गांव का एजेंडा: प्रिय स्वास्थ्य मंत्री जी, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर होंती तो मुजफ्फरपुर में इतने बच्चे नहीं मरते

गांव का एजेंडा: प्रिय स्वास्थ्य मंत्री जी, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर होंती तो मुजफ्फरपुर में इतने बच्चे नहीं मरते

बिहार में चमकी बुखार से बच्चों की मौत के बाद स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठ रहे हैं। सवालों के घेरे में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी हैं। अगर वो सही होते तो शायद हालात इतने बद्तर न होते...

Chandrakant Mishra

Chandrakant Mishra   17 Jun 2019 7:20 AM GMT

प्रिय स्वास्थ्य मंत्री जी, आपने पदभार ग्रहण करते वक्त कहा कि देश भर के मेडिकल कॉलेज, अस्पतालों की स्थिति सुधारना, नए मेडिकल कॉलेज और अस्पताल खोलना, पहले से चली आ रही जन कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करना और इसका लाभ लोगों तक पहुंचाना हमारी प्राथमिकताओं में शामिल है। देश की बुनियादी स्वास्थ्य स्थितियां अब बदल रही हैं। लेकिन ग्रामीण भारत का एक बहुत बड़ा तबका बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम है। बदहाल ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं पर आपका ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं, जहां आपकी नजर जरूर जानी चाहिए...

देशभर में डॉक्टर्स की भारी कमी, ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति और खराब

मोदी सरकार ने पिछले साल इलाज की सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए आयुष्मान भारत योजना की शुरुआत तो की लेकिन मूलभूत सुविधाओं की ओर ध्यान ही नहीं दिया। कई रिपोर्ट में खुलासा हो चुका है कि देशभर में प्रशिक्षित डॉक्टरों की भारी कमी है। ऐसे में जब डॉक्टर ही नहीं होंगे तो बीमा का लाभ कैसे मिलेगा।

उत्तराखंड के चंपावत जिला निवासी पान सिंह (60 वर्ष ) कहते हैं, "हमारे यहां सरकारी अस्पताल हैं लेकिन वहां दवा नहीं मिलती। डॉक्टर भी नदारद रहते हैं। गंभीर रूप से बीमार होने पर हम लोग यहां से 128 किलोमीटर हल्द्वानी लेकर जाते हैं। सरकारी अस्पतालों का बहुत बुरा हाल है।"

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विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार भारत में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है, इसके बावजूद हर साल केवल 5500 डॉक्टर भर्ती हो पाते हैं। देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 50 फीसदी से भी ज्यादा कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसदी तक पहुंच जाता है। ग्रामीण अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी होने से मरीजों को उचित समय पर इलाज नहीं मिल पाता है, और वहां मौजूद स्टॉफ से ही काम चलाना पड़ता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार भारत में वर्ष 2017 में 156231 स्वास्थ्य उपकेंद्र, 25650 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 5624 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। वहीं जिला अस्पतालों की संख्या 779 और 1108 डीविजनल अस्पताल हैं।

डॉक्टर्स की कमी से जूझ रहा है पूरा देश।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलिजेंस की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है। फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के मुताबिक यह अनुपात एक प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है। बिहार जैसे गरीब राज्यों में तो तस्वीर और भयावह है। वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है। उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर नहीं है।

संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ के नेफ्रोलॉजी विभाग के डॉक्टर नारायण प्रसाद ने गाँव कनेक्शन को बताया "हमारे देश में डॉक्टरों की बहुत कमी है, जिसका खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ रहा है। जितने डॉक्टर की जरूरत है उस हिसाब से नए डॉक्टर मिल नहीं पा रहे हैं। सरकार भी नए डॉक्टर को बढ़ाने की जगह बड़े-बड़े अस्पताल खोल रही है। जब तक नर्सिंग स्टाफ और डॉक्टर नहीं रहेंगे तब तक मरीज का इलाज कौन करेगा। सरकार को प्राथमिक स्वास्थ्य पर बहुत जोर देने की जरुरत है। जब तक बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं मजबूत नहीं होंगी तक तब कुछ ठीक नहीं होने वाला है।"

भारत में हर सरकारी विभाग की गतिविधियों को दर्ज़ करने वाली संस्था ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी- 2016 के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों (सीएचसी) में 84 फीसदी विशेषज्ञों की कमी है। वहीं, पीएचसी और सीएचसी, दोनों को एक साथ लिया जाए तो उनकी जरूरत की अपेक्षा मात्र पचास फीसदी ही स्टाफ है।


मध्य प्रदेश के मुरैना निवासी कुलदीप कुमार (40 वर्ष) ने भी बताया, "सीएचसी और पीएससी की हालत खराब है, डॉक्टर उपलब्ध नहीं होते, आधुनिक उपकरणों की कमी है, जरूरत की दवाएं अस्पतालों में नहीं मिलतीं।

स्वास्थ्य विभाग द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराए जाने के भले ही दावे किए जा रहे हों, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों की तो स्थिति और चिंताजनक है।

डॉ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के चिकित्सा अधिक्षक का कहना है, "ग्रामीण इलाकों की स्थिति बेहद ही संवेदनशील है। ग्रामीण क्षेत्र के अस्पतालों में बुनियादी चीजों का अभाव है, जिस वजह से डॉक्टर्स हमेशा परेशानी में रहते हैं। डॉक्टरों को अपनी सुरक्षा का भी खतरा रहता है, जिस वजह से डॉक्टर उन इलाकों में जाने से कतराते हैं।

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वे आगे कहते हैं "विशेषज्ञ डॉक्टर अगर शहर नहीं छोड़ना चाहते तो कुछ हद तक इसके वाजिब कारण भी हैं। ग्रामीण इलाकों में सिर्फ विशेषज्ञ डॉक्टर का होना ही काफी नहीं है। उसके लिए सुविधाएं भी चाहिए। उदाहरण के लिए किसी ऑर्थोसर्जन का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में होने का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक उसके लिए जरूरी मशीनें न हों।"

स्वास्थ्य मुददे पर काम करने वाली वरिष्ठ पत्रकार पत्रलेखा चटर्जी कहती है "दरअसल, हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य का जो संदेश है, वह ज्यादातर लोगों के पास पहुंच ही नहीं पाता। जब तक फ्रंट लाइन वर्कर आशा, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को सक्रिया नहीं किया जाएगा तक तब सरकार की किसी भी स्वास्थ्य योजना का लाभ ग्रामीण तबके को नहीं मिल सकता है। इसके लिए सरकार को चाहिए कि इनके वेतन में बढोत्तरी करें, क्योंकि इन्हें बहुत कम वेतन मिलता है और काम बहुत लिया जाता है।"


शिशु मृत्यु दर घटाने के लक्ष्य से अभी काफी दूर है भारत

भारत में शिशु मृत्यु दर पिछले पांच साल की तुलना में सबसे कम है, इसके बावजूद दुनिया में इस मामले में भारत सबसे आगे है। यूनाइटेड नेशन्स इंटर एजेंसी ग्रुप फॉर चाइल्ड मॉर्टेलिटी एस्टीमेशन (बाल मृत्यु दर अनुमान के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतर एजेंसी समूह) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2018 में 8 लाख शिशुओं की मौत हो गई।

रिपोर्ट कहती है कि देश में हर 2 मिनट में 3 नवजातों की जान जाती है। रिपोर्ट में दावा किया है कि इन मौतों के पीछे भारत में पानी, स्वच्छता, उचित पोषण और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी मुख्य कारण हैं।

राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय लखनऊ के बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर ओमकार यादव का कहना है, "नवजातों की मौत के मामले हमारे देश में काफी कम हुए हैं, लेकिन आज भी इस मामले में हमारा देश सबसे ऊपर है। सरकार की तमाम प्रयासों के बावजूद अब भी हमारे देश में करीब 20 हजार नवजात बच्चे जन्म के पहले सप्ताह के दौरान ही दम तोड़ देते हैं। खासकर सुदूर ग्रामीण इलाकों में बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के साथ ही साक्षरता दर कम होने की वजह से लोगों में जागरूकता की भी कमी है। इन वजहों से ही नवजातों की मृत्यु दर पर अंकुश लगाने में कामयाबी नहीं मिल पा रही है।"


स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में उदासीनता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने आम चुनाव 2019 के लिए अपने घोषणापत्र (संकल्प पत्र) वादा किया है कि इस बार वो स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक कदम और आगे बढ़ते हुए दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना 'आयुष्मान भारत योजना' को अगले चरण तक ले जाएगी। इसके लिए 'हेल्थ फॉर ऑल' नाम का नारा भी दिया गया है।

लेकिन इससे पिछले के वर्षों में इस क्षेत्र के बहुत पैसे खर्च नहीं किये गये। केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 में बताया था कि स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र पर पिछले तीन वर्षों में देश की कुल जीडीपी की 1.2 फीसदी से लेकर 1.5 फीसदी तक की राशि खर्च की गई। स्वास्थ्य राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने पिछले तीन वर्षों में स्वास्थ्य पर ख़र्च का ब्योरा पेश करते हुए यह जानकारी दी थी। मंत्री की ओर से पेश आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2016-17 में जीडीपी का 1.5 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च हुआ। इसी तरह वर्ष 2015-16 में 1.4 फीसदी और वर्ष 2014-15 में 1.2 फीसदी राशि स्वास्थ्य पर खर्च हुई।

सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था भारत की सबसे बड़ी समस्या है फिर भी इसके बजट में कटौती की जाती है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च के मामले भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है। यहां इस मद में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज एक फीसदी खर्च किया जाता है। इस मामले में यह मालदीव (9.4 फीसदी, भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) से भी पीछे है।


वर्ष 2013-14 में सरकार सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती थी जो कि 2016-17 में बढ़कर 1.4 प्रतिशत कर दिया गया। एनडीए सरकार ने वर्ष 2017-18 के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 48,878 करोड़ रुपए का प्रावधान किया जो कि वर्ष 2013-14 में 37,330 करोड़ रुपए था।

सरकार ने 2017 में नयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति घोषित की जिसके तहत 2025 तक औसत आयु को 67.5 वर्ष से बढाकर 70 वर्ष करने का लक्ष्य रखा साथ ही जीडीपी का 2.5 प्रतिशत भाग स्वास्थ्य सेवाओं पर करने का लक्ष्य रखा गया। 2018-19 के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के लिए आवंटन 61,398 करोड़ रुपए है, जो 2017-18 के संशोधित अनुमान 51,550.85 रुपए से 2.5 प्रतिशत ही ज्यादा है।

जबकि उदाहरण के लिए दूसरे सेक्टर्स की बात करेंगे तो इसी साल (2018-19) देश के रक्षा बजट में आठ फीसदी की भारी-भरकम बढ़ोतरी करके इसे लगभग 3,00000 करोड़ रुपए कर दिया गया जो स्वास्थ्य क्षेत्र की तुलना में कई गुना ज्यादा है।

राजनीतिशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की विभागाध्यक्ष प्रो. अनुराधा अग्रवाल का कहती हैं "हमारे देश में बीमारियों के बोझ की तुलना में स्वास्थ्य सेवा का ढांचा काफी लचर है। स्वास्थ्य बजट में सरकार को प्राथमिक और आपातकालीन चिकित्सा सेवा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए, चाहे वह सरकारी हो या निजी क्षेत्र के अस्पताल।"


अनुराधा आगे कहती हैं "अभी भी 70 फीसद आबादी इलाज के लिए निजी क्षेत्र पर निर्भर है। यह तभी संभव होगा जब सरकार स्वास्थ्य बजट पर अधिक खर्च करे। सरकार को विदेशों से आयात होने वाली मेडिकल इक्यूपमेंट की कीमतों को कम करने पर काम करना चाहिए। इससे देश के मरीजों को सस्ता इलाज मिलने में मदद मिलेगी। सरकार को स्वास्थ्य बजट पर जीडीपी का कम से कम तीन से चार फीसदी खर्च करना चाहिए।"

प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल

देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क की मालिनी आइसोला ने गाँव कनेक्शन से बताया, "आयुष्मान भारत योजना का लाभ लोगों को मिल रहा है, यह अच्छी बात है, लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि इस योजना में प्राथमिक चिकित्सा पर ध्यान नहीं दिया गया, जो भारत जैसे देश के लिए काफी जरूरी है," आगे कहती हैं, "जब तक हम प्राथमिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ नहीं करेंगे तब तक ये योजनाएं शत प्रतिशत लाभकारी नहीं हो सकती हैं। बुनियादी स्वास्थ्य को मजबूत करने की बेहद जरूरी है।"


एसोसिएशन ऑफ हेल्थकेयर्स प्रोवाइडर्स के महानिदेशक डॉ. गिरिधर जे ज्ञानी ने अपने एक लेख में लिखा था, "सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 70 से 80 फीसद पद खाली पड़े हैं। इससे गांव के मरीजों का सारा जमावड़ा जिला अस्पताल में लग जाता है जहां अमूमन महज 200 बेड होते हैं। सभी वहां आते हैं, क्योंकि वहां डॉक्टर हैं। इसीलिए स्वास्थ्य के मोर्चे पर समस्याएं बढ़ती चली गईं। यहां से लोग प्राइवेट अस्पताल जाते हैं। वहां भी डॉक्टर हमेशा मौजूद नहीं होते। बड़े शहरों के नामी-गिरामी अस्पतालों की बात अलग है। यही कारण है कि स्वास्थ्य सुविधाएं लड़खड़ा रही हैं।"

पंजीकरण आज भी बनी हुई है बड़ी समस्या

अस्पताल में डॉक्टर को दिखाने के लिए सबसे बड़ी समस्या पंजीकरण कराने एवं नंबर लगाने की होती है। देश के कुछ बड़े अस्पतालों में ही ऑनलाइन अप्वॉइंटमेंट लेने की सुविधा है। जिला अस्पतालों में भी यह सुविधा होनी चाहिए।

इलाज के लिए बाराबंकी से राजधानी के लोहिया अस्पताल आए रामप्रसाद (42 वर्ष) बताते हैं, "मैं करीब डेढ़ घंटे लाइन में लगा रहा, उसके बाद डॉक्टर को दिखाने को मिला। डॉक्टर साहब ने पूछा क्या हुआ है, मैंने अपनी दिक्कत बताई और उन्होंने मुश्किल से दो मिनट के अंदर दवाई लिख कर भेज दिया, कहा-दवाई खाओ आगे दिक्कत हो तो फिर से दिखा देना।"

गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. पीएन श्रीवास्तव ने अपने 30 वर्ष के करियर के अनुभव को साझा करते हुए बताया, "अस्पताल के ऊपर बहुत ज्यादा दबाव है, जिसकी वजह से मरीज को ज्यादा समय दे पाना संभव नहीं होता। अगर हम एक मरीज को देखने में 10 से 15 मिनट रखें, तो मरीज को अच्छे तरीके से देख सकते हैं, लेकिन यहां पर डॉक्टर से ज्यादा जल्दी तो मरीज को रहती है। मरीज के परिजन कभी-कभी डॉक्टर से मारपीट पर भी उतारू हो जाते हैं। अस्पताल में कोई भी नियम नहीं रह गया है क्योंकि अस्पताल के ऊपर बहुत ज्यादा दबाव है और अस्पताल में काफी दूर-दूर से मरीज आते हैं।"


स्वच्छता भी एक बहुत बड़ी समस्या

स्वास्थ्य मुददे पर काम करने वाली वरिष्ठ पत्रकार पत्रलेखा चटर्जी ने गाँव कनेक्शन को बताया, "कई अध्ययनों से ऊंची आय और निजी टॉयलेट में संबंध का पता चलता है। मगर केवल निजी टॉयलेट होना सफाई और स्वास्थ्य के बारे में जगरुकता का सुबूत नहीं होता। टॉयलेट के होने का हमेशा यह मतलब नहीं होता कि बाकायदा उनका उपयोग भी हो रहा है। फिर इसमें लिंग और जाति संबंधी कारक भी जुड़ जाते हैं। इससे सामुदायिक शौचालयों के रख-रखाव पर भी असर पड़ता है। रही-सही कसर लोगों की अज्ञानता पूरी कर देती है। गौरतलब है कि कम शिक्षा प्राप्त कई माताएं बच्चों का मल खुले में फेंक देती हैं।"


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