सदियों से चली आती एक कहानी है। हमने उसे सुना है, पढ़ा है, कुछ पुराणों में, कभी कथा-गाथाओं में, कभी किस्सों में तो कभी गर्मियों की रातों में छत पर नानी की गोद में लेटकर कहानियों में।
वो कहानी जहाँ दो प्रेमी हैं। वो एक दूसरे के भक्त भी हैं और भगवान भी। साथ भी है और नहीं भी। इस कहानी का हर किस्सा, हर पल आज भी ज़िंदा, जीता-जागता मथुरा की गलियों में, जमुना के घाट पर, दूध-दही और मक्खन की डलियों में, और यहाँ की होली के हर रंग में घूमता रहता है।
एक रोज़ कान्हा ने रंग उठाकर राधा के चेहरे पर पोत दिया। मैं काला और तुम क्यों गोरी? लो जी, दोनों एक रंग हो गए। उसी पल से शुरू हुआ ये रंगों का त्यौहार।
कान्हा अपनी टोली लेकर निकलता था दबे पाँव। नंदगाँव की सरहद लाँघते ही ढीठ हो जाता था। बरसाना की गलियों को खोजता था राधा को। जहाँ कहीं मिल गई, वहीं रंग देता था।
एक दो बार तो बेचारी फँस गई कान्हा के खेल में। पर अगली बार राधा ने गैय्या के खूटे के पास पड़ा लठ उठाया और जो दौड़ी कान्हा के पीछे की कान्हा के लिए तीनों लोक छोटे पड़ गए।
आज भी नंदगाँव के सारे कान्हा जाते हैं बरसाना और लठ खाकर ही लौटते हैं।
वृन्दावन और ब्रज के मंदिरों में पुजारियों से मिलता है सबको होली का आशीर्वाद। ख़ूब उड़ेला जाता है रंगीन पानी।
ग़ुलाब, गेंदे और टेसू से बना गुलाल रंग देता है मथुरा की हर गली, हर मोहल्ला।
पागल बाबा विधवा आश्रम की विधवाएँ भी रंग खेलती हैं। रूढ़िवादी विचारों को तोड़कर आखिर ये त्यौहार सभी को रंग ही देता है।
गली गली के मोड़ पर ठंडाई के ठेले सजते हैं। दूध, बादाम, इलायची, खसखस, केसर, कभी कभी भांग भी।
ऋतुराज के स्वागत के लिए पूरी मथुरा सज जाती है।
घर-आँगन से गुजिया, मठरी, जलेबियों के थाल निकलते हैं, आस-पड़ोस का फेरा लगाते हैं।
तो आप कब आएँगे इन गलियों में जहाँ कोई कान्हा मुट्ठी में रंग दबाये छुपा बैठा है और कोई राधा लठ लिए उसकी राह देख रही है?