालाब में बाढ़ के पानी के सिवा कुछ नहीं बचा है जिसे बेचकर आजाद अपना घर चला सकें।
आजाद ने हमें बताया कि इन मछलियों को पालने में कई अतिरिक्त खर्चों का भी ध्यान रखना पड़ता है। वे इन मछलियों को हर रोज चार-पांच किलो दाना डालते हैं। तालाब में जहर फेकने और मछली चोरी का डर बना रहता है। इसलिए दिन से लेकर रात तक तालाब पर निगरानी रखने के लिए कोई न कोई मौजूद रहता है।
आजाद ने कहा, “मछली खरीदने से लेकर उसे पालने और उसकी देखरेख में अच्छा- खासा पैसों का खर्चा हो जाता है। उन्हें कीड़ों से बचाना पड़ता है। फिर निगरानी रखने की मेहनत अलग। ऐसे में हमारा लाख रुपया लग जाता है।” आजाद की गांव में मीट शॉप भी है। कोरोना महामारी और बाढ़ की दोहरी मार झेल रहे आजाद ने बताया कि गांव में फैली कोरोना वायरस के दौरान मुर्गा ना खाने और धर्म विशेष से जुडी अफवाहों ने उनकी रोजी-रोटी को प्रभावित किया है ।
‘सेठ से खरीदकर कम मुनाफे पर बेचनी पड़ेंगी मछलियां’
जिस पानी पर निर्भर दुलारचंद अपना घर चलाया करते थे, उसी पानी ने आज बाढ़ का रूप लेकर उन्हें डुबा दिया है। दुलारचंद पर उनके संयुक्त परिवार के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी है। लेकिन बाढ़ ने उनकी मेहनत पर पानी फेर दिया। अचानक बाढ़ का पानी उनके तालाब में घुस आया। उनकी मछलियां भी तालाब से निकलकर इधर- उधर निकल गईं।
दुलारचंद धान की खेती करते हैं लेकिन बाढ़ का पानी उनके खेत में भी घुस गया और उनकी खेती नष्ट हो गई। मछली पालन से उन्हें सबसे अधिक मुनाफा हुआ करता है। मगर अब उनके पास रोजगार का कोई दूसरा साधन नहीं बचा है। ऐसे में बड़े सेठ से मछलियां खरीदकर बेचना उनकी मजबूरी है। मुनाफ़ा कम मिलेगा लेकिन बाढ़ के कारण उनके पास अन्य कोई रास्ता नहीं बचा है।
दुलारचंद ने बताया,” बाढ़ का पानी तालाब में घुस आने से मछलियां बाहर निकल आईं हैं। अब इन्हे कोई भी पकड़कर खा या बेच सकता है। फसल बर्बाद हुई तो कुछ रुपये मिल जाते हैं लेकिन बाढ़ में घर टूटने व मवेशियों के मरने पर कोई मुआवजा नहीं मिलता है। हमें बड़ा नुक़सान हुआ है।”
बिहार के बाढ़ प्रभावित जिलों में बचाव और राहत कार्य तेजी से जारी है। राहत और बचाव के लिए राज्य में NDRF की 19 और SDRF की 5 टीमों की तैनाती की गई है। बाढ़ग्रस्त इलाकों में फंसे हुए लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जा रहा है। बिहार में हर साल बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा से जान-माल का काफ़ी नुकसान होता है। लाखों को अपना गांव, घर और व्यवसाय लोगों को छोड़ना पड़ता है।
राहत की बात यह है कि कुछ नदियों में पानी अब खतरे के निशान से नीचे बहने लगा है। हर वर्ष ही दर्जनों गांवों में बाढ़ का पानी घुस आता है। लेकिन राज्य सरकार हर बार ही विफल साबित होती रही है।आजाद और दुलारचंद जैसे कई किसान जो मछली पालन जैसे व्यवसायों से जुड़े हुए हैं, लेकिन मुआवजे के आवंटन के दौरान उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता रहा है। वे बाढ़ में अपनी महीनों की मेहनत और पैसा सब गवां देते हैं। मगर मुआवजे के नाम पर उन्हें कुछ नहीं मिलता।
(शिवांगी सक्सेना गांव कनेक्शन में इंटर्नशिप कर रही हैं, जबकि अंकित शुक्ला सिवान से स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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