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कोरोना महामारी के चलते दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर राजस्थानी लोकगीत कलाकार

राजस्थान का ढोली समुदाय नगाड़ा यानी पारंपरिक ढोल बजाने का काम करता है जबकि भांड समुदाय के लोग मनोरंजक गीत गाते हैं। कोरोना लॉकडाउन के इस कठिन समय में ये सभी लोकगीत कलाकार अपनी आय का पारंपरिक साधन खो चुके हैं और अब दिहाड़ी मजदूरी की तलाश कर रहे हैं।
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संस्कृति तलवार

राजस्थान के अजमेर जिले के पुष्कर शहर के नाथू लाल सोलंकी के लिए अब तक यह साल अंतहीन इंतजार का रहा है। नाथू लाल को हर समय इंतजार रहता है कि किसी त्यौहार, समारोह या अन्य पावन मौके पर उन्हें कोई आमंत्रण देगा, जहां वे अपनी कला का प्रदर्शन कर सकेंगे। नाथू लाल पेशे से लोक कलाकार हैं और उनके परिवार की आजीविका इसी पर निर्भर रहती है।

सोलंकी गांव कनेक्शन से बताते हैं, “मुझे कोई अंदाजा नहीं है कि इस साल की सारी एडवांस बुकिंग कैंसिल होने के बाद मैं अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे कर पाऊंगा? कमाई का एक सीजन (मार्च से अप्रैल) पहले ही चला गया है। हमें रोजगार के अन्य साधनों की ओर रुख करना होगा।”

अगले सीजन यानी नवंबर से शादी का दौर शुरू हो रहा है, मुझे उम्मीद है कि हमारे काम को तेजी मिलेगी। हालांकि कुछ देर बाच सोचते हुए वह कहते हैं, “मुझे यकीन नहीं है कि हमें शादियों में परफॉर्मेंस के लिए आमंत्रित किया जाएगा क्योंकि कोरोनो वायरस के चलते सरकार ने किसी समारोह में शामिल होने वाले मेहमानों की संख्या अधिकतम 50 लोगों तक ही सीमित कर दी है।” सोलंकी और उनका परिवार राजस्थान में अनुसूचित जाति ढोली (ढोल बजाने वाले) समुदाय से हैं।

नाथू लाल सोलंकी राजस्थान के पुष्कर में अपने घर पर अभ्यास करते हुए. फोटो

नाथू लाल सोलंकी राजस्थान के पुष्कर में अपने घर पर अभ्यास करते हुए. फोटो

राजस्थान में सात समुदायों को पारंपरिक लोक संगीतकारों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इन सभी समुदायों के कलाकारों की आजीविका कोरोनो वायरस महामारी के कारण प्रभावित हुई है। महामारी के कारण कई सामाजिक समारोह या तो रोक दिए गए या वे रद्द हो गए हैं। 24 मार्च को हुई देशव्यापी लॉकडाउन से पहले मार्च में होली समारोह रद्द किया गया।

सोलंकी लोकगीत कलाकारों के जिस घराने से हैं, उनका अतीत बहुत पुराना है। उनके पूर्वजों के तेरह पीढ़ियों ने पुष्कर के प्रसिद्ध ब्रह्मा मंदिर में नगाड़ा बजाया है। इससे पहले वह हर शाम पुष्कर झील के गणगौर घाट पर नगाड़ा बजाने जाया करते थे। उनका जन्म मंदिर परिसर में ही हुआ था और उन्होंने अपने दिवंगत बड़े भाई राम किशन सोलंकी से नगाड़ा बजाना सीखा था।

बाद में उन्हें राजस्थान के लोक संगीत में योगदान के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया, जो कलाकारों को दी जाने वाली सर्वोच्च भारतीय पुरस्कार है। सोलंकी अब संगीत और वाद्ययंत्र के इस पारंपरिक और पुश्तैनी ज्ञान को अपने तीन बेटों और एक पोते को भी दे चुके हैं।

वह कहते हैं, “मेरे दिवंगत भाई ने नगाड़ों को मंदिर से निकालकर घाट तक लाए। बाद में उन्होंने देश और विदेश में भी परफार्मेंस दिया और परिवार को बेहतर आजीविका कमाने का मंच प्रदान किया।”

लेकिन अब लॉकडाउन में बिना किसी आय के इतने बड़े परिवार को खिलाना-पिलाना कठिन हो रहा है। सोलंकी ने कहा, “हमारे परिवार में 12 सदस्य हैं और सबकी रसोई एक में ही है। भले ही सरकार ने लॉकडाउन के दौरान मुफ्त राशन की घोषणा की है, लेकिन यह मेरे परिवार के लिए नाकाफी है।”

हाल ही में किए गए गांव कनेक्शन के एक सर्वे के अनुसार, 63 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा गेहूं या चावल मिलने की पुष्टि की। कोरोना महामारी के दौरान हुए लॉकडाउन के प्रभाव को समझने के लिए ग्रामीण भारत के 23 राज्यों में किया गया पहला राष्ट्रीय ग्रामीण सर्वे है।

हालांकि सरकार से राशन प्राप्त करने वाले परिवारों को लॉकडाउन के दौरान भोजन प्राप्त करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा जो दर्शाता है कि राशन अपर्याप्त था। सर्वे के अनुसार, सरकार से राशन प्राप्त करने वालों में से 32 प्रतिशत को लॉकडाउन के दौरान भोजन प्राप्त करने में बहुत अधिक कठिनाई हुई।

लोक गायक बना दिहाड़ी मजदूर

कुछ ऐसा ही हाल राज्य के भांड समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोक गायक 30 वर्षीय लक्ष्मण द्वारिका का भी है। वह राजस्थान के नागौर जिले के मेड़ता गांव में रहते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रद्द हो जाने के कारण, लक्ष्मण अप्रैल से अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं।

द्वारिका ने गांव कनेक्शन को बताया, “प्रदर्शन करने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं हो रहे हैं, इसलिए जब गांव में कहीं घर बन रहा होता है तो मैं मजदूरी का काम कर लेता हूं। इस तरह मैं प्रतिदिन 200-300 रुपये कमा लेता हूं। मैं और कर भी क्या सकता हूं? मुझे अपने सात बच्चे (पांच लड़कियां और दो लड़कों) की देखभाल भी करनी है।”

लक्ष्मण द्वारिका राजस्थान के लोक कलाकार हैं, जो भांड समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इस समुदाय को एंटरटेनर, जोकर और फेस्टर के नाम से भी जाना जाता है। फोटो

द्वारिका 14 साल के थे जब उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। अब इस महामारी के समय वह अक्सर उस निर्णय पर पछतावा करते हैं लेकिन तब उनके पास कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। अपने पिता के बीमार होने के बाद द्वारिका को अपने परिवार का साथ देने के लिए शादियों और अन्य कार्यक्रमों में गाना शुरू करना पड़ा था।

नवंबर से फरवरी के चार महीनों के बीच में द्वारिका शादी समारोह में गाने का काम करते हैं, जिससे उन्हें प्रति माह 30,000 रुपये तक की आमदनी होती है। वर्ष के अन्य महीनों के दौरान भी वह दूसरे समाराहों से प्रति माह 20,000 रुपये तक कमाने में कामयाब रहते हैं, जिससे उनका और उनके परिवार का एक साल का खर्चा निकल जाता है।

हालांकि इस साल लॉकडाउन का उनके परिवार पर बुरा असर पड़ा। वह दुःखी होकर कहते हैं, “लॉकडाउन से हमें गंभीर चोट आई है।”

राजस्थान के एक समारोह में प्रदर्शन करते लक्ष्मण द्वारिका और अन्य. फोटो

राजस्थान के एक समारोह में प्रदर्शन करते लक्ष्मण द्वारिका और अन्य. फोटो

“हमारे लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी एक चुनौती है। हमें सिर्फ दिन में एक बार खाना मिलता है। दिन में हम मिर्च पीस के उसकी चटनी बनाते हैं और रोटी के साथ खाते हैं। रात में हम सिर्फ दाल या कोई सब्जी बना लेते हैं। कई बार मैं अपनी पत्नी से बोलता हूं कि दाल में ज्यादा पानी डाले ताकि हम उसे सुबह भी खा सकें। सुबह हम ज्यादातर रात का बचा खाना ही खाते हैं,” लक्ष्मण दुःखी मन से बताते हैं।

बढ़ा हुआ कर्ज

पिछले पांच महीनों में कोई आय नहीं होने की वजह से लोक कलाकारों को स्थानीय महाजन और साहूकार टाइप के लोगों से पैसे उधार लेने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। अभी पिछले ही दिन सोलंकी के कुछ साथियों ने घर के खर्चों में मदद करने के लिए अप्रैल महीने में 15,000 रुपये भेजे थे।

गांव कनेक्शन के सर्वे के अनुसार 23 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने तालाबंदी के दौरान पैसे उधार लिए, जिनमें से 71 प्रतिशत ने घरेलू खर्चों को पूरा करने के लिए पैसे उधार लिए।

उन्होंने कहा, “हमें उम्मीद थी कि अप्रैल के बाद लॉकडाउन हटा दिया जाएगा लेकिन इसे बढ़ा दिया गया। पिछले पांच महीनों से हम बिना किसी आय के घर पर बेकार बैठे हैं। हम रोज सुबह उठकर केवल खुद को तसल्ली देते हैं कि एक और दिन बीत चुका है। हम कलाकार हैं। हमें अपना पेट भरने के लिए परफॉर्मेंस करना ही पड़ता है।”

द्वारिका को भी तालाबंदी के दौरान पैसा उधार लेना पड़ा और अब उन पर 50,000 रुपये तक का कर्ज हो चुका है।

उन्होंने कहा, “हर कोई कोरोनोवायरस से डरा हुआ है। हमारे जैसे कलाकार भीड़ को खींचते हैं लेकिन इस महामारी में कौन भीड़ इकठ्ठा करेगा? अगर आने वाले महीनों में स्थिति स्थिर हो जाती है, तो भी वैसा माहौल नहीं बन पाएगा।”

लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी अभी यह नहीं पता कि सब कुछ वैसा हो पाएगा इसलिए द्वारिका सेकेंड हैंड कार खरीदने की सोच रहे हैं। अब वह ड्राइवर बनने पर विचार कर रहे हैं। इसके साथ ही वह यह भी कहते हैं कि अगर उन्हें निमंत्रण मिलता है तो वह कार्यक्रमों में राजस्थानी लोक संगीत गाना जारी रखेंगे। वह कहते हैं, “मेरे सिर पर तो बहुत वजन है। मुझे सात बच्चों को पढ़ाना है और पांच बेटियों की शादी करनी है।”

द्वारिका की तरह ही जयपुर में भांड समुदाय से ताल्लुक रखने वाले 35 वर्षीय विजय राणा, दुकान डालने या ड्राइवर के रूप में काम करने पर विचार कर रहे हैं। हालांकि जीवन के इस उम्र में पर जोखिम लेने से वह डरते भी हैं।

जयपुर जिले की सांगानेर तहसील के वाटिका गांव के मूल निवासी, राणा ने बचपन में लोक कलाकार के रूप में अभिनय करना शुरू किया था। राणा गांव कनेक्शन से कहते हैं, “जिन्होंने शुरूआत से ही केवल संगीत गाना और बजाना सीखा है, वह अब और कुछ कैसे कर सकते हैं? कभी-कभी मुझे लगता है कि मुझे सिर्फ एक संगीतकार होने के अलावा और भी कुछ होना चाहिए।”

विजय राणा कहते हैं कि अगर लॉकडाउन जुलाई से लगा होता तो लोक कलाकारों की स्थिति उतनी बुरी नहीं होती जितनी अब है।

विजय राणा कहते हैं कि अगर लॉकडाउन जुलाई से लगा होता तो लोक कलाकारों की स्थिति उतनी बुरी नहीं होती जितनी अब है।

संगीतकारों से भरे उनके परिवार ने एक लंबा सफर तय किया है। त्योहारों में गांवों की गलियों में गाते हुए अब उनका परिवार राज्य की राजधानी जयपुर के होटलों में प्रदर्शन करने का रूख कर चुके हैं।

द्वारिका के अनुसार भांड समुदाय हमेशा से मनोरंजन करने का काम करता रहा है। वह कहते हैं, “इससे पहले हम राजाओं के महलों में उनको रिझाने का काम किया करते थे। उन महलों को अब होटलों में बदल दिया गया है।”

राणा कहते हैं, “इस समय कोरोनोवायरस के कारण होटलों में बहुत कम या कोई मेहमान नहीं होता है तो हम किसके लिए प्रदर्शन करें?” राणा होटलों में प्रदर्शन करके महीने में 25,000 रुपये तक की कमाई कर लेते थे। कभी-कभार अगर कोई उदार दर्शक मिल गया तो यह कमाई 30,000 रुपये तक भी पहुंच जाती थी।

उन्होंने आगे कहा, “अब तो मुझे मेरे तीन बच्चों (दो बेटियां और एक बेटा) को खाना खिलाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।”

लॉकडाउन से संगीतकार और कलाकार बुरी तरह प्रभावित हुए हैं हालांकि वह इस बीमारी के खतरे से भी अवगत हैं। वह कहते हैं, “महामारी से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना जरूरी है। जीना चाहते हैं, तो महामारी से दूर रहना ही पड़ेगा। जिंदा रहेंगे तो ही कला दिखा पाएंगे।”

इस स्टोरी को मूल रूप से अंग्रेजी में यहां पढ़ें।

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