पिछले 66 सालों से देश भर की
सहकारी संस्थाएं 14 से 20 नवंबर के दौरान सहकारिता सप्ताह मनाती हैं और अपनी
उपलब्धियों व चुनौतियों पर चर्चा करती हैं। इस बार 67वां सहकारिता सप्ताह ऐसे दौर
में मनाया जा रहा है जबकि कोरोना संकट देश भर में फैला हुआ है। कोरोना संकट ने
तमाम क्षेत्रों पर बुरा असर डाला है और बेशक इसका असर सहकारिता क्षेत्र पर भी पड़ा है। लेकिन इस संकट के दौरान कई क्षेत्रों में सहकारी समितियों ने ऐतिहासिक भूमिका
निभाते हुए अपनी उपयोगिता को साबित भी की है।
भारत में 55 तरह की छह लाख से अधिक सहकारी
समितियां तमाम हिस्सों में काम कर रही हैं। इसके सदस्यों को संख्या 25 करोड़
से भी अधिक है। सहकारिता आंदोलन की पहुंच भारत के सौ फीसदी गांवों और 97 फीसदी ग्रामीण परिवारों तक
है। तमाम उतार-चढ़ाव से जूझने के बावजूद अमूल और इफको जैसे संगठनों ने वैश्विक
प्रतिष्ठा हासिल की है और ‘कृभको‘, ‘नेफेड‘, ‘ट्राइफेड‘ से लेकर भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ ने शानदार काम किया है।
हाल के सालों में कई इलाकों में
सहकारी समितियों की सफलता-विफलता की तमाम कहानियां सामने आई हैं और कई विवाद भी
रहे। गुजरात, महाराष्ट्र और केरल समेत कई अन्य
राज्यों में सहकारी समितियों का कामकाज शानदार रहा है। लेकिन देश के सबसे बड़े
प्रांतों उत्तर प्रदेश और बिहार में इनकी स्थिति ठीक नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह
राजनीतिक दखलंदाजी भी है। जो सत्ता में रहा, वे सहकारी क्षेत्रों पर कब्जा जमाये
रखने की कोशिश करते रहे।
आर्थिक उदारीकरण के बाद तमाम
चुनौतियों के बाद भी भारत का सहकारिता आंदोलन वैश्विक स्तर पर एक अलग मुकाम और प्रतिष्ठा हासिल कर चुका है।
विश्व के सबसे बड़े सहकारी आंदोलन में इसकी गिनती होती है। भारत में तमाम स्तरों
पर करीब छह लाख सहकारी समितियां काम कर रही हैं, जिसके
सदस्यों को संख्या 25 करोड़ है। लेकिन इसकी पहुंच भारत के सौ फीसदी गांवों और 97
फीसदी ग्रामीण परिवारों तक है। तमाम प्रतिस्पर्धा और उतार चढ़ाव के बाद भी सहकारिता क्षेत्र ग्रामीण भारत की धड़कन बना
हुआ है।
प्राचीन भारत में सदियों से
सहकार का भाव विद्यमान रहा है। सहकारिता शब्द की उत्पत्ति ‘सह’ और ‘कार’ से हुई है, जिसका अर्थ होता है- मिल कर काम करना। भारत में आधुनिक सहकारिता क्षेत्र
ने हरित और श्वेत क्रांति में ऐतिहासिक भूमिका निभाते
हुए कई क्षेत्रों में अनूठा योगदान दिया है। बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देने
के साथ यह क्षेत्र समाज के सबसे कमजोर तबकों को सहारा देता है। मत्स्य पालन, श्रम, हैण्डलूम, आवास और
महिला सहकारिताओं के साथ जनजातीय क्षेत्रों में यह
भूमिका निभा रहा है।
दूरदर्शन और इफ्को के बीच कृषि तकनीक और कृषि विज्ञान से जुड़े शोध के प्रचार-प्रसार को लेकर हुआ करार@shashidigital @Mayank23Agrawal
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— डीडी न्यूज़ (@DDNewsHindi) October 5, 2020
गांधीजी सहकारिता आंदोलन के महान प्रेरक थे। वहीं सरदार वल्लभ भाई पटेल नें सहकारिता क्षेत्र में खुद बारदोली चीनी मिल को
सफलता की एक बड़ी गाथा के रूप में खड़ा किया। वे मानते थे कि कृषि भारत की ‘रीढ़’ है तो सहकारिता आंदोलन
‘आत्मा’। पहले प्रधानमंत्री पंडित
जवाहर लाल नेहरू ने सहकारिता क्षेत्र को खास समर्थन दिया, जबकि
गांधीवादी वैकुंठ भाई मेहता ने इस क्षेत्र के विकास में पूरा जीवन लगा दिया। भारत
के सहकारिता आंदोलन में
लक्ष्मणराव ईमानदार, वर्गीज कुरियन, मधुसूदन दास, वी.रामदास पंतुलू, त्रिभुवनदास पटेल से लेकर उत्तर प्रदेश में
बाबू बनारसी दास जैसी कई हस्तियों ने ऐतिहासिक भूमिका निभायी।
भारत में सहकारिता आंदोलन के सौ सालों
से अधिक के सफर में अमूल जैसा देश का सबसे बड़ा खाद्य ब्रांड और सहकारिता क्षेत्र
में दुनिया की सबसे बड़ा उर्वरक उपक्रम ‘इफको’ खड़ा हुआ। इनका लगातार विस्तार हो रहा है।
अमूल ने बिचौलियों को समाप्त कर
दूध उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच सीधा लिंकेज बनाया। खरीद, प्रसंस्करण और विपणन का नियंत्रण किसानों द्वारा होता
है। अमूल की बुनियाद त्रिभुवनदास पटेल ने रखी और महान नायक डॉ. वर्गीज कुरियन ने
इसे विस्तार दिया। आज भारत दुग्ध उत्पादन में दुनिया में पहले पायदान पर है तो
इसमें सबसे बड़ा योगदान सहकारिता क्षेत्र को जाता है।
2018-19 में सहकारिताओं द्वारा दूध की खरीद रोज 507.5 लाख किलोग्राम
तक पहुंच गयी जो 2014-15 में 378.3 लाख किलोग्राम
तक थी। यह आंकड़ा लगातार विस्तारित हो रहा है।
इफको को पूर्व राष्ट्रपति एपीजे
अब्दुल कलाम ने भारतीय सहकारिताओं के लिए रोल माडल कहा था, जो आज 500 सबसे बड़ी फार्च्यून इंडिया की
कंपनियों की सूची में 37वें स्थान पर है। 36,000 सदस्य
सहकारी समितियों की मदद से यह सीधे पांच करोड़ किसानों से जुड़ी है। किसानों की आय
बढाने के लिये प्रो. एम एस स्वामीनाथन से सलाह मशविरे के बाद यह कई क्षेत्रों में
किसानों के कल्याण के लिए काम कर रही है।
दुनिया भर में सहकारिता का इतिहास दो सदी से
अधिक पुराना नहीं है। तमाम देशों में सहकारिताएं छोटे
किसानों के लिए बहुत मददगार रही हैं। भारत में सहकारी प्रवृत्ति का उदय किसानों को
साहूकारों के शोषण से बचाने के लिए हुआ। आजादी के बाद आर्थिक विकास प्रक्रिया में सहकारिता का निजी औऱ सार्वजनिक क्षेत्रों में
तेजी से विकास हुआ। सरकार ने सहकारी संस्थाओं की शेयर कैपिटल में भागीदारी की।
केंद्र सरकार ने 1956, 1977 और 2000 में सहकारी
नीतियों की घोषणा की। बहु राज्य सहकारी समिति अधिनियम 2002 के तहत स्वायत्तता और
लोकतांत्रिक प्रबंधन मुहैया कराने की पहल भी की। बाद में इसे मजबूत करने के लिए कई
कदम उठे। राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम कृषि क्षेत्र की सहकारी समितियों के माध्यम
से फसलोपरांत क्रियाकलापों समेत कई गतिविधियों के लिए मदद देता है। आवधिक ऋण के
अलावा राज्यों की श्रेणी के आधार पर सहकारी समितियों को 15 से 25 फीसदी तक सब्सिडी
प्रदान की जाती है।
लेकिन सहकारिता की सोच में गांव और
किसान हैं। इसी के मद्देनजर रख 1967 तक इसे योजना प्रक्रिया में पूरी अहमियत मिली।
बाद में प्राथमिकताएं बदलीं तो सहकारी क्षेत्र की चुनौतियों बढ़ीं। राजनीतिक दल सहकारिता पर कब्जा करने में जुट गए। सहकारी
रजिस्ट्रार कंट्रोलर की भूमिका में आने लगे जिससे इसकी स्वायत्ता प्रभावित हुई।
हालांकि 97वें संविधान संशोधन
के बाद तस्वीर बदली है। सरकारी स्तर पर पूरे देश के सहकारी कानूनों और निर्देशों
का अध्ययन किया जा रहा है और आने वाले समय में विकास की राह में रोड़े दूर हो सकते
हैं।
लेकिन यह सच्चाई भी है कि कई
राज्यों में सहकारी नेतृत्व कमजोर है। अनियमितताओं और घोटालों से इसकी छवि भी आहत
हुई है। कई राज्यों में नौकरशाहों की मदद से निजी क्षेत्र और कारपोरेट्स जमी जमायी
सहकारी संस्थाओं को कमजोर कर रहे हैं। फिर भी मत्स्यपालन, पुष्पोत्पादन, मधुमक्खी
पालन, पर्यटन और पनबिजली जैसी गतिविधियों में भी
यह आगे बढ़ रहा है।
कई सहकारी संस्थाएं संचार और
सूचना क्रांति का भरपूर लाभ उठाते हुए विभिन्न मोबाइल एप्लीकेशन्स से अपने
लाभार्थियों को सहायता प्रदान कर रही हैं। इससे पारदर्शिता और मजबूत हुई है और
विश्वसनीयता भी। जैविक खेती में भी कुछ जगहों पर सहकारिता क्षेत्र आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा
है।
सहकारी क्षेत्र आदिवासियों के
कल्याण में भी लगा है। लघु वनोपज आदिवासियों का सबसे बड़ा सहारा हैं, जिनको वे परिवार के साथ जंगलों में जाकर एकत्र करते हैं औऱ
हाट-बाजारों में औने पौने दामों में बेच कर जरूरतें पूरी करते हैं। भारत में करीब
एक लाख करोड़ रुपए मूल्य का लघु वनोपज निकलता हैं। आदिवासी हाट बाजारों में
बिचौलिये और भ्रष्ट व्यापारी उनका भारी शोषण करते रहे हैं। लेकिन ट्राइफेड के
समर्थन से इनकी दुनिया में बदलाव दिख रहा है। पहली बार वन्य उत्पादों की रिकार्ड
खरीद ट्राइफेड ने की। सरकार ने एमएसपी योजना के दायरे
में कुल 73 लघु वन्य उत्पादों
की खरीद को सुनिश्चित कराया है।
कोरोना संकट के दौरान इफको ने
पीएम केयर में 25 करोड़ की राशि देने के साथ कई जगहों पर ग्रामीणों को जरूरी
सुरक्षा सामग्रियों के साथ खाद्य वस्तुओं को भी उपलब्ध कराया है। ‘ब्रेक द कोरोना चेन’ जागरूकता
अभियान के साथ तमाम गतिविधियां इसने संचालित की है जिसकी प्रधानमंत्री तक ने
सराहना की है।
आज हमारी आबादी करीब 132 करोड़
तक पहुंच गयी है और हम चीन को पछाड़ने की तैयारी में हैं। तमाम बदलाव के बाद 58 फीसदी से ज्यादा आबादी खेती बाड़ी पर
निर्भर है। लेकिन तमाम ग्रामीण युवा खेती से मुंह मोड़ शहरों की ओर भाग रहे हैं।
खेती में मजदूरों की समस्या, बाजार की अनिश्चितता, बढ़ती लागत, भोजन की खपत का बदल रहा पैटर्न और आय
में बेहद असमानता गहरी चिंता के बिंदुओं में शामिल है। फिर भी आधा रोजगार खेती
ही दे रही है। सरकार किसानों की आय बढ़ाने के लिए कई विकल्पों पर ध्यान दे रही है।
जैविक खेती से लेकर जीरो बजट प्राकृतिक खेती इसमें शामिल है। हाल में कई और कृषि
सुधार किए गए हैं लेकिन उनका जमीनी असर अभी दिखना बाकी है।
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इस परिदृश्य के बीच सहकारिता की
अपनी अलग अहमियत है। सहकारिता मूलतः किसानों के उत्थान के लिए है। लेकिन किसानों
का उत्थान केवल कर्ज दे देने या कृषि निवेश के साधन जुटा देने भर से नहीं चल सकता।
उत्पादन में बढ़ोत्तरी के साथ सभी उपज का सही दाम मिलना चाहिए। इस काम के लिए
अच्छी मार्केटिंग सुविधाओं के साथ एग्रो प्रोसेसिंग इकाइयों के विस्तार की भी
जरूरत है। सहकारी क्षेत्र में वैसे तो कोल्ड स्टोरेज, दाल, चावल व तेल मिलें स्थापित हैं
लेकिन इनके दायरे के विस्तार की जरूरत है। कई इलाकों जैसे चीनी, दुग्ध, ऋण और उर्वरक में यह बड़ी ताकत है।
सहकारी चीनी मिलों ने अपने दायरे में सड़क बनाने से लेकर विकास के तमाम सोपानों में
मदद की है। लेकिन कई इलाकों में उनकी दशा ठीक नहीं है। सहकारी ऋण ढांचा आधे छोटे
किसानों की कृषि संबंधी वित्तीय जरूरतों को पूरा करता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली
में सहकारी समितियों का अहम योगदान रहा है।
कोरोना संकट के दौरान कृषि और
सहकारिता दोनों क्षेत्रो ने अपनी ताकत दिखायी है। सरकार 2024-25 तक कृषि निर्यात
को लगभग सात लाख करोड़ रुपये करने का भारी लक्ष्य लेकर चल रही है। इसमें सहकारी
क्षेत्र बड़ी भूमिका निभा सकता है। अगर किसानों की संगठित सहकारी क्रय-विक्रय
समितियां गांव-गांव में गोदाम खड़ा कर अपनी ताकत का विस्तार करें तो वे किसानों को
काफी शोषण से बच सकते हैं। गोदामों में रखी उपज वाजिब दाम मिलने पर बेची जा सकती
है।
लेखक- देश के वरिष्ठ पत्रकार और ग्रामीण मामलों के जानकार हैं। खेत खलिहान गांव कनेक्शन में आप का नियमित कॉलम है।
नोट: यह लेख कोविड-19 पैंडेमिक के दौरान साल 2020 में प्रकाशित किया था।
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