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संवाद: कोरोना काल में सरकार मनरेगा में भी शुरू कराए पेड़ लगाने का कार्यक्रम

मनरेगा में सरकार को 'पेड़ लगाओ कार्यक्रम' को भी जोड़ना चाहिए। इससे पर्यावरण को भी फायदा होगा, साथ ही साथ किसानों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार होगा।
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– स्वामी प्रेम परिवर्तन उर्फ पीपल बाबा

देश की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था रही है। हमारी आबादी का 90 % हिस्सा कृषि पर ही निर्भर था लेकिन धीरे-धीरे भूमिहीन किसान शहरों की ओर पलायन करने लगे। हालांकि कोरोना के कारण लगे देशव्यापी लॉक डाउन के बाद दूसरे शहरों में रहने वाले करोड़ो श्रमिक अपने-अपने गांव वापस आ गए। ये श्रमिक अब गावों में अपने रोजगार के अवसर तलाश रहे हैं।

सरकार की मनरेगा योजना भी लोगों के लिए रोजगार का एक बड़ा माध्यम बनी है। इस योजना में सरकार अगर ‘पेड़ लगाओ कार्यक्रम’ को जोड़े तो आने वाले समय में ये पेड़ वृक्ष बनकर हमें शुद्ध वातावरण मुहैय्या कराएंगे, साथ ही साथ इनके उत्पादों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आय का एक बड़ा स्त्रोत भी बन कर तैयार होगा।

सरकार अगर देश के सभी गावों के ग्राम समाजी जमीनों पर शीशम, आम, अमरुद, सागौन, जामुन आदि का पेड़ लगवाकर उसकी देखभाल के लिए बाहर से आए मजदूरों को रोजगार दे तो आने वाले समय में ये पेड़ पूरे देश में हरियाली बढ़ाने के साथ-साथ सरकार और ग्राम सभा के लिए आय का बड़ा जरिया बनेंगे।

अधिक लोगों के कृषि कार्य से जुड़ने से जहां उत्पादन आवश्यकता से अधिक होगी, वहीं फसलों के दाम गिरने के भी आसार होंगे। इससे प्रति व्यक्ति कृषि आय कम होगी। ऐसे में अगर लोग अपने जमीन के चारो ओर पेड़ लगाएं या फिर जमीन के कुछ हिस्से में पूरा पेड़ लगाकर उसकी देखभाल करें तो वो उनका फिक्स डिपोजिट होगा क्योंकि 20 साल बाद ये पेड़ तैयार होकर अर्थव्यवस्था और पर्यावरण सुधार में चार चांद लगाएंगे।

हमारा देश कृषि प्रधान देश है। आजादी के समय हमारे देश की अर्थव्यवस्था 87% से ज्यादा कृषि पर आधारित थी। 1991 में लाए गए एल पी जी (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) की नीतियों की वजह से हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान कम होता गया।

जो चीजें लघु व कुटीर उधोग, कृषि से जुड़े हुए थे, उसे हमने दरकिनार कर दिया जाने लगा। अनेक बदलाव हुए लेकिन इससे देश की आत्मा का हरियाली से संबंध टूट गया। जो हमारी नाभि थी हमने उसे काट दिया और अपना नाता ज्यादे आमदनी के लिए औधोगिक उत्पादन से जोड़ लिया। बड़े पैमाने पर गावों से लोग शहर में कारोबार करने जाने लगे।

यह वह दौर था जब देश के मध्यम और निम्नवर्गीय लोग मध्य एशिया के देशों में भी नौकरी करने गए। लेकिन कोरोना जैसी वैश्विक बीमारी के पूरी दुनिया में तेजी से प्रसार की वजह से देश ही नहीं पूरी दुनिया में आवागमन और आयात निर्यात में गिरावट आई है। नतीजतन हमारी अर्थव्यवस्था फिर से बंद अर्थव्यवस्था के स्वरूप में आ गई है। इसके अपने फायदे और नुकसान दोनों हैं।

कृषि पर निर्भरता और कृषि के क्षेत्र में लोगों के द्वारा जुड़ने की रफ्तार को देखने के लिहाज से ऐसा लगता है कि कृषि में उत्पादन खूब बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में बाजार की भी अपनी जरूरत होगी और बाजार में अगर अधिक माल आया तो उत्पादों के दाम भी गिरेंगे। कुल मिलाकर खेती घाटे का सौदा हो सकती है।

इन सब चीजों को अगर नियोजित तरीके से किया जाय तो खेती किसानी से जुड़ने वाले लोगों के इस लॉक डाउन में किये गए कार्य से भविष्य में काफी लाभ कमाया जा सकता है। किसान खेती के कार्य के साथ-साथ अपने खेतों के किनारे पेड़ लगाएं या फिर पेड़ों के बागीचे लगायें जिससे कोरोना के बाद इन पेड़ों के तैयार होने से काफी फायदा होगा। आज किए गए मेहनत से आने वाले समय में करोड़ो के पेड़ और फल तैयार होंगे। इससे देश को शुद्ध हवा और किसानों को आय का जरिया विकसित होगा।

भारत में कोरोना संकट के कारण करोडो मजदूर बेरोजगार हुए हैं, वहीं निजी प्राइवेट नौकरी करने वाले लोगों के सामने भी रोजगार बचाने का गम्भीर संकट पैदा हो गया है। इस परिदृश्य में शहरों से निराश लौट चुके लोग अपने रोजी के रास्ते को अपने गावों में तलाश रहे हैं।

लॉकडाउन में हुई असुविधाओं और दूसरे सरकारों द्वारा कमजोर प्लानिंग की वजह से खड़ी होनें वाली दिक्कतों की वजह से ढेर सारे लोगों ने यह मन बना लिया है कि वे लौटकर वापस शहर नहीं जाएंगे।

कोरोना काल में कृषि से जुड़ने वाले लोगों की तादाद काफी रही है और इनमें भी युवाओं की संख्या काफी है। जो लोग शहरों में रोजगार कर रहे थे वे गावों में आकर खेती में लग गए हैं। नतीजतन खेती में उत्पादन के बढ़ने के काफी आसार पैदा हो गए हैं।

इस परिस्थिति में हमें बड़े बाजार की जरूरत होगी। अगर हमारे उत्पादन को खरीदने के लिए निर्यात संवर्धन इकाइयों का विकास नहीं किया जाएगा तब तक इस बढ़े उत्पादन से किसानी के कार्य में लगे लोगों को को कोई फायदा नहीं होगा। बाजार की अनुपलब्धता की वजह से दाम गिरेंगे। खेती के लागत और खेती से मिलने वाली रकम में ज्यादे अंतर नहीं होगा। सच कहें तो खेती घाटे का सौदा हो जायेगी।

इस परिस्थिति में किसान अगर अपनी सोच को प्रगतिशील करते हुए खेती के साथ साथ पौधारोपड़ का कार्य करें तो खेती तात्कालिक तौर पर जीविका का साधन बनेगी। किसान खेती के साथ -साथ अपने खेतों के किनारे पर पेड़ (सागौन, शीशम, पोपुलर, सफेदा) लगाएं या फलों (आम, अमरुद, केला, नीबू और मौशम्बी) आदि के बगीचे लगाएं। आने वाले 15 से 20 साल में इसका लाभ किसानों को मिलेगा। जबतक रोजगार नहीं है तब तक लोगों को कृषि के साथ साथ कीमती लकड़ियों व फलदार वृक्षों की खेती करनी चाहिए।

हम जिन प्रगतिशील किसानों को देख रहे हैं वे खाद्यान्न की ओर नहीं बल्कि फल, सब्जी, फूल, औषधीय पौधों इत्यादि के उत्पादन की ओर झुके हैं। इस क्षेत्र में अभी भी बहुत जरूरत और संभावनाएं हैं। इसके साथ पेड़ लगाने के लिए जागरूकता और सहयोग के लिए कार्यक्रम चलें तो इस समय किए गए मेहनत से आने वाले समय में देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार को काफी तेजी से आगे बढ़ाया जा सकता है।

हमें इस समय खाद्यान्न पर फोकस करने के साथ-साथ पेड़ लगाने पर भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि खाद्यान्न की आपूर्ति उतनी ही होगी। मार्केट में ज्यादे माल होने से रेट भी गिरेंगे। पेड़ लगाने से और पेड़ों के तैयार होने के बीच में मार्केट की जरूरत नही होती। तब तक लॉकडाउन के बाद जब मार्केट पूरी तरह से खुलेगा तो इनके उत्पाद भी मार्केट में आसानी से बिक जाएंगे। 

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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